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आज बसन्त मुझे
कुछ उदास लगा
रंग बदलने लगे हैं।
बदलते रंगों की भी
एक सुगन्ध होती है
बदलते भावों के साथ
अन्तर्मन को
महका-महका जाती है।
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मन में विषधर पाले
विषधर तो है !
लेकिन देखना होगा,
विष कहां है?
आजकल लोग
परिपक्व हो गये हैं,
विष निकाल लिया जाता है,
और इंसान के मुख में
संग्रहीत होता है।
तुम यह समझकर
नाग को मारना,
कुचलना चाहते हो,
कि यही है विषधर
जो तुम्हें काट सकता है।
अब न तो
नाग पकड़ने वाले रह गये,
कि नाग का नृत्य दिखाएंगे,
न नाग पंचमी पर
दुग्ध-दहीं से अभिषेक करने वाले।
मन में विषधर पाले
ढूंढ लो चाहे कितने,
मिल जायेंगे चाहने वाले।
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जीवन में सुख दुख शाश्वत है
सूर्य का गमन भी तो एक नया संदेश देता है
चांदनी छिटकती है, शीतलता का एहसास देता है
जीवन में सुख-दुख की अदला-बदली शाश्वत है
चंदा-सूरज के अविराम क्रम से हमें यह सीख देता है
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हमारा बायोडेटा
हम कविता लिखते हैं।
कविता को गज़ल, गज़ल को गीत, गीत को नवगीत, नवगीत को मुक्त छन्द, मुक्त छन्द को मुक्तक,
मुक्तक को चतुष्पदी बनाना जानते हैं और ज़रूरत पड़े तो इन सब को गद्य की सभी विधाओं में भी
परिवर्तित करना जानते हैं।
जैसे कृष्ण ने गीता में लिखा है कि वे ही सब कुछ हैं, वैसे ही मैं ही लेखक हूँ ,
मैं ही कवि, गीतकार, गज़लकार, साहित्यकार, गद्य पद्य की रचयिता,
कहानी लेखक, प्रकाशक , मुद्रक, विक्रेता, क्रेता, आलोचक,
समीक्षक भी मैं ही हूँ ,मैं ही संचालक हूँ , मैं ही प्रशासक हूँ ।
अहं सर्वत्र रचयिते
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सूर्य देव तुम कहाँ हो
ओ बादलो गगन से घेरा हटाओ
शीतल पवन तुम दूर भाग जाओ
कोहरे से दृष्टि-भ्रम होने लगा है
सूर्य देव तुम कहाँ हो आ जाओ
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सदानीरा अमृत-जल- नदियाँ
नदियों के अब नाम रह गये
नदियों के अब कहाँ धाम रह गये।
गंगा, यमुना हो या सरस्वती
बातों की ही बात रह गये।
कभी पूजा करते थे
नदी-नीर को
अब कहते हैं
गंदे नाले के ये धाम रह गये।
कृष्ण से जुड़ी कथाएँ
मन मोहती हैं
किन्तु जब देखें
यमुना का दूषित जल
तो मन में कहाँ वे भाव रह गये।
पहले मैली कर लेते
कचरा भर-भरकर,
फिर अरबों-खरबों की
साफ़-सफ़ाई पर करते
बात रह गये।
कहते-कहते दिल दुखता है
पर
सदानीरा अमृत-जल-नदियों के तो
अब बस नाम ही नाम रह गये।
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नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे
किसी मित्र ने मुझसे कहा कि आपकी सोच यानी मेरी यानी कविता की सोच बहुत नकारात्मक है। यदि मैं अच्छा सोचूँगी, सकारात्मक रहूँगी तो सब अच्छा ही होगा। इस बात पर उन्होंने एक मुहावरा पढ़ डाला ‘‘नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे’’ किन्तु कैसे उन्होने नहीं बताया।
तो इस मुहावरे पर मेरा एक सरल सा हास्य-व्यंग्य
*-*-*-*-*-*-*
आप अवश्य ही सोचेंगे इसकी तो बुद्धि ही उलट-पुलट है। किन्तु जैसी है, वैसी ही है, मैं क्या कर सकती हूँ। आप सब हर विषय पर गम्भीरता का ताना-बाना क्यों ओढ़ लेते हैं?
अब आप कह रहे हैं, नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे। कैसे भई, किस तरह?
अब इस आयु में मैं तो बदलने से रही। कोई भी योगी-महायोगी कहेगा, बदलने, सीखने की कोई उम्र नहीं होती। बस प्रयास करना पड़ता है। अब सारा जीवन प्रयास करते ही निकल गया, कभी किसी के लिए बदले, तो कभी किसी के लिए। बचपन में माँ-पिता, बड़े भाई-बहनों के आदेश-निर्देश बदलने के लिए, फिर ससुराल पक्ष के, उपरान्त बच्चों के और अब आप शुरु हो गये। अब तो थोड़ा मनमर्ज़ी से आराम करने दीजिए।
चलिए, कुछ गम्भीर बात कर लेते हैं। क्या मात्र नज़रिया बदलने से नज़ारे बदल जाते हैं? पता नहीं, चलिए विचार करने का प्रयास करते हैं। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि नज़ारे बदलें तो नज़रिया अवश्य बदलता है।
मन उदास है और बाहर खिली-खिली धूप है, गुंजन करते भंवरे, हवाओं से लहलहाते पुष्प, पंछियों की चहक, दूर तक फैली हरियाली, देखिए कैसे नज़रिया बदलता है। आप ही चेहरे पर मुस्कुराहट खिल आती है, मन आनन्दमय होने लगता है और चाय पीने का मन हो आता है जिसे हम गुस्से में अन्दर छोड़ आये थे।
कोई यदि हमारे सामने अपशब्दों का प्रयोग करता है तो हम नज़रिया कैसे बदल लें? किन्तु मन खिन्न होने पर हमें कोई सान्त्वना के दो मधुर शब्द बोल देता है, हमारे हित में बात करता है, तो नज़रिया बदल जाता है।
*
किन्तु मैं आपको पहले ही बता चुकी हूँ कि बु़िद्ध उलट-पुलट है। अब आपके पक्ष से विचार करते हैं। नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे।
मैंने नज़रिया बदल लिया।
करेला कड़वा नहीं है, नीम मीठी है। मिर्च तीखी नहीं है, कौआ कितना मीठा गाता है, गोभी का फूल कितना सुन्दर है किसी को भेंट करने के लिए।
हमने करेले-नीम की सब्जी बनाई और यह कहकर सबको खिलाई कि मेरे सकारात्मक विचारों से बनी देखिए कितनी मीठी सब्ज़ी है।
अब यह नज़रिया बदलने पर हमारे क्या नज़ारे बदले न ही पूछिए, क्योंकि हम जानते हैं आप अत्यधिक सकारात्मक विचारों के हैं हमारा दर्द क्या समझेंगे।
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प्रकृति का सौन्दर्य चित्र
कभी-कभी सूरज
के सामने ही
बादल बरसने लगते हैं।
और जल-कण,
रजत-से
दमकने लगते हैं।
तम
खण्डित होने लगता है,
घटाएं
किनारा कर जाती हैं।
वे भी
इस सौन्दय-पाश में
बंध दर्शक बन जाती हैं।
फिर
मानव-मन कहां
तटस्थ रह पाता है,
सरस-रस से सराबोर
मद-मस्त हो जाता है।
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सूखी धरती करे पुकार
वातानुकूलित भवनों में बैठकर जल की योजनाएं बनाते हैं
खेल के मैदानों पर अपने मनोरंजन के लिए पानी बहाते हैं
बोतलों में बन्द पानी पी पीकर, सूखी धरती को तर करेंगे
सबको समान सुविधाएं मिलेंगी, सुनते हैं कुछ ऐसा कहते हैं
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कल डाली पर था आज गुलदान में
कवियों की सोच को न जाने क्या हुआ है, बस फूलों पर मन फिदा हुआ है
किसी के बालों में, किसी के गालों में, दिखता उन्हें एक फूल सजा हुआ है
प्रेम, सौन्दर्य, रस का प्रतीक मानकर हरदम फूलों की चर्चा में लगे हुये हैं
कल डाली पर था, आज गुलदान में, और अब देखो धरा पर पड़ा हुआ है।
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अपने-आपको परखना
कभी-कभी अच्छा लगता है,
अपने-आप से बतियाना,
अपने-आपको समझना-समझाना।
डांटना-फ़टकारना।
अपनी निगाहों से
अपने-आपको परखना।
अपने दिये गये उत्तर पर
प्रश्न तलाशना।
अपने आस-पास घूम रहे
प्रश्नों के उत्तर तलाशना।
मुर्झाए पौधों में
कलियों को तलाशना।
बिखरे कांच में
जानबूझकर अंगुली घुमाना।
उफ़नते दूध को
गैस पर गिरते देखना।
और
धार-धार बहते पानी को
एक अंगुली से
रोकने की कोशिश करना।