इन आंखों का क्या करूं

शब्दों को बदल देने की

कला जानती हूं,

अपनी अभिव्यक्ति को

अनभिव्यक्ति बनाने की

कला जानती हूं ।

पर इन आंखों का क्या करूं

जो सदैव

सही समय पर

धोखा दे जाती हैं।

रोकने पर भी

न जाने

क्या-क्या कह जाती हैं।

जहां चुप रहना चाहिए

वहां बोलने लगती हैं

और जहां बोलना चाहिए

वहां

उठती-गिरती, इधर-उधर

ताक-झांक करती

धोखा देकर ही रहती हैं।

और कुछ न सूझे तो

गंगा-यमुना बहने लगती है।