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जीवन में क्या बनोगे
क्या बनना चाहते हो
अक्सर पूछे जाते थे
ऐसे सवाल।
अपने आस-पास
देखते हुए
अथवा बड़ों की सलाह से
मिले थे कुछ बनने के आधार।
रट गईं थी हमें
बताईं गईं कुछ राहें और काम,
और जब भी कोई पूछता था
हम ले देते थे
कोई भी एक-दो नाम।
किन्तु मन तब डरने लगा
जब हमारे सामने
दी जाने लगीं ढेरों मिसालें
अनगिनत उदाहरण।
किसी की जीवनियाँ,
किसी की आहुति,
किसी की सेवा
और किसी का समर्पण।
कोई सच्चा, कोई त्यागी,
कोई महापुरुष।
इन सबको समझने
और आत्मसात करने में
जीवन चला गया
और हम
वहीं के वहीं ठहरे रह गये।
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दो चाय पिला दो
प्रात की नींद से न अच्छा समय कोई
दो चाय पिला दो आपसे अच्छा न कोई
मोबाईल की टन-टन न हमें जगा पाये
कुम्भकरण से कम न जाने हमें कोई
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आज मुझे देश की याद सता गई
सोच में पड़ गई
आज न तो गणतन्त्र दिवस है,
न स्वाधीनता दिवस, न शहीदी दिवस
और न ही किसी बड़े नेता की जयन्ती ।
न ही समाचारों में ऐसा कुछ देखा
कि देश की याद सता जाती।
फिर आज मुझे
देश की याद क्यों सता गई ।
कुछ गिने-चुने दिनों पर ही तो
याद आती है हमें अपने देश की,
जब एक दिन का अवकाश मिलता है।
और हम आगे-पीछे के दिन गिनकर
छुट्टियां मनाने निकल जाते हैं
अन्यथा अपने स्वार्थ में डूबे,
जोड़-तोड़ में लगे,
कुछ भी अच्छा-बुरा होने पर
सरकार को कोसते,
अपना पल्ला झाड़ते
चाय की चुस्कियों के साथ राजनीति डकारते
अच्छा समय बिताते हैं।
पर सोच में पड़
आज मुझे देश की याद क्यों सता गई
पर कहीं अच्छा भी लगा
कि अकारण ही
आज मुझे देश की याद सता गई ।
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भूल-भुलैया की इक नगरी होती
भूल-भुलैया की इक नगरी होती
इसकी-उसकी बात न होती
सुबह-शाम कोई बात न होती
हर दिन नई मुलाकात तो होती
इसने ऐसा, उसने वैसा
ऐसे कैसे, वैसे कैसे
कोई न कहता।
रोज़ नई-नई बात तो होती
गिले-शिकवों की गली न होती,
चाहे राहें छोटी होतीं
या चौड़ी-चौड़ी होतीं
बस प्रेम-प्रीत की नगरी होती
इसकी-उसकी, किसकी कैसे
ऐसी कभी कोई बात न होती
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आस्थाएं डांवाडोल हैं
किसे मानें किसे छोड़ें, आस्थाएं डांवाडोल हैं
करते पूजा-आराधना, पर कुण्ठित बोल हैं
अंधविश्वासों में उलझे, बाह्य आडम्बरों में डूबे,
विश्वास खण्डित, सच्चाईयां सब गोल हैं।
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कौन है अपना कौन पराया कैसे जानें हम
अधिकार भी व्यापार हो गये हैं
तंग गलियों में हथियार हो गये हैं।
किसको मारें किसको काटें
कौन जलेगा, कहां मरेगा
अब क्या जानें हम।
अंधेरी राहों में भटक रहे हैं
अपने ही चेहरों से अनजाने हम।
दिन की भटकन छूट गई
रातें भीतर बिखर गईं
कौन है अपना कौन पराया
कैसे जानें हम।
अनजानी राहों पर
किसके पीछे
क्यों निकल पड़े हैं
इतना भी न जाने हम।
अपना ही घर फूंक रहे हैं,
राख में मोती ढूंढ रहे हैं,
श्मशानों में न घर बनते
इतना कब जानेंगे हम।
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ये आंखें
मन के भीतर प्रवेश का द्वार हैं ये आंखें
सुहाने सपनों से सजा संसार हैं ये आंखें
होंठ बेताब हैं हर बात कह देने के लिए
शब्द को भाव बनने का आधार हैं ये आंखें
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नाम लिखा है तुम्हारा
रोज़ एक फूल छुपाती थी किताबों में
तुम्हारे चेहरे का अक्स बनाती थी किताबों में
दिल की बात बताती थी किताबों में
फिर एक दिन किताब पुरानी हो गई
पन्ने खुलने लगे, फूल झरने लगे
सूखे फूलों को समेटा, पत्ती पत्ती को सहेजा
कोई देख न ले
इसलिए बंद मुठ्ठी में सहेजा
पर मुठ्ठी की दरारों से, चाहत झरने लगी
फूल फिर रूप लेने लगे,
रंग फिर बहकने लगे
नाम तुम्हारा लिखने लगे
दिल में बाग खिलने लगे
उपहार भेजती हूं तुम्हें
तुम्हारा ही दिल
नाम लिखा है तुम्हारा
फूलों में, कलियों में
इन उलझी लड़ियों में
सलमे सितारों में
तारों में , हारों में ।।।।।।
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वन्दे मातरम् कहें
चलो
आज कुछ नया-सा करें
न करें दुआ-सलाम
न प्रणाम
बस, वन्दे मातरम् कहें।
देश-भक्ति के गीत गायें
पर सत्य का मार्ग भी अपनाएं।
शहीदों की याद में
स्मारक बनाएं
किन्तु उनसे मिली
धरोहर का मान बढ़ाएं।
न जाति पूछें, न धर्म बताएं
बस केवल
इंसानियत का पाठ पढ़ाएं।
झूठे जयकारों से कुछ नहीं होता
नारों-वादों कहावतों से कुछ नहीं होता
बदलना है अगर देश को
तो चलो यारो
आज अपने-आप को परखें
अपनी गद्दारी,
अपनी ईमानदारी को परखें
अपनी जेब टटोलें
पड़ी रेज़गारी को खोलें
और अलग करें
वे सारे सिक्के
जो खोटे हैं।
घर में कुछ दर्पण लगवा लें
प्रात: प्रतिदिन अपना चेहरा
भली-भांति परखें
फिर किसी और को दिखाने का साहस करें।
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अनुभव की थाती
पर्वतों से टकराती, उबड़-खाबड़ राहों पर जब नदी-नीर-धार बहती है
कुछ सहती, कुछ गाती, कहीं गुनगुनाती, तब गंगा-सी निर्मल बन पाती है
अपनेपन की राहों में ,फूल उगें और कांटे न हों, ऐसा कम ही होता है
यूं ही जीवन में कुछ खोकर, कुछ पाकर, अनुभव की थाती बन पाती है।
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चल रही है ज़िन्दगी
थमी-थमी, रुकी-रुकी-सी चल रही है ज़िन्दगी।
कभी भीगी, कभी ठहरी-सी दिख रही है जिन्दगी।
देखो-देखो, बूँदों ने जग पर अपना रूप सजाया
रोशनियों में डूब रही, कहीं गहराती है ज़िन्दगी।