दिन सभी मुट्ठियों से फ़िसल जायेंगे

किसी ने मुझे कह दिया

दिन

सभी मुट्ठियों से

फ़िसल जायेंगे,

इस डर से

न जाने कब से मैंने

हाथों को समेटना

बन्द कर दिया है

मुट्ठियों को

बांधने से डरने लगी हूँ।

रेखाएँ पढ़ती हूँ

चिन्ह परखती हूँ

अंगुलियों की लम्बाई

जांचती हूँ,

हाथों को

पलट-पलटकर देखती हूँ

पर मुट्ठियाँ बांधने से

डरने लगी हूँ।

इन छोटी -छोटी

दो मुट्ठियों में

कितने समेट लूँगी

जिन्दगी के बेहिसाब पल।

अब डर नहीं लगता

खुली मुट्ठियों में

जीवन को

शुद्ध आचमन-सा

अनुभव करने लगी हूँ,

जीवन जीने लगी हूँ।