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किसी ने मुझे कह दिया
दिन
सभी मुट्ठियों से
फ़िसल जायेंगे,
इस डर से
न जाने कब से मैंने
हाथों को समेटना
बन्द कर दिया है
मुट्ठियों को
बांधने से डरने लगी हूँ।
रेखाएँ पढ़ती हूँ
चिन्ह परखती हूँ
अंगुलियों की लम्बाई
जांचती हूँ,
हाथों को
पलट-पलटकर देखती हूँ
पर मुट्ठियाँ बांधने से
डरने लगी हूँ।
इन छोटी -छोटी
दो मुट्ठियों में
कितने समेट लूँगी
जिन्दगी के बेहिसाब पल।
अब डर नहीं लगता
खुली मुट्ठियों में
जीवन को
शुद्ध आचमन-सा
अनुभव करने लगी हूँ,
जीवन जीने लगी हूँ।
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न उदास हो मन
पथ पर कंटक होते है तो फूलों की चादर भी होती है
जीवन में दुख होते हैं तो सुख की आशा भी होती है
घनघोर घटाएं छंट जाती हैं फिर धूप छिटकती है
न उदास हो मन, राहें कठिन-सरल सब होती हैं
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ये चांद है अदाओं का
चांद
यूं ही तो नहीं
चमकता है आसमान में।
उसकी भी अपनी अदाएं हैं।
किसी को तो चांद सी
सूरत दे देता है
और किसी के जीवन में
चांद से दाग
और किसी किसी के लिए तो
कभी चांद निकलता ही नहीं
बस
अमावस्या ही बनी रहती है जीवन भर।
बस एक भ्रम पालकर
जिन्दगी जी लेते हैं
कि चांद है उनकी जिन्दगी में
क्योंकि जब
चांद आसमान में है
तो कुछ तो उनकी
जिन्दगी में भी होगा ही।
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चांद डूबता ही नहीं,
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इसलिए इस भ्रम में
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चौथ का चांद
आ जायेगा जीवन में,
या अमावस्या या पूर्णिमा,
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कच्चे धागों से हैं जीवन के रिश्ते
हर दिन रक्षा बन्धन का-सा हो जीवन में
हर पल सुरक्षा का एहसास हो जीवन में
कच्चे धागों से बंधे हैं जीवन के सब रिश्ते
इन धागों में विश्वास का एहसास हो जीवन में
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जिन्दगी का एक नया गीत
चलो
आज जिन्दगी का
एक नया गीत गुनगुनाएं।
न कोई बात हो
न हो कोई किस्सा
फिर भी अकारण ही मुस्कुराएं
ठहाके लगाएं।
न कोई लय हो न धुन
न करें सरगम की चिन्ता
ताल सब बिखर जायें।
कुछ बेसुरी सी लय लेकर
सारी धुनें बदल कर
कुछ बेसुरे से राग नये बनाएं।
अलंकारों को बेसुध कर
तान को बेसुरा गायें।
न कोई ताल हो न कोई सरगम
मंद्र से तार तक
हर सप्तक की धज्जियां उड़ाएं
तानों को खींच –खींच कर
पुरज़ोर लड़ाएं
तारों की झंकार, ढोलक की थाप
तबले की धमक, घुंघुरूओं की छनक
बेवजह खनकाएं।
मीठे में नमकीन और नमकीन में
कुछ मीठा बनायें।
चाहने वालों को
ढेर सी मिर्ची खिलाएं।
दिन भर सोयें
और रात को सबको जगाएं।
पतंग के बहाने छत पर चढ़ जाएं
इधर-उधर कुछ पेंच लड़ाएं
कभी डोरी खींचे
तो कभी ढिलकाएं।
और, इस आंख का क्या करें
आप ही बताएं।
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तुम मेरी छाया हो
तुम मेरी छाया हो, प्रतिच्छाया हो
पर तुम्हें
अपने कदमों के निशान नहीं दे रहा हूं।
हर छपक-छपाक के साथ
मिट जाते हैं पिछले निशान
और नये बनते हैं
जो आप ही सिमट जाते हैं
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इस छपाछप-छपाछप से देखो तो
बूंदें कैसे मोतियों-सी खिलती हैं।
फिर गगन, हवाओं और सागर के बीच
कहीं छूट जाती हैं,
सतरंगी आभा बिखेरकर
अन्तर्मन को छू जाती हैं।
यह जीवन का आनन्द है।
पर याद रखना
गगन की नीलाभा में
पवन के वेग में
और जल की लहरों पर
कभी कोई छाप नहीं छूटती।
इसके लिए कठोर तपती धरा पर
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अपने कदमों के निशान
जो सदियों-सदियों तक
ध्वनित होते हैं
गगन की उंचाईयों में
पवन के वेग में
और जल की लहरों में।
पर यह भी याद रखना
छपक-छपाक, छपाछप-छपाछप
जीवन का उतना ही हिस्सा है
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बूंदे गिरतीं
बादल आये, वर्षा लाये।
बूंदे गिरतीं,
टप-टप-टप-टप।
बच्चे भागे ,
छप-छप-छप-छप।
मेंढक कूदे ,
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बकरी भागी, कुत्ता भागा।
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जीवन के वे पल
जीवन के वे पल
बड़े
सुखद होते हैं जब
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चलो आज यहां ही सबका अपनापन आजमाकर देखें
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यह जीवन है
कुछ गांठें जीवन-भर
टीस देती हैं
और अन्त में
एक बड़ी गांठ बनकर
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जीवन-भर
गांठों को उकेरते रहें
खोलते
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खुलवाते रहें,
बेहिचक बांटते रहें
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या उनके भीतर
जमा मवाद उकेरते रहें,
तो बड़ी गांठें नहीं लेंगी जीवन
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हमारे भीतर ही बसता है वह
कहां रूपाकार पहचान पाते हैं हम
कहां समझ पाते हैं
उसका नाम,
नहीं पहचानते,
कब आ जाता है सामने
बेनाम।
उपासना करते रह जाते हैं
मन्दिरों की घंटियां
घनघनाते रह जाते हैं
नवाते हैं सिर
करते हैं दण्डवत प्रणाम।
हर दिन
किसी नये रूप को आकार देते हैं
नये-नये नाम देते हैं,
पुकारते हैं
आह्वान करते हैं,
पर नहीं मिलता,
नहीं देता दिखाई।
पर हम ही
समझ नहीं पाये आज तक
कि वह
सुनता है सबकी,
बिना किसी आडम्बर के।
घूमता है हमारे आस-पास
अनेक रूपों में, चेहरों में
अपने-परायों में।
थाम रखा है हाथ
बस हम ही समझ नहीं पाते
कि कहीं
हमारे भीतर ही बसता है वह।