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शायद तुम्हें अच्छा न लगे सुनकर,
किन्तु, आज
तुम्हारे नामों से डरने लगी हूं।
हे विधाता !
कहते हैं, यथानाम तथा गुण।
कितनी देर से
निर्णय नहीं कर पा रही हूं
किस नाम से पुकारूं तुम्हें।
जितने नाम, उतने ही काम।
और मेरे काम के लिए
तुम्हारा कौन-सा नाम
मेरे काम आयेगा,
समझ नहीं पा रही हूं।
तुम सृष्टि के रचयिता,
स्वयंभू,
प्रकृति के नियामक
चतुरानन, पितामह, विधाता,
और न जाने कितने नाम।
और सुना है
तुम्हारे संगी-साथी भी बहुत हैं,
जो तुम्हारे साथ चलाते हैं,
अनगिनत शस्त्र-अस्त्रों से सुसज्जित।
हे विश्व-रचयिता !
क्या भूल गये
जब युग बदलते हैं,
तब विचार भी बदलते हैं,
सत्ता बदलती है,
संरचनाएं बदलती हैं।
तो
हे विश्व रचयिता!
सामयिक परिस्थितियों में
गुण कितने भी धारण कर लो
बस नाम एक कर लो।
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अपने-आपसे करते हैं हम फ़रेब
अपने-आपसे करते हैं
हम फ़रेब
जब झूठ का
पर्दाफ़ाश नहीं करते।
किसी के धोखे को
सहन कर जाते हैं,
जब हँसकर
सह लेते हैं
किसी के अपशब्द।
हमारी सच्चाई
ईमानदारी का
जब कोई अपमान करता है
और हम
मन मसोसकर
रह जाते हैं
कोई प्रतिवाद नहीं करते।
हमारी राहों में
जब कोई कंकड़ बिछाता है
हम
अपनी ही भूल समझकर
चले रहते हैं
रक्त-रंजित।
औरों के फ़रेब पर
तालियाँ पीटते हैं
और अपने नाम पर
शर्मिंदा होते हैं।
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पोखर भैया ताल-तलैया
ताल-तलैया, पोखर भैया,
मैं क्या जानू्ं
क्या होते सरोवर मैया।
बस नाम सुना है
न देखें हमने भैया।
गड्ढे देखे, नाले देखे,
सड़कों पर बहते परनाले देखे,
छप-छपाछप गाड़ी देखी।
सड़कों पर आबादी देखी।
-
जब-जब झड़ी लगे,
डाली-डाली बहके।
कुहुक-कुहुक बोले चिरैया ।
रंग निखरें मन महके।
मस्त समां है,
पर लोगन को लगता डर है भैया।
सड़कों पर होगा
पोखर भैया, ताल-तलैया
हमने बोला मैया,
अब तो हम भी देखेंगे ,
कैसे होते हैं ताल-तलैया,
और सरोवर, पोखर भैया ।
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सरकार यहां पर सोती है
पत्थरों को पूजते हैं, इंसानियत सड़कों पर रोती है।
बस मन्दिर खुलवा दो, मौत सड़कों पर होती है।
मेहनतकश मज़दूरों को देख-देखकर दिल दहला है।
चुप रहना, शोर न करना, सरकार यहां पर सोती है।
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तब विचार अच्छे बनते हैं
बीमारी एक बड़ी है आई
साफ़ सफ़ाई रखना भाई
कूड़ा-करकट न फै़लाना
सुंदर-सुंदर पौधे लाना
बगिया अपनी खूब खिलाना
हाथों को साफ़ है रखना
बार-बार है धोना
मुंह, नाक, आंख न छूना
घर में रहना सुन लो ताई
मुंह को रखना ढककर तुम
हाथों की दूरी है रखनी
दूर से सबसे बात है करनी
प्लास्टिक का उपयोग न करना
घर में बैठकर रोज़ है पढ़ना
जब साफ़-सफ़ाई रखते हैं
तब विचार अच्छे बनते हैं
स्वच्छ अभियान बढ़ायेंगें
देश का नाम चमकाएंगें।
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ज़िन्दगी की लम्बी राहों पर
मुस्कुराने की भी
अपनी एक अदा होती है
ज़िन्दगी बिताने की भी
अपनी एक अदा होती है।
ज़िन्दगी की इन लम्बी राहों पर
चलते चलते
फूलों संग मुस्कुराने की भी
अपनी एक अदा होती है।
बरसात की मार हो या
सूखे की धार
ज़िन्दगी को मनाने की भी
अपनी एक अदा होती है।
ठहर गये अगर
तो चुक जायेंगे
चलते रहने की भी
अपनी एक अदा होती है।
खड़े हैं आपकी प्रतीक्षा में,
चले आओ हमारे साथ,
ज़िन्दगी में संग संग
दूर-दूर तक
चलने की भी
अपनी एक अदा होती है।
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कब छूटेगी यह नाटकबाजी
देह पर पुस्तक-सज्जा से
पढ़ना नहीं आ जाता।
मांग में कलम सजाने से
लिखना नहीं आ जाता।
कपोत उड़ाने भर से
स्वाधीनता के द्वार
उन्मुक्त नहीं हो जाते।
पहले हाथ की बेड़ियां
तो तोड़।
फिर सोच,
कान के झुमके,
माथे की टिकुली,
नाक की नथनी,
और नर्तन मुद्रा के साथ,
इन फूलों के बीच
कितनी सजती हो तुम।
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नारी बेचारी नेह की मारी
बस इतना पूछना है
कि क्या अब तुमसे बन्दूक
भी न सम्हल रही
जो मेरे हाथ दे दी!
कहते हो
नारी बेचारी
अबला, ममता, नेह की मारी
कोमल, प्यारी, बेटी बेचारी
घर-द्वार, चूल्हा-चौखट
सब मेरे काम
और प्रकृति का उपहार
ममत्व !
मेरे दायित्व!!
कभी दुर्गा, कभी सीता कहते
कभी रणचण्डी, कभी लक्ष्मीबाई बताते
कभी जौहर करवाते
अब तो हर जगह
बस औरतों के ही काम गिनवाते
कुछ तो तुम भी कर लो
अब क्या तुमसे यह बन्दूक
भी न चल रही
जो मेरे हाथ थमा दी !!
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है हौंसला बुलन्द
उन राहों पर निकले हैं जिनका आदि न कोई अन्त
न आगे है कोई न पीछे है, दिखता दूर कहीं दिगन्त
देखने में रंगीनियां हैं, सफ़र है, समां सुहाना लगता है
टेढ़ी-मेढ़ी राहें हैं, पथ दुर्गम है, पर है हौंसला बुलन्द
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गुरु शिष्य परम्परा
समय के साथ गुरु और शिष्य दोनों की धारणा बदली है और हम इस बदली हुई धारणा एवं व्यवस्था में ही जी रहे हैं। परन्तु पता नहीं क्यों हमें पिष्ट-पेषण में आनन्द मिलता है। आज के गुरुओं की बुराई, शिष्यों के प्रति अनादर भाव हमारी प्रकृति बन गया है। प्राचीन गुरु शिष्य परम्परा निःसंदेह अति उत्तम थी किन्तु काल परिवर्तन के साथ वर्तमान में वह सम्भव ही नहीं है। जो आज है हम उस पर विचार नहीं करते कि उसे और अच्छा कैसे बनाया जा सकता है, प्राचीनता के निरर्थक मोह में वर्तमान को कोसना हमारी आदत बन चुका है। हमारे प्राचीन साहित्य से अच्छा कुछ नहीं, किन्तु वर्तमान में मिल रही शिक्षा का भी अपना महत्व है उसे हम नकार नहीं सकते। समयानुसार आज के गुरु भी समर्पित हैं और शिष्य भी, भेद तो प्राचीन काल में भी रहा है।
तो चलिए आज से वर्तमान में जीने का , उसे समझने का, उसे और बेहतर बनाने का प्रयास करें और पिछले को स्मरण अवश्य रखें, उसका पूरा सम्मान करें किन्तु वर्तमान के सम्मान के साथ।
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किस शती में जी रहे हैं हम
एक छात्रा के साथ हुई मेरी बातचीत, आपके समक्ष शब्दशः प्रस्तुत
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जैसा कि आप जानते हैं मैं एक विद्यालय में कार्यरत हूं। एक छात्रा 12 वीं का प्रमाणपत्र लेने के लिए आई तो मैंने देखा] उसकी फ़ाईल में पासपोर्ट है। मैंने उत्सुकतावश पूछा, उच्च शिक्षा के लिए कहां जा रही हा,े और कौन से क्षेत्र में।
उसका उत्तर थाः चीन, एम. बी. बी. एस, एम. डी और एक और डिग्री बताई उसने, कि दस वर्ष की शैक्षणिक अवधि है। मैं चकित।
चीन? क्यों कोई और देश नहीं मिला, क्योंकि इससे पूर्व मैं नहीं जानती थी कि उच्च शिक्षा के लिए हमारे देश के विद्यार्थी चीन को भी चुन रहे हैं।
चीन ही क्यों? उसका सरल सा उत्तर था कि वहां पढ़ाई बहुत सस्ती है, विश्व के प्रत्येक देश से सस्ती। मात्र तीस लाख में पूरा कोर्स होगा।
मात्र तीस लाख उसने ऐसे कहा जैसे हम बचपन में तीन पैसे फीस दिया करते थे। अच्छा मात्र तीस लाख?
भारत में इसकी फीस कितनी है ?
उसने अर्द्धसरकारी एवं निजी संस्थानों की जो फीस बताई वह सुनकर अभी भी मेरी नींद उड़ी हुई है। उसका कथन था कि पंजाब में साधारण से मैडिकल कालेज की फीस भी लगभग डेढ़ करोड़ तक चली जाती है। मुझे लगा मैं ही अभी अट्ठाहरवीं शताब्दी की प्राणी हूं।
वह स्वयं भी कही आहत थी। उसने आगे जानकारी दी।
दो बहनें। एक का विवाह पिछले ही वर्ष हुआ जो कि आई टी सी में कार्यरत थी, किन्तु ससुराल वालों के कहने पर विवाह-पूर्व ही नौकरी छोड़ दी। किन्तु यह वादा किया कि विवाह के बाद उसी शहर में कोई और नौकरी करना चाहे तो कर लेगी। किन्तु जब उसका बैंक में चयन हो गया तो उसे नौकरी की अनुमति नहीं दी जा रही कि घर में किस बात की कमी है जो नौकरी करनी है। इतना उसके विवाह पर खर्च हुआ फिर भी खुश नहीं हैं।
कितना ?
60 लाख।
तो तुम्हारी शादी के लिए भी है?
हां है।
और तुम डाक्टर बन कर लौटी और तुम्हें भी काम नहीं करने दिया गया तो?
वह निरूत्तर थी।
मैंने उससे खुलकर एक प्रश्न किया कि जब तुम्हारी जाति में इतना दहेज लिया जाता है, तो बाहर विवाह क्यों नहीं हो सकते।
नहीं परिवार के सम्मान की बात है। जाति से बाहर विवाह नहीं कर सकते। प्रेम&विवाह भी नहीं , समाज में परिवार का मान नहीं रहता। परिवार बहिष्कृत हो जाते हैं।