सुनो कृष्ण

सुनो कृष्ण !

मैं नहीं चाहती

किसी द्रौपदी को

तुम्हें पुकारना पड़े।

मैं नहीं चाहती

किसी युद्ध का तुम्हें

मध्यस्थ बनना पड़े।

नहीं चाहती मैं

किसी ऐसे युद्ध के

साक्षी बनो तुम

जहाँ तुम्हें

शस्त्र त्याग कर

दर्शक बनना पड़े।

नहीं चाहती मैं

तुम युद्ध भी न करो

किन्तु संचालक तुम ही बनो।

मैं नहीं चाहती

तुम ऐसे दूत बनो

जहाँ तुम

पहले से ही जानते हो

कि निर्णय नहीं होगा।

मैं नहीं चाहती

गीता का

वह उपदेश देना पड़े तुम्हें

जिसे इस जगत में

कोई नहीं समझता, सुनता,

पालन करता।

मैं नहीं चाहती

कि तुम इतना गहन ज्ञान दो

और यह दुनिया

फिर भी दूध-दहीं-ग्वाल-बाल

गैया-मैया-लाड़-लड़ैया में उलझी रहे,

राधा का सौन्दर्य

तुम्हारी वंशी, लालन-पालन

और तुम्हारी ठुमक-ठुमैया

के अतिरिक्त उन्हें कुछ स्मरण ही न रहे।

तुम्हारा चक्र, तुम्हारी शंख-ध्वनि

कुछ भी स्मरण न करें,

 

न करें स्मरण

युद्धों का उद्घोष

समझौतों का प्रयास

अपने-पराये की पहचान की समझ,

न समझें तुम्हारी निर्णय-क्षमता

अपराधियों को दण्डित करने की नीति।

झुकने और समझौतों की

क्या सीमा-रेखा होती है

समझ ही न सकें।

मैं नहीं चाहती

कि तुम्हारे नाम के बहाने

उत्सवों-समारोहों में

इतना खो जायें

तुम पर इतना निर्भर हो जायें

कि तनिक-से कष्ट में

तुम्हें पुकारते रहें

कर्म न करें,

प्रयास न करें,

अभ्यास न करें।

तुम्हारे नाम का जाप करते-करते

तुम्हें ही भूल जायें,

बस यही नहीं चाहती मैं

हे कृष्ण !