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जिजीविषा के लिए
रंगों की रंगीनियों में बसी है जि़न्दगी।
डगर कठिन है,
पर जिजीविषा के लिए
प्रतिदिन, यूं ही
सफ़र पर निकलती है जिन्दगी।
आज के निकले कब लौटेंगे,
यूं ही एकाकीपन का एहसास
देती रहती है जिन्दगी।
मृगमरीचिका है जल,
सूने घट पूछते हैं
कब बदलेगी जिन्दगी।
सुना है शहरों में, बड़े-बडे़ भवनों में
ताल-तलैया हैं,
घर-घर है जल की नदियां।
देखा नहीं कभी, कैसे मान ले मन ,
दादी-नानी की परी-कथाओं-सी
लगती हैं ये बातें।
यहां तो,
रेत के दानों-सी बिखरी-बिखरी
रहती है जिन्दगी।
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कुछ कर्म करो
राधा बोली कृष्ण से, चल श्याम वन में, रासलीला के लिए
कृष्ण हतप्रभ, बोले गीता में दिया था संदेश हर युग के लिए
बहुत अवतार लिए, युद्ध लड़े, उपदेश दिये तुम्हें हे मानव!
कर्म-काण्ड छोड़कर, बस कर्म करो मेरी आराधना के लिए
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अनुभव की थाती
पर्वतों से टकराती, उबड़-खाबड़ राहों पर जब नदी-नीर-धार बहती है
कुछ सहती, कुछ गाती, कहीं गुनगुनाती, तब गंगा-सी निर्मल बन पाती है
अपनेपन की राहों में ,फूल उगें और कांटे न हों, ऐसा कम ही होता है
यूं ही जीवन में कुछ खोकर, कुछ पाकर, अनुभव की थाती बन पाती है।
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ईर्ष्या होती है चाँद से
ईर्ष्या होती है चाँद से
जब देखो
मनचाहा घूमता है
इधर-उधर डोलता
घर-घर झांकता
साथ चाँदनी लिए।
चांँदनी को देखो
निरखती है दूर गगन से
धरा तक आते-आते
बिखर-बिखर जाती है।
हाथ बढ़ाकर
थामना चाहती हूँ
चाँदनी या चाँद को।
दोनों ही चंचल
अपना रूप बदल
इधर-उधर हो जाते हैं
झुरमुट में उलझे
झांक-झांक मुस्काते हैं
मुझको पास बुलाते हैं
और फिर
यहीं-कहीं छिप जाते हैं।
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ये गर्मी और ये उमस
ये गर्मी और ये उमस हर वर्ष यूं ही तपाती है
बिजली देती धोखा तर पसीने में काम करवाती है
फिर नखरे सहो सबके ये या वो क्यों नहीं बनाया
ज़रा आग के आगे खड़े तो हो,नानी याद करवाती है
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बांसुरी अब भावशून्य हो गई
कृष्ण तेरी बांसुरी अब
भावशून्य हो गई।
राधा तेरे नृत्य की गति भी
कहीं खो गई।
छोड़ अब ये रास लीला,
प्रेम मनुहार की बातें।
चक्र उठा,
कंस, दु:शासन,दुर्योधनों की
भीड़ भारी हो गई।
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काश ! ऐसा हो जाये
सोचती हूं,
पर पहले ही बता दूं
कि जो मैं सोचती हूं
वह आपकी दृष्टि में
ठीक नहीं होगा,
किन्तु अपनी सोच को
रोक तो नहीं सकती,
और मेरी सोच पर
आप रोक लगा नहीं सकते,
और आपको बिना बताये
मैं रह भी नहीं सकती।
कितना अच्छा हो
कि संविधान में
नियम बन जाये
कि एक वेशभूषा
एक रंग और एक ही ढंग
जैसे विद्यालयों में बच्चों की
यूनिफ़ार्म।
फिर हाथ सामने जोड़ें
माथा टेकें
अथवा आकाश को पुकारें
कहीं कुछ अलग-सा
महसूस नहीं होगा,
चाहे तुम मुझे धूप से बचाओ
या मैं तुम्हें
वर्षा में भीगने के लिए खींच लूं
कोई गलत अर्थ नहीं निकालेगा,
कोई थोथी भावुकता नहीं परोसेगा
और शायद न ही कोई
आरोप जड़ेगा।
चलो,
आज बाज़ार चलकर
एक-सा पहनावा बनवा लें।
चलोगे क्या ??????
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इशारों में ही बात हो गई
मेरे हाथ आज लगे
जिन्न और चिराग।
पूछा मैंने
क्या करोगे तुम मेरे
सारे काम-काज।
बोले, खोपड़ी तेरी
क्या घूम गई है
जो हमसे करते बात।
ज्ञात हो चुकी हमको
तुम्हारी सारी घात।
बहुत कर चुके रगड़ाई हमारी।
बहुत लगाये ढक्कन।
किन्तु अब हम
बुद्धिमान हो गये।
बोतल बड़ी-बड़ी हो गई,
लेन-देन की बात हो गई,
न रगड़ाई और न ढक्कन।
बस देता जा और लेता जा।
लाता जा और पाता जा।
भर दे बोतल, काम करा ले।
काम करा ले बोतल भर दे।
इशारों में ही बात हो गई
समझ आ गई तो ठीक
नहीं आई तो
जाकर अपना माथा पीट।
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बचपन-बचपन खेलें
हमने फ़ोन बनाया
न बिल आया
न हैंग हुआ।
न पैसे लगे
न टैंग हुआ।
न टूटे-फ़ूटे,
न सिग्नल की चिन्ता
न चार्ज किया।
न लड़ाई
न बहस-बसाई।
जब तक
चाहे बात करो
कोई न रोके
कोई न टोके।
हम भी लें लें
तुम भी ले लो
आओ आओ
बचपन-बचपन खेलें।
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अन्तस में हैं सारी बातें
पन्नों पर लिखी हैं मन की वे सारी गाथाएं
जो दुनिया तो जाने थी पर मन था छुपाए
पर इन फूलों के अन्तस में हैं वे सारी बातें
न कभी हम उन्हें बताएं न वो हमें जताएं