Share Me
शब्दों के अब अर्थ कहाँ, सब कुछ लगता व्यर्थ यहाँ
कहते कुछ हैं, करते कुछ है, हरपल बदले अर्थ यहाँ
भाव खो गये, नेह नहीं, अपनेपन की बात नहीं अब
किसको मानें, किसे मनायें, इतनी अब सामर्थ्य कहाँ
Share Me
Write a comment
More Articles
भाईयों को भारी पड़ती थी मां।
भाईयों को भारी पड़ती थी मां।
पता नहीं क्यों
भाईयों से डरती थी मां।
मरने पर कौन देगा कंधा
बस यही सोचा करती थी मां।
जीते-जी रोटी दी
या कभी पिलाया पानी
बात होती तो टाल जाती थी मां।
जो कुछ है घर में
चाहे टूटा-फूटा या उखड़ा-बिखरा
सब भाइयों का है,
कहती थी मां।
बेटा-बेटा कहती फ़िरती थी
पर आस बस
बेटियों से ही करती थी मां।
राखी-टीके बोझ लगते थे
लगते थे नौटंकी
क्या रखा है इसमें
कहते थे भाई ।
क्या देगी, क्या लाई
बस यही पूछा करते थे भाई।
पर दुनिया कहती थी
बेचारे होते हैं वे भाई
जिनके सिर पर होता है
अविवाहित बहनों का बोझा
इसी कारण शादी करने
से डरती थी मैं।
मां-बाप की सेवा करना
लड़कियों का भी दायित्व होता है
यह बात समझाते थे भाई
लेकिन घर पर कोई अधिकार नहीं
ये भी बतलाते थे भाईA
एक दूर देश में चला गया
एक रहकर भी तो कहां रहा।
सोचा करती थी मैं अक्सर
क्या ऐसे ही होते हैं भाई।
Share Me
एक संस्मरण आम का अचार
आम का अचार डालना भी
एक पर्व हुआ करता था परिवार में।
आम पर बूर पड़ने से पहले ही
घर भर में चर्चा शुरू हो जाती थी।
इतनी चर्चा, इतनी बात
कि होली दीपावली पर्व भी फीके पड़ जायें।
परिवार में एक शगुन हुआ करता था
आम का अचार।
इस बार कितने किलो डालना है अचार
कितनी तरह का।
कुतरा भी डलेगा, और गुठली वाला भी
कतौंरा किससे लायेंगे
फिर थोड़ी-सी सी चटनी भी बनायेंगे।
तेल अलग से लाना होगा
मसाले मंगवाने हैं, धूप लगवानी है
पिछली बार मर्तबान टूट गया था
नया मंगवाना है।
तनाव में रहती थी मां
गर्मी खत्म होने से पहले
और बरसात शुरू होने से पहले
डालना है अचार।
और हम प्रतीक्षा करते थे
कब आयेंगे घर में अचार के आम।
और जब आम आ जाते थे घर में
सुच्चेपन का कर्फ्यू लग जाता था।
और हम आंख बचाकर
दो एक आम चुरा ही लिया करते थे
और चाहते थे कि दो एक आम
तो पके हुए निकल आयें
और हमारे हवाले कर दिये जायें।
लाल मिर्च और नमक लगाकर
धूप में बैठकर दांतों से गुठलियां रगड़ते
और मां चिल्लाती
“ओ मरी जाणयो दंद टुटी जाणे तुहाड़े”।
और जब नया अचार डल जाता था
तो पूरा घर एक आनन्द की सांस लेता था
और दिनों तक महकता था घर
और जब नया अचार डल जाता था
तब दिनों दिनों तक महकता था घर
उस खुशनुमा एहसास और खुशबू से
और जब नया अचार डल जाता था
मानों कोई किला फ़तह कर लिया जाता था।
और उस रात बड़ी गहरी नींद सोती थी मां।
अब चिन्ता शुरू हो जाती थी
खराब न हो जाये
रोज़ धूप लगवानी है
सीलन से बचाना है
तेल डलवाना है।
फिर पता नहीं किस जादुई कोने से
पिछले साल के अचार का एक मर्तबान
बाहर निकल आता था।
मां खूब हंसती तब
छिपा कर रख छोड़ा था
आने जाने वालों के लिए
तुम तो एक गुठली नहीं छोड़ते।
Share Me
जब टिकट किसी का कटता है
सुनते हैं कोई एक भाग्य-विधाता सबके लेखे लिखता है
अलग-अलग नामों से, धर्मों से सबके दिल में बसता है
फिर न जाने क्यों झगड़े होते, जग में इतने लफड़े होते
रह जाता है सब यहीं, जब टिकट किसी का कटता है
Share Me
रोज़ की ही कहानी है
जब जब कोई घटना घटती है,
हमारी क्रोधाग्नि जगती है।
हमारी कलम
एक नये विषय को पाकर
लिखने के लिए
उतावली होने लगती है।
समाचारों से हम
रचनाएं रचाते हैं।
आंसू शब्द तो सम्मानजनक है,
लिखना चाहिए
टसुए बहाते हैं।
दर्द बिखेरते हैं।
आधी-अधूरी जानकारियों को
राजनीतिज्ञों की तरह
भुनाते हैं।
वे ही चुने शब्द
वे ही मुहावरे
देवी-देवताओं का आख्यान
नारी की महानता का गुणगान।
नारी की बेचारगी,
या फिर
उसकी शक्तियों का आख्यान।
पूछती हूं आप सबसे,
कभी अपने आस-पास देखा है,
एक नज़र,
कितना करते हैं हम नारी का सम्मान।
कितना दिया है उसे खुला आसमान।
उसकी वाणी की धार को तराशते हैं,
उसकी आन-बान-शान को संवारते हैं,
या फिर
ऐसे किस्सों से बाहर निकलने के बाद
कुछ अच्छे उपहासात्मक
चुटकुले लिख डालते हैं।
आपसे क्या कहूं,
मैं भी शायद
यहीं कहीं खड़ी हूं।
Share Me
उनकी यादों में
क्यों हमारे दिन सभी मुट्ठियों से फ़िसल जायेंगे
उनकी यादों में जीयेंगे, उनकी यादों में मर जायेंगे
मरने की बात न करना यारो, जीने की बात करें
दिल के आशियाने में उनकी एक तस्वीर सजायेंगे।
Share Me
प्रतिबन्धित स्मृतियाँ
जब-जब
प्रतिबन्धित स्मृतियों ने
द्वार उन्मुक्त किये हैं
मन हुलस-हुलस जाता है।
कुछ नया, कुछ पुराना
अदल-बदलकर
सामने आ जाता है।
जाने-अनजाने प्रश्न
सर उठाने लगते हैं
शान्त जीवन में
एक उबाल आ जाता है।
जान पाती हूँ
समझ जाती हूँ
सच्चाईयों से
मुँह मोड़कर
ज़िन्दगी नहीं निकलती।
अच्छा-बुरा
खरा-खोटा,
सुन्दर-असुन्दर
सब मेरा ही है
कुछ भोग चुकी
कुछ भोगना है
मुँह चुराने से
पीछा छुड़ाने से
ज़िन्दगी नहीं चलती
कभी-न-कभी
सच सामने आ ही जाता है
इसलिए
प्रतीक्षा करती हूँ
प्रतिबन्धित स्मृतियों का
कब द्वार उन्मुक्त करेंगी
और आ मिलेंगी मुझसे
जीवन को
नये अंदाज़ में
जीने का
सबक देने के लिए।
Share Me
कदम रखना सम्भल कर
इन राहों पर कदम रखना सम्भल कर, फ़िसलन है बहुत
मन को कौन समझाये इधर-उधर तांक-झांक करे है बहुत
इस श्वेताभ नि:स्तब्धता के भीतर जीवन की चंचलता है
छूकर देखना, है तो शीतल, किन्तु जलन देता है बहुत
Share Me
शब्द में अभिव्यक्ति हो
मान देकर प्रतिमान की आशा क्यों करें
दान देकर प्रतिदान की आशा क्यों करें
शब्द में अभिव्यक्ति हो पर भाव भी रहे
विश्वास देकर आभार की आशा क्यों करें
Share Me
ताकता रह जाता है मानव
लहरें उठ रहीं
आकाश को छूने चलीं
बादल झुक रहे
लहरों को दुलारते
धरा को पुकारते।
गगन और धरा पर
जल और अनिल
उलझ पड़े
बदरी रूठ-रूठ उमड़ रही
रंग बदरंग हो रहे
कालिमा घिर रही
बवंडर उठ रहे
ताकता रह जाता है मानव।
Share Me
समय जब कटता नहीं
काम है नहीं कोई
इसलिए इधर की उधर
उधर की इधर
करने में लगे हैं हम आजकल ।
अपना नहीं,
औरों का चरित्र निहारने में
लगे हैं आजकल।
पांव धरा पर टिकते नहीं
आकाश को छूने की चाहत
करने लगे हैं हम आजकल।
समय जब कटता नहीं
हर किसी की बखिया उधेड़ने में
लगे रहते हैं हम आजकल।
और कुछ न हो तो
नई पीढ़ी को कोसने में
लगे हैं हम आजकल।
सुनाई देता नहीं, दिखाई देता नहीं
आवाज़ लड़खड़ाती है,
पर सारी दुनिया को
राह दिखाने में लगे हैं हम आजकल।