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पावस की पहली बूंद
धरा तक पहुंचते-पहुंचते ही
सूख जाती है।
तपती धरा
और तपती हवाएं
नमी सोख ले जाती हैं।
अब पावस की पहली बूंद
कहां नम करती है मन।
कहां उमड़ती हैं
मन में प्रेम-प्यार,
मनुहार की बातें।
समाचार डराते हैं,
पावस की पहली बूंद
आने से पहले ही
चेतावनियां जारी करते हैं।
सम्हल कर रहना,
सामान बांधकर रख लो,
राशन समेट लो।
कभी भी उड़ा ले जायेंगी हवाएँ।
अब पावस की बूंद,
बूंद नहीं आती,
महावृष्टि बनकर आती है।
कहीं बिजली गिरी
कहीं जल-प्लावन।
क्या जायेगा
क्या रह जायेगा
बस इसी सोच में
रह जाते हैं हम।
क्या उजड़ा, क्या बह गया
क्या बचा
बस यही देखते रह जाते हैं हम
और अगली पावस की प्रतीक्षा
करते हैं हम
इस बार देखें क्या होगा!!!
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आया कोरोना
घर में कहां से घुस आया कोरोना
हम जानते नहीं।
दूरियां थीं, द्वार बन्द थे,
डाक्टर मानते नहीं।
कहां हुई लापरवाही,
कहां से कौन लाया,
पता नहीं।
एक-एक कर पांचों विकेट गिरे,
अस्पताल के चक्कर काटे,
जूझ रहे,
फिर हुए खड़े,
हार हम मानते नहीं।
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अपनी आवाज़ अपने को सुनाती हूं मैं
मन के द्वार
खटखटाती हूं मैं।
अपनी आवाज़
अपने को सुनाती हूं मैं।
द्वार पर बैठी
अपने-आपसे
बतियाती हूं मैं।
इस एकान्त में
अपने अकेलपन को
सहलाती हूं मैं।
द्वार उन्मुक्त हों या बन्द,
कहानी कहां बदलती है जीवन की,
सहेजती हूं कुछ स्मृतियां रंगों में,
कुछ को रंग देती हूं,
आकार देती हूं,
सौन्दर्य और आभास देती हूं।
जीवन का, नवजीवन का
भास देती हूं।
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यह कैसी विडम्बना है
सुना है,
मानव
चांद तक हो आया।
वहां जल की
खोज कर लाया।
ताकती हूं
अक्सर, चांद की ओर
काश !
मेरा घर चांद पर होता
तो मानव
इस रेगिस्तान में भी
जल की खोज कर लेता।
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अब शब्दों के अर्थ व्यर्थ हो गये हैं
शब्दकोष में अब शब्दों के अर्थ
व्यर्थ हो गये हैं।
हर शब्द
एक नई अभिव्यक्ति लेकर आया है।
जब कोई कहना है अब चारों ओर शांति है
तो मन डरता है
कोई उपद्रव हुआ होगा, कोई दंगा या मारपीट।
और जब समाचार गूंजता है
पुलिस गश्त कर रही है, स्थिति नियन्त्रण में है
तो स्पष्ट जान जाते हैं हम
कि बाहर कर्फ्यू है, कुछ घर जले हैं
कुछ लोग मरे हैं, सड़कों पर घायल पड़े हैं।
शायद, सेना का फ्लैग मार्च हुआ होगा
और हमें अब अपने आपको
घर में बन्द करना होगा ।
अहिंसा के उद्घोष से
घटित हिंसा का बोध होता है।
26 जनवरी, 15 अगस्त जैसे दिन
और बुद्ध, नानक, कबीर, गांधी, महावीर के नाम पर
मात्र एक अवकाश का एहसास होता है
न कि किसी की स्मृति, ज्ञान, शिक्षा, बलिदान का।
धर्म-जाति, धर्मनिरप्रेक्षता, असाम्प्रदायिकता,
सद्भाव, मानवता, समानता, मिलन-समारोह
जैसे शब्द डराते हैं अब।
वहीं, आरोपी, अपराधी, लुटेरे,
स्कैम, घोटाले जैसे शब्द
अब बेमानी हो गये हैं
जो हमें न डराते हैं, और न ही झिंझोड़ते हैं।
“वन्दे मातरम्” अथवा “भारत माता की जय”
के उद्घोष से हमारे भीतर
देश-भक्ति की लहर नहीं दौड़ती
अपितु अपने आस-पास
किसी दल का एहसास खटकता है
और प्राचीन भारतीय योग पद्धति के नाम पर
हमारा मन गर्वोन्नत नहीं होता
अपितु एक अर्धनग्न पुरूष गेरूआ कपड़ा ओढ़े
घनी दाढ़ी और बालों के साथ
कूदता-फांदता दिखाई देता है
जिसने कभी महिला वस्त्र धारण कर
पलायन किया था।
कोई मुझे “बहनजी” पुकारता है
तो मायावती होने का एहसास होता है
और “पप्पू” का अर्थ तो आप जानते ही हैं।
कुछ ज़्यादा तो नहीं हो गया।
कहीं आप उब तो नहीं गये
चलो आज यहीं समाप्त करती हूं
बदले अर्थों वाले शब्दकोष के कुछ नये शब्द लेकर
फिर कभी आउंगी
अभी आप इन्हें तो आत्मसात कर लें
और अन्त में, मैं अब
बुद्धिजीवी, साहित्यकार, कलाकार और
सम्मान शब्दों के
नये अर्थों की खोज करने जा रही हूं।
ज्ञात होते ही आपसे फिर मिलूंगी
या फिर उनमें जा मिलूंगी
फिर कहां मिलूंगी ।।।।।।।
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कड़वा सच पिलवाऊँगा
न मैंने पी है प्यारी
न मैंने ली है।
नई यूनिफ़ार्म
बनवाई है
चुनाव सभा के लिए आई है।
जनसभा से आया हूँ,
कुछ नये नारे
लेकर आया हूँ।
चाय नहीं पीनी है मुझको
जाकर झाड़ू ला।
झाड़ू दूँगा,
हाथ भी दिखलाऊँगा,
फूलों-सा खिल जाऊँगा,
साईकिल भी चलाऊँगा,
हाथी पर तुझको
बिठलाऊँगा,
फिर ढोलक बजवाऊँगा।
वहाँ तीर-कमान भी चलते हैं
मंजी पर बिठलाऊँगा।
आरी भी देखी मैंने
हल-बैल भी घूम रहे,
तुझको
क्या-क्या बतलाउँ मैं।
सूरज-चंदा भी चमके हैं
लालटेन-बल्ब
सब वहाँ लटके हैं।
चल ज़रा मेरे साथ
वहाँ सोने-चाँदी भी चमके है,
टाट-पैबन्द भी लटके हैं,
चल तुझको
असली दुनियाँ दिखलाऊँगा,
चाय-पानी भूलकर
कड़वा सच पिलवाऊँगा।
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कहलाने को ये सन्त हैं
साठ करोड़ का आसन, सात करोड़ के जूते,
भोली जनता मूरख बनती, बांधे इनके फीते,
कहलाने को ये सन्त हैं, करते हैं व्यापार,
हमें सिखायें सादगी आप जीवन का रस पीते।
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मन की बातें न बताएं
पन्नों पर लिखी हैं मन की वे सारी गाथाएं
जो दुनिया तो जाने थी पर मन था छुपाए
पर इन फूलों के अन्तस में हैं वे सारी बातें
न कभी हम उन्हें बताएं न वो हमें जताएं
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लाठी का अब ज़ोर चले
रंग फीके पड़ गये
सत्य अहिंसा
और आदर्शों के
पंछी देखो उड़ गये
कालिमा गहरी छा गई।
आज़ादी तो मिली बापू
पर लगता है
फिर रात अंधेरी आ गई।
निकल पड़े थे तुम अकेले,
साथ लोग आये थे।
समय बहुत बदल गया
लहर तुम्हारी छूट गई।
चित्र तुम्हारे बिक रहे,
ले-देकर उनको बात बने
लाठी का अब ज़ोर चले
चित्रों पर हैं फूल चढ़े
राहें बहुत बदल गईं
सब अपनी-अपनी राह चले
अर्थ-अनर्थ यहां हुआ
समझ तुम्हारे आये न।
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किस युग में जी रहे हो तुम
मेरा रूप तुमने रचा,
सौन्दर्य, श्रृंगार
सब तुमने ही तो दिया।
मेरा सम्पूर्ण व्यक्तित्व
मेरे गुण, या मेरी चमत्कारिता
सब तुम्हारी ही तो देन है।
मुझे तो ठीक से स्मरण भी नहीं
किस युग में, कब-कब
अवतरित हुआ था मैं।
क्यों आया था मैं।
क्या रचा था मैंने इतिहास।
कौन सी कथा, कौन सा युद्ध
और कौन सी लीला।
हां, इतना अवश्य स्मरण है
कि मैंने रचा था एक युग
किन्तु समाप्त भी किया था एक युग।
तब से अब तक
हज़ारों-लाखों वर्ष बीत गये।
चकित हूं, यह देखकर
कि तुम अभी भी
उसी युग में जी रहे हो।
वही कल्पनाएं, कपोल-कथाएं
वही माटी, वही बाल-गोपाल
राधा और गोपियां, यशोदा और माखन,
लीला और रास-लीलाएं।
सोचा कभी तुमने
मैंने जब भी
पुन:-पुन: अवतार लिया है
एक नये रूप में, एक नये भाव में
एक नये अर्थ में लिया है।
काल के साथ बदला हूं मैं।
हर बार नये रूप में, नये भाव में
या तुम्हारे शब्दों में कहूं तो
युगानुरूप
नये अवतार में ढाला है मैंने
अपने-आपको।
किन्तु, तुम
आज भी, वहीं के वहीं खड़े हो।
तो इतना जान लो
कि तुम
मेरी आराधना तो करते हो
किन्तु मेरे साथ नहीं हो।
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आपको चाहिए क्या पारिजात वृक्ष
कृष्ण के स्वर्ग पहुंचने से पूर्व
इन्द्र आये थे मेरे पास
इस आग्रह के साथ
कि स्वीकार कर लूं मैं
पारिजात वृक्ष, पुष्पित –पल्लवित
जो मेरी सब कामनाएं पूर्ण करेगा।
स्वर्ग के लिए प्रस्थान करते समय
कृष्ण ने भी पूछा था मुझसे
किन्तु दोनों का ही
आग्रह अस्वीकार कर दिया था मैंने।
लौटा दिया था ससम्मान।
बात बड़ी नहीं, छोटी-सी है।
पारिजात आ जाएगा
तब जीवन रस ही चुक जायेगा।
सब भाव मिट जायेंगे,
शेष जीवन व्यर्थ हो जायेगा।
जब चाहत न होगी, आहत न होगी
न टूटेगा दिल, न कोई दिलासा देगा
न श्रम का स्वेद होगा
न मोतियों सी बूंदे दमकेंगी भाल पर
न सरस-विरस होगा
न लेन-देन की आशाएं-निराशाएं
न कोई उमंग-उल्लास
न कभी घटाएं तो न कभी बरसात
रूठना-मनाना, लेना-दिलाना
जब कभी तरसता है मन
तब आशाओं से सरस होता है मन
और जब पूरी होने लगती हैं आशाएं-आकांक्षाएं
तब
पारिजात पुष्पों के रस से भी अधिक
सरस-सरस होता है मन।
मगन-मगन होता है मन।
बस
बात बड़ी नहीं, छोटी-सी है।
चाहत बड़ी नहीं, छोटी-सी है।