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पाप की हो या
पुण्य की गठरी
तो भारी होती है।
कौन करेगा निर्णय
पाप क्या
या पुण्य क्या!
तू मेरे गिनता
मैं तेरे गिनती,
कल के डर से
काल के डर से
सहम-सहम
चलते जीवन में।
इहलोक यहीं
परलोक यहीं
सब लोक यहीं
यहीं फ़ैसला कर लें।
कल किसने देखा
चल आज यहीं
सब भूल-भुलाकर
जीवन
जी भर जी लें।
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प्यार के इज़हार के लिए
आ जा,
आज ज़रा
ताज के साये में
कुछ देर बैठ कर देखें।
क्या एहसास होता है
ज़रा सोच कर देखें।
किसी के प्रेम के प्रतीक को
अपने मन में उतार कर देखें।
क्या सोचकर बनाया होगा
अपनी महबूबा के लिए
इसे किसी ने,
ज़रा हम भी आजमां कर तो देखें।
न ज़मीं पर रहता है
न आसमां पर,
किस के दिल में कौन रहता है
ज़रा जांच कर देखें।
प्यार के इज़हार के लिए
इन पत्थरों की क्या ज़रूरत थी,
बस एक बार
हमारे दिल में उतर कर तो देखें।
एक अनछुए एहसास-सी,
तरल-तरल भाव-सी,
प्रेम की कही-अनकही कहानी
नहीं कह सकता यह ताज जी।
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एक बेला ऐसी भी है
एक बेला ऐसी भी है
जब दिन-रात का
अन्तर मिट जाता है
उभरते प्रकाश
एवं आशंकित तिमिर के बीच
मन उलझकर रह जाता है।
फिर वह दूर गगन हो
अथवा
अतल तक की गहरी जलराशि।
मन न जाने
कहां-कहां बहक जाता है।
सब एक संकेत देते हैं
प्रकाश से तिमिर का
तिमिर से प्रकाश का
बस
इनके ही समाधान में
जीवन बहक जाता है।
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मन की बगिया महक रही देखो मैं बहक रही
फुलवारी में फूल खिले हैं मन की बगिया भी महक रही
पेड़ों पर बूर पड़े,कलियों ने करवट ली,देखो महक रहीं
तितली ने पंख पसारे,फूलों से देखो तो गुपचुप बात हुई
अन्तर्मन में चाहत की हूक उठी, देखो तो मैं बहक रही
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ज़िन्दगी भी सिंकती है
रोटियों के साथ
ज़िन्दगी भी सिंकती है।
कौन जाने
जब रोटियां जलती हैं
तब जिन्दगी के घाव
और कौन-कौन-सी
पीड़ाएं रिसती हैं।
पता नहीं
रोज़ कितनी रोटियां सिंकती हैं
कितनी की भूख लगती है
और कितनी भूख मिटती है।
इस एक रोटी के लिए
दिन-भर
कितनी मेहनत करनी पड़ती है
तब जाकर कहीं बाहर आग जलती है
और भीतर की आग
सुलगती हुई आग
न कभी बुझती है
कभी भड़कती है।
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विरोध से डरते हैं
सहनशीलता के दिखावे की आदत-सी हो गई है
शालीनता के नाम पर चुप्पी की बात-सी हो गई है
विरोध से डरते हैं, मुस्कुराहट छाप ली है चेहरों पर
सूखे फूलों में खुशबू ढूंढने की आदत-सी हो गई है।
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रोज़ पढ़ती हूं भूल जाती हूं
जीवन के सिखाये गये पाठ
बार बार दोहराती हूं।
रोज़ याद करती हूं, पर भूल जाती हूं ।
पुस्तकें पढ़कर नहीं चलता जीवन,
यह जानकर भी
वही पाठ बार-बार दोहराती हूं ।
सब कहते हैं, पढ़ ले, पढ़ ले,
जीवन में कुछ आगे बढ़ ले ।
पर मेरी बात
कोई क्यों नहीं समझ पाता।
कुछ पन्ने, कुछ हिसाब-बेहिसाब
कभी समझ ही नहीं पाती हूं,
लिख-लिखकर दोहराती हूं ।
कभी स्याही चुक जाती है ,
कभी कलम छूट जाती है,
अपने को बार-बार समझाती हूं ।
फिर भी,
रोज़ याद करती हूं ,भूल जाती हूं ।
ज़्यादा गहराईयों से
डर लगता है मुझे
इसलिए कितने ही पन्ने
अधपढ़े छोड़ आगे बढ़ जाती हूं ।
कोई तो समझे मेरी बात ।
कहते हैं,
तकिये के नीचे रख दो किताब,
जिसे याद करना हो बेहिसाब,
पर ऐसा करके भी देख लिया मैंने
सपनों में भी पढ़कर देख लिया मैंने,
बस, इसी तरह जीती चली जाती हूं ।
.
रोज़ पढ़ती हूं भूल जाती हूं ।
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होगा कैसे मनोरंजन
कौन कहे ताक-झांक की आदत बुरी, होगा कैसे मनोरंजन
किस घर में क्या पकता, नहीं पता तो कैसे मानेगा मन
अपने बर्तन-भांडों की खट-पट चाहे सुनाये पूरी कथा
औरों की सीवन उधेड़ कर ही तो मिलता है चैन-अमन
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गुम हो जाये चाबी स्कूल की
हाथ जोड़कर तुम क्या मांग रहे मुझको कुछ भी नहीं पता
बैठा था गर्मी की छुट्टी की आस में, क्या की थी मैंने खता
मैं तो बस मांगूं एक टी.वी.,एक पी.सी,एक आई फोन 6
और मांगू, गुम हो जाये चाबी स्कूल की, और मेरा बस्ता
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अन्तर्द्वन्द
हर औरत के भीतर
एक औरत है
और उसके भीतर
एक और औरत।
यह बात
स्वयं औरत भी नहीं जानती
कि उसके भीतर
कितनी लम्बी कड़ी है
इन औरतों की।
धुरी पर घूमती चरखी है वह
जिसके चारों ओर
आदमी ही आदमी हैं
और वह घूमती है
हर आदमी के रिश्ते में।
वह दिखती है केवल
एक औरत-सी,
शेष सब औरतें
उसके चारों ओर
टहलती रहती हैं,
उसके भीतर सुप्त रहती हैं।
कब कितनी
औरतें जाग उठती हैं
और कब कितनी मर जाती हैं
रोज़ पैदा होती हैं
कितनी नई औरतें
उसके भीतर
यह तो वह स्वयं भी नहीं जानती।
लेकिन
ये औरतें संगठित नहीं हैं
लड़ती-मरती हैं,
अपने-आप में ही
अपने ही अन्दर।
कुछ जन्म लेते ही
दम तोड़ देती हैं
और कुछ को
वह स्वयं ही, रोज़, हर रोज़
मारती है,
वह स्वयं यह भी नहीं जानती।
औरत के भीतर सुप्त रहें
भीतर ही भीतर
लड़ती-मरती रहें
जब तक ये औरतें,
सिलसिला सही रहता है।
इनका जागना, संगठित होना
खतरनाक होता है
समाज के लिए
और, खतरनाक होता है
आदमी के लिए।
जन्म से लेकर मरण तक
मरती-मारती औरतें
सुख से मरती हैं।
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ये चांद है अदाओं का
चांद
यूं ही तो नहीं
चमकता है आसमान में।
उसकी भी अपनी अदाएं हैं।
किसी को तो चांद सी
सूरत दे देता है
और किसी के जीवन में
चांद से दाग
और किसी किसी के लिए तो
कभी चांद निकलता ही नहीं
बस
अमावस्या ही बनी रहती है जीवन भर।
बस एक भ्रम पालकर
जिन्दगी जी लेते हैं
कि चांद है उनकी जिन्दगी में
क्योंकि जब
चांद आसमान में है
तो कुछ तो उनकी
जिन्दगी में भी होगा ही।
और कहीं कहीं तो कभी
चांद डूबता ही नहीं,
बस पूर्णिमा ही बनी रहती है।
इसलिए इस भ्रम में
या इस गणना में मत रहना
कि इतने दिन बाद
चौथ का चांद
आ जायेगा जीवन में,
या अमावस्या या पूर्णिमा,
उसकी मर्ज़ी आये या न आये