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बढ़ती आबादी को रोक नहीं पाते
योजनाओं पर अरबों खर्च कर जाते
शिक्षा और जानकारियों की है कमी
बैठे-बैठे बस करते रहते हैं हम बातें
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मधुर-मधुर पल
प्रकृति अपने मन से
एक मुस्कान देती है।
कुछ रंग,
कुछ आकार देती है।
प्यार की आहट
और अपनेपन की छांव देती है।
कलियां
नवजीवन की आहट देती हैं।
खिलते हैं फूल
जीवन का आसार देती हैं।
जब गिरती हैं पत्तियां
रक्तवर्ण
मन में एक चाहत का भास देती हैं।
समेट लेती हूं मुट्ठी में
मधुर-मधुर पलों का आभास देती हैं।
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कामधेनु कुर्सी बनी
समुद्र मंथन से मिली सुरभि, मनोकामनाएं पूरी थी करती,
राजाओं, ऋषियों की स्पर्धा बनी, मान दिलाया थी करती,
गायों को अब कौन पूछता, अब कुर्सी की बात करो यारो,
कामधेनु कुर्सी बनी, इसके चैपायों की पूजा दुनिया करती।
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कहते हैं जब जागो तभी सवेरा
कहते हैं जब जागो तभी सवेरा, पर ऐसा कहां हो पाता है
आधे टूटे-छूटे सपनों से जीवन-भर न पीछा छूट पाता है
रात और दिन के अंधेरे-उजियारे में उलझा रहता है मन
सपनों की गठरी रिसती है यह मन कभी समझ न पाता
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वृक्षों के लिए जगह नहीं
अट्टालिकाओं की दीवारों से
लटकती है
मंहगी हरियाली।
घरों के भीतर
बैठै हैं बोनसाई।
वन-कानन
कहीं दूर खिसक गये हैं।
शहरों की मज़बूती
वृक्षों के लिए जगह नहीं दे पाती।
नदियां उफ़नने लगी हैं।
पहाड़ दरकने लगे हैं।
हरियाली की आस में
बैठा है हाथ में पौध लिए
आम आदमी,
कहां रोपूं इसे
कि अगली पीढ़ी को
ताज़ी हवा,
सुहाना परिवेश दे सकूं।
.
मैंने कहा
डर मत,
हवाओं की मशीनें आ गई हैं
लगवा लेगी अगली पीढ़ी।
तू बस अपना सोच।
यही आज की सच्चाई है
कोई माने या न माने
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सागर की गहराईयों सा मन
सागर की गहराईयों सा मन।
सागर के सीने में
अनगिन मणि-रत्नम्
कौन ढूंढ पाया है आज तलक।
.
मन में रहते भाव-संगम
उलझे-उलझे, बिखरे-बिखरे,
कौन समझ पाया है
आज तलक।
.
लहरें आती हैं जाती हैं,
हिचकोले लेती नाव।
जग-जगत् में
मन भागम-भाग किया करता है,
कहां मिलता आराम।
.
खुले नयनों पर वश है अपना,
देखें या न देखें।
पर बन्द नयन
न जाने क्या-क्या दिखला जाते हैं,
अनजाने-अनचाहे भाव सुना जाते हैं,
जिनसे बचना चाहें,
वे सब रूप दिखा जाते हैं।
अगला-पिछला, अच्छा-बुरा
सब हाल बता जाते हैं,
अनचाहे मोड़ों पर खड़ा कर
कभी हंसी देकर,
तो कभी रूलाकर चले जाते हैं।
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बुरा लगा शायद आपको
यह कहना
आजकल एक फ़ैशन-सा हो गया है,
कि इंसान विश्वास के लायक नहीं रहा।
.
लेकिन इतना बुरा भी नहीं है इंसान,
वास्तव में,
हम परखने-समझने का
प्रयास ही नहीं करते।
तो कैसे जानेंगे
कि सामने वाला
इंसान है या कुत्ता।
.
बुरा लगा शायद आपको
कि मैं इंसान की
तुलना कुत्ते से कर बैठी।
लेकिन जब सब कहते हैं,
कुत्ता बड़ा वफ़ादार होता है,
इंसान से ज्यादा भरोसेमंद होता है,
तब आपको क्यों बुरा नहीं लगता।
.
आदमी की
अक्सर यह विशेषता है
कह देता है मुंह खोल कर
अच्छा लगे या बुरा।
.
कुत्ता कितना भी पालतू हो,
काटने का डर तो रहता ही है
उससे भी।
और कुत्ता जब-तब
भौंकता रहता है,
हम बुरा नहीं मानते ज़रा भी,
-
इंसान की बोली
अक्सर बहुत कड़वी लगती है,
जब वह
हमारे मन की नहीं बोलता।
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सच्चाई से भाग रहे
मुख देखें बात करें।
सुख देखें बात करें।
सच्चाई से भाग रहे,
धन देखें बात करें।
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बालपन-सा था कभी
बालपन-सा था कभी निर्दोष मन
अब देखो साधता है हर दोष मन
कहां खो गई वो सादगी वो भोलापन
ढू्ंढता है दूसरों में हर खोट मन
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खेल फिर शुरू हो जाता है
कभी कभी, समझ नहीं पाती हूं
कि मैं
आतंकित होकर चिल्लती हूं
या आतंक पैदा करने के लिए।
तुमसे डरकर चिल्लती हूं
या तुम्हें डराने के लिए।
लेकिन इतना जानती हूं
कि मेरे भीतर एक डर है
एक औरत होने का डर।
और यह डर
तुम सबने पैदा किया है
तुम्हारा प्यार, तुम्हारी मनुहार
पराया सा अपनापन
और तुम्हारी फ़टकार
फिर मौके बे मौके
उपेक्षा दर्शाता तुम्हारा तिरस्कार
निरन्तर मुझे डराते रहते हैं।
और तुम , अपने अलग अलग रूपों में
विवश करते रहते हो मुझे
चिल्लाते रहने के लिए।
फिर एक समय आता है
कि थककर मेरी चिल्लाहट
रूदन में बदल जाती है।
और तुम मुझे
पुचकारने लगते हो।
*******
खेल, फिर शुरू हो जाता है।
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मेरी वीणा के तारों में ऐसी झंकार
काल की रेखाओं में
सुप्त होकर रह गये थे
मेरे मन के भाव।
दूरियों ने
मन रिक्त कर दिया था
सिक्त कर दिया था
आहत भावनाओं ने।
बसन्त की गुलाबी हवाएँ
उन्मादित नहीं करतीं थीं
न सावन की घटाएँ
पुकारती थीं
न सुनाती थीं प्रेम कथाएँ।
कोई भाव
नहीं आता था मन में
मधुर-मधुर रिमझिम से।
अपने एकान्त में
नहीं सुनना चाहती थी मैं
कोई भी पुकार।
.
किन्तु अनायास
मन में कुछ राग बजे
आँखों में झिलमिल भाव खिले
हुई अंगुलियों में सरसराहट
हृदय प्रकम्पित हुआ,
सुर-साज सजे।
तो क्या
वह लौट आया मेरे जीवन में
जिसे भूल चुकी थी मैं
और कौन देता
मेरी वीणा के तारों में
ऐसी झंकार।