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इन पत्तों में रंग-बिरंगी दिखती है ज़िन्दगी
इन पत्तों-सी उड़ती-फिरती है ये जिन्दगी
कब झड़े, कब उड़े, हुए रंगहीन, क्या जानें
इन पत्तों-सी धरा पर उतार लाती है जिन्दगी।
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कुहुक-कुहुक करती
चीं चीं चीं चीं करती दिन भर, चुपकर दाना पानी लाई हूं, ले खा
निकलेंगे तेरे भी पंख सुनहरे लम्बी कलगी, चल अब खोखर में जा
उड़ना सिखलाउंगी, झूमेंगे फिर डाली-डाली, नीड़ नया बनायेंगे
कुहुक-कुहुक करती, फुदक-फुदक घूमेगी, अब मेरी जान न खा
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कोयल और कौए दोनों की वाणी मीठी होती है
बड़ी मौसमी,
बड़ी मूडी होती है कोयल।
अपनी कूक सुनाने के लिए
एक मौसम की प्रतीक्षा में
छिपकर बैठी रहती है।
पत्तों के झुरमुट में,
डालियों के बीच।
दूर से आवाज़ देती है
आम के मौसम की प्रतीक्षा में,
बैठी रहती है, लालची सी।
कौन से गीत गाती है
मुझे आज तक समझ नहीं आये।
मुझे तो आनन्द देती है
कौए की कां कां भी।
आवाज़ लगाकर,
कितने अपनेपन से,
अधिकार से आ बैठता है
मुंडेर पर।
बिना किसी नाटक के
आराम से बैठकर
जो मिल जाये
खाकर चल देता है।
हर मौसम में
एक-सा भाव रखता है।
बस कुछ धारणाएं
बनाकर बैठ जाते हैं हम,
नहीं तो, बेचारे पंछी
तो सभी मधुर बोलते हैं,
मौसम की आहट तो
हमारे मन की है
फिर वह बसन्त हो
अथवा पतझड़।
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सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी।
हाथ भी जलाती हूं, पैर भी जलाती हूं
दिल भी जलाती हूं, दिमाग भी जलाती हूं
पर तवा गर्म नहीं होता।
सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी।
मां ने कहा, बाप ने कहा,
पति ने कहा, सास ने कहा।
सेंकनी है तुझको ज़िन्दगी की रोटी।
न आग न लपट, न धुंआ न चटक
सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी
मां ने कहा, बाप ने कहा,
पति ने कहा, समाज ने कहा।
सेंकनी है तुझको ज़िन्दगी की रोटी।
हाथ भी बंधे हैं, पैर भी बंधे हैं,
मुंह भी सिला है, कान भी कटे हैं।
सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी।
मां ने कहा, बाप ने कहा,
पति ने कहा, समाज ने कहा।
बोलना मना है, सुनना मना है,
देखना मना है, सोचना मना है,
सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी।
मां ने कहा, बाप ने कहा,
पति ने कहा, सास ने कहा।
भाव भी मिटाती हूं, आस भी लुटाती हूं
सपने भी बुझाती हूं, आब भी गंवाती हूं
सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी
आना मना है, जाना मना है,
रोना मना है, हंसना मना है।
मां ने कहा, बाप ने कहा,
पति ने कहा, सास ने कहा।
सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी।
हाथ भी जलाती हूं, पैर भी जलाती हूं
दिल भी जलाती हूं, दिमाग भी जलाती हूं
पर तवा गर्म नहीं होता।……………
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कभी हमारी रचना पर आया कीजिए
समीक्षा कीजिए, जांच कीजिए, पड़ताल कीजिए।
इसी बहाने कभी-कभार रचना पर आया कीजिए।
बहुत आशाएं तो हम करते नहीं समीक्षकों से,
बहुत खूब, बहुत सुन्दर ही लिख जाया कीजिए।
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ऐसा अक्सर होता है
ऐसा अक्सर होता है जब हम रोते हैं जग हंसता है
ऐसा अक्सर होता है हम हंसते हैं जग ताने कसता है
न हमारी हंसी देख सकते हो न दुख में साथ होते हो
दुनिया की बातों में आकर मन यूँ ही फ़ँसता है।
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दोराहों- चौराहों को सुलझाने बैठी हूं
छोटे-छोटे कदमों से
जब चलना शुरू किया,
राहें उन्मुक्त हुईं।
ज़िन्दगी कभी ठहरी-सी
कभी भागती महसूस हुई।
अनगिन सपने थे,
कुछ अपने थे,
कुछ बस सपने थे।
हर सपना सच्चा लगता था।
हर सपना अच्छा लगता था।
मन की भटकन थी
राहों में अटकन थी।
हर दोराहे पर, हर चौराहे पर,
घूम-घूमकर जाते।
लौट-लौटकर आते।
जीवन में कहीं खो जाते।
समझ में ही थी तकरार
दुविधा रही अपार।
सब पाने की चाहत थी,
पर भटके कदमों की आहट थी।
क्या पाया, क्या खोया,
कभी कुछ समझ न आया।
अब भी दोराहों- चौराहों को
सुलझाने बैठी हूं,
न जाने क्यों ,
अब तक इस में उलझी बैठी हूं।
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ज़िन्दगी कोई गणित नहीं
ज़िन्दगी
जब कभी कोई
प्रश्नचिन्ह लगाती है,
उत्तर शायद पूर्वनिर्धारित होते हैं।
यह बात
हम समझ ही नहीं पाते।
किसी न किसी गणित में उलझे
अपने-आपको महारथी समझते हैं।
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भ्रष्टाचार
जब हम भ्रष्टाचार की बात करते हैं और दूसरे की ओर उंगली उठाते हैं तो चार उंगलियां स्वयंमेव ही अपनी ओर उठती हैं जिन्हें हम स्वयं ही नहीं देखते। यह पुरानी कहावत है।
वास्तव में हम सब भ्रष्टाचारी हैं। बात बस इतनी है कि जिसकी जितनी औकात है उतना वह भ्रष्टाचार कर लेता है। किसी की औकात 100 रू. की है तो किसी की 100 करोड़ की। किन्तु 100 रू वाला स्वयं को ईमानदार कहता है। हम मंहगाई की बात करते हैं किन्तु सुविधाभेागी हो गये हैं। बिना कष्ट उठाये धन से हर कार्य करवा लेना चाहते हैं। हमें दूसरे का भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार लगता है और अपना आवश्यकता, विवशता।
यदि हम अपनी ओर उठने वाली चार उंगलियों के प्रश्न और उत्तर दे सकें तो शायद हम भ्रष्टाचार के विरूद्ध अपना योगदान दे सकते हैं:
पहली उंगली मुझसे पूछती है: क्या मैं विश्वास से कह सकते हूं कि मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं।
दूसरी उंगली कहती है: अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं तो क्या भ्रष्टाचार का विरोध करती हूं ?
तीसरी उंगली कहती है: कि अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं किन्तु भ्रष्टाचार का विरोध नहीं करती तो मैं उनसे भी बड़े भ्रष्टाचारी हूं।
और अंत में चौथी उंगली कहती है: अगर मैं भी भ्रष्टाचारी हूं तो सामने की उंगली को भी अपनी ओर मोड़ लेना चाहिए और मुक्का बनाकर अपने पर वार करना चाहिए। दूसरों को दोष देने और सुधारने से पहले पहला कदम अपने प्रति उठाना होगा।
यदि प्रत्येक नागरिक आत्मनियन्त्रण करे तो भ्रष्टाचार अवश्य ही दूर होगा।
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आज भी वहीं के वहीं हैं हम
कहां छूटा ज़माना पीछे, आज भी वहीं के वहीं हैं हम
न बन्दूक है न तलवार दिहाड़ी पर जा रहे हैं हम
नज़र बदल सकते नहीं किसी की कितनी भी चाहें
ये आत्म रक्षा नहीं जीवन यापन का साधन लिए हैं हम
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इस रंगीन शाम में
इस रंगीन शाम में आओ पकड़म-पकड़ाई खेलें
तुम थामो सूरज, मैं चन्दा, फिर नभ के पार चलें
बदली को हम नाव बनायें, राह दिखाएं देखो पंछी
छोड़ो जग-जीवन की चिंताएं,चल हंस-गाकर जी लें