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हर पुस्तक के
आरम्भ और अन्त में
कुछ पृष्ठ
कोरे चिपका दिये जाते हैं
शायद
पुस्तकों को सहेजने के लिए।
किन्तु हम
बस पन्नों को ही
सहेजते रह जाते हैं
पुस्तकों के भीतर के भाव
कहाँ सहेज पाते हैं।
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काम की कर लें अदला-बदली
धरने पर बैठे हैं हम, रोटी आज बनाओ तुम।
छुट्टी हमको चाहिए, रसोई आज सम्हालो तुम।
झाड़ू, पोचा, बर्तन, कपड़े, सब करना होगा,
हम अखबार पढ़ेंगें, धूप में मटर छीलना तुम।
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फूलों संग महक रही धरा
पत्तों पर भंवरे, कभी तितली बैठी देखो पंख पसारे।
धूप सेंकती, भोजन करती, चिड़िया देखो कैसे पुकारे।
सूखे पत्ते झर जायेंगे, फिर नव किसलय आयेंगें,
फूलों संग महक रही धरा, बरसीं बूंदें कण-कण निखारे।
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जीवन की अनहोनी घटना
मेरे जीवन में ऐसी बहुत-सी घटनाएं घटी हैं जो अनहोनी हैं।
हमारे परिवार पर एक प्रकोप रहा है न जाने क्यों, कि कभी भी परिवार में एक मृत्यु नहीं होती थी, दो होती थीं। एक साथ नहीं किन्तु तेहरवीं से पहले। जैसे जब मेरे पिता का निधन हुआ तब मेरे चाचाजी के बेटे का चैथे दिन निधन हुआ। इसी प्रकार दूर-पार की रिश्तेदारी में किसी न किसी का निधन हो जाता था। वर्षों तक ये सब हमने देखा।
यह परम्परा है कि यदि क्रिया से पूर्व कोई पातक मृत्यु या सूतक जन्म हो जाये तो क्रिया उस दिन से 13 दिन आगे बढ़ जाती है।
अर्थात मेरे पिता की क्रिया और चाचाजी के बेटे की क्रिया जिसे तेरहवीं कहते हैं एक ही दिन पर हुई।
सबसे बड़ा हादसा हमारे परिवार में नर्वदा बहन के निधन के बाद हुआ।
नर्वदा का निधन 26 फ़रवरी को हुआ। उनकी क्रिया अर्थात तेरहवीं 10 मार्च को होनी थी। 9 मार्च को मेरी चाचाजी के घर पोते ने जन्म लिया। अर्थात सूतक हो गया। अब नर्वदा की क्रिया 13 दिन आगे बढ़ गई और शायद 22 मार्च निर्धारित हुई। किन्तु 20 मार्च को मेरी मां का निधन हो गया। अर्थात पातक। अब 3 अप्रैल को दोनों की एक साथ क्रिया सम्पन्न हुई, नर्वदा के निधन के लगभग सवा महीने बाद। वे अत्यन्त खौफ़नाक दिन थे हमारे लिए।
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और कितना सच कहूं
सच कहूं तो
अब सच बोलने का मन नहीं करता।
सच कहूं तो
अब मन किसी काम में नहीं लगता।
सच कहूं तो
अब कुछ भी यहां अच्छा नहीं लगता।
सच कहूं तो
अब कुछ लिखने में मन नहीं लगता।
सच कहूं तो
अब विश्वास लायक कोई नहीं दिखता।
सच कहूं तो
अब रफ्फू सीने का मन नहीं करता।
सच कहूं तो
अब रिश्ते सुलझाने का मन नहीं करता।
सच कहूं तो
अब अपनों से ही बात करने का मन नहीं करता।
सच कहूं तो
अब हंसने या रोने का भी मन नहीं करता।
सच कहूं तो
अब सपनों में जीने का मन नहीं करता।
सच कहूं तो
अब तुमसे भी बात करने का मन नहीं करता।
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विश्व-शांति के लिए
विश्व-शांति के लिए
बनाने पड़ते हैं आयुध
रचनी पड़ती हैं कूटनीतियाँ
धर्म, जाति
और देश के नाम पर
बाँटना पड़ता है,
चिननी पड़ती हैं
संदेह की दीवारें
अपनी सुरक्षा के नाम पर।
युद्धों का
आह्वान करना पड़ता है
देश की रक्षा की
सौगन्ध उठाकर
झोंक दिये जाते हैं
युद्धों में
अनजान, अपरिचित,
किसी एक की लालसा,
महत्वाकांक्षा
ले डूबती है
पूरी मानवता
पूरा इतिहास।
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मन मिलते हैं
जब हाथों से हाथ जुड़ते हैं
जीवन में राग घुलते हैं
रिश्तों की डोर बंधती है
मन से फिर मन मिलते हैं
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जीवन की कहानियां बुलबुलों-सी नहीं होतीं
कहते हैं
जीवन पानी का बुलबुला है।
किन्तु कभी लगा नहीं मुझे,
कि जीवन
कोई छोटी कहानी है,
बुलबुले-सी।
सागर की गहराई से भी
उठते हैं बुलबुले।
और खौलते पानी में भी
बनते हैं बुलबुले।
जीवन में गहराई
और जलन का अनुभव
अद्भुत है,
या तो डूबते हैं,
या जल-भुनकर रह जाते हैं।
जीवन की कहानियां
बुलबुलों-सी नहीं होतीं
बड़े गहरे होते हैं उनके निशान।
वैसे ही जैसे
किसी के पद-चिन्हों पर,
सारी दुनिया
चलना चाहती है।
और किसी के पद-चिन्ह
पानी के बुलबुले से
हवाओं में उड़ जाते हैं,
अनदेखे, अनजाने,
अनपहचाने।
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यादों के पृष्ठ सिलती रही
ज़िन्दगी,
मेरे लिए
यादों के पृष्ठ लिखती रही।
और मैं उन्हें
सबसे छुपाकर,
एक धागे में सिलती रही।
कुछ अनुभव थे,
कुछ उपदेश,
कुछ दिशा-निर्देश,
सालों का हिसाब-बेहिसाब,
कभी पढ़ती,
कभी बिखरती रही।
समय की आंधियों में
लिखावट मिट गई,
पृष्ठ जर्जर हुए,
यादें मिट गईं।
तब कहीं जाकर
मेरी ज़िन्दगी शुरू हुई।
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फहराता है तिरंगा
प्रकृति के प्रांगण में लहराता है तिरंगा
धरा से गगन तक फहराता है तिरंगा
हरीतिमा भी गौरवान्वित है यहां देखो
भारत का मानचित्र सजाता है तिरंगा
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न जाने अब क्या हो
बस शैल्टर में बैठे दो
सोच रहे हैं न जाने क्या हो।
‘गर बस न आई तो क्या हो।
दोनों सोचे दूजा बोले
तो कुछ तो साहस हो।
बारिश शुरु होने को है
‘गर हो गई तो
भीग जायेंगे
कहीं बुखार हो गया तो।
कोरोना का डर लागे है
पास होकर पूछें तो।
घर भी मेरा दूर है
क्या इससे बात करुँ
साथ चलेगा ‘गर जो
बस न आई अगर
कैसे जाउंगी मैं घर को।
यह अनजान आदमी
अगर बोल ले बोल दो।
तो कुछ साहस होगा जो
सांझ ढल रही,
लाॅक डाउन का समय हो गया
अंधेरा घिर रहा
न जाने अब क्या हो।