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झूठी शान जताते लोग
बातें खूब बनाते लोग
खुलती पोल सिर झुकता
तब देखो पछताते लोग
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विरोध से दुनिया नहीं चलती
ज़रा ज़रा सी बात पर अक्सर क्रोध करने लगी हूं मैं
किसी ने ज़रा सी बात कह दी तर्क करने लगी हूं मैं
विरोध से दुनिया नहीं चलती, सब समझाते हैं मुझे
समझाने वालों से भी इधर बहुत लड़ने लगी हूं मैं
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अच्छी नींद लेने के लिए
अच्छी नींद लेने के लिए बस एक सरकारी कुर्सी चाहिए
कुछ चाय-नाश्ता और कमरे में एक ए सी होना चाहिए
फ़ाईलों को बनाईये तकिया, पैर मेज़ पर ज़रा टिकाईये
काम तो होता रहेगा, टालने का तरीका आना चाहिए
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अपने केश संवरवा लेना
बंसी बजाना ठीक था
रास रचाना ठीक था
गैया चराना ठीक था
माखन खाना,
ग्वाल-बाल संग
वन-वन जाना ठीक था।
यशोदा मैया
गूँथती थी केश मेरे
उसको सताना ठीक था।
कुरुक्षेत्र की यादें
अब तक मन को
मथती हैं
बड़े-बड़े महारथियों की
कथाएँ अब तक
मन में सजती हैं।
पर राधे !
अब मुझको यह भी करना होगा!!
अब मुझको
राजनीति छोड़
तुम्हारी लटों में उलझना होगा!!!
न न न, मैं नहीं अब आने वाला
तेरी उलझी लटें
मैं न सुलझाने वाला।
और काम भी करने हैं मुझको
चक्र चलाना, शंख बजाना,
मथुरा, गोकुल, द्वापर, हस्तिनापुर
कुरुक्षेत्र
न जाने कहाँ-कहाँ मुझको है जाना।
मेरे जाने के बाद
न जाने कितने नये-नये युग आये हैं
जिनका उलटा बजता ढोल
मुझे सताये है।
इन सबको भी ज़रा देख-परख लूँ
और समझ लूँ,
कैसे-कैसे इनको है निपटाना।
फिर अपने घर लौटूँगा
थक गया हूँ
अवतार ले-लेकर
अब मुझको अपने असली रूप में है आना
तुम्हें एक लिंक देता हूँ
पार्लर से किसी को बुलवा लेना
अपने केश संवरवा लेना।
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आशाओं की चमक
मन के गलियारों में रोशनी भी है और अंधेरा भी
कुछ आवाज़ें रात की हैं और कुछ दिखाती सवेरा भी
कभी सूरज चमकता है और कभी लगता है ग्रहण
आशाओं की चमक से टूटता है निराशाओं का घेरा भी
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राम से मैंने कहा
राम से मैंने कहा, लौटकर न आना कभी इस धरा पर किसी रूप में।
सीता, लक्ष्मण, सुग्रीव, हनुमान, उर्मिला नहीं मिलेंगें किसी रूप में।
किसने अपकर्म किया, किसे दण्ड मिला, कुछ तो था जो सालता है,
वही पुरानी लीक पीट रहे, सोच-समझ पर भारी धर्मान्धता हर रूप में
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झूठ का ज़माना है
एक अर्थहीन रचना
सजन रे झूठ मत बोलो
कौन बोला, कौन बोला
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सजन रे झूठ मत बोलो
कौन बोला, कौन बोला
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झूठ का ज़माना है
सच को क्यों आजमाना है
इधर की उधर कर
उधर की इधर कर
बस ऐसे ही नाम कमाना है
सच में अड़ंगे हैं
इधर-उधर हो रहे दंगे हैं
झूठ से आवृत्त करो
मन की हरमन करो,
नैनों की है बात यहां
टिम-टिम देखो करते
यहां-वहां अटके
टेढ़े -टेढ़े भटके
किसी से नैन-मटक्के
कहीं देख न ले सजन
बिगड़ा ये ज़माना है
किसे –किसे बताना है
कैसे किसी को समझाना है
छोड़ो ये ढकोसले
क्यों किसी को आजमाना है
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झूठ बोलो, झूठ बोलो
कौन बोला, कौन बोला
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स्त्री की बात
जब कोई यूं ही
स्त्री की बात करता है
मैं समझ नहीं पाती
कि यह राहत की बात है
अथवा चिन्ता की
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दीवारें एक नाम है पूरे जीवन का
दीवारें
एक नाम है
पूरे जीवन का ।
हमारे साथ
जीती हैं पूरा जीवन।
सुख-दुख, अपना-पराया
हंसी-खुशी या आंसू,
सब सहेजती रहती हैं
ये दीवारें।
सब सुनती हैं,
देखती हैं, सहती हैं,
पर कहती नहीं किसी से।
कुछ अर्थहीन रेखाएं
अंगुलियों से उकेरती हूं
इन दीवारों पर।
पर दीवारें
समझती हैं मेरे भाव,
मिट्टी दरकने लगती है।
कभी गीली तो कभी सूखी।
दरकती मिट्टी के साथ
कुछ आकृतियां
रूप लेने लगती हैं।
समझाती हैं मुझे,
सहलाती हैं मेरा सर,
बहते आंसुओं को सोख लेती हैं।
कभी कुछ निशान रह जाते हैं,
लोग समझते हैं,
कोई कलाकृति है मेरी।
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मन तो बहकेगा ही
कभी बादलों के बीच से झांकता है चांद।
न जाने किस आस में
तारे उसके आगे-पीछे घूम रहे,
तब रूप बदलने लगा ये चांद।
कुछ रंगीनियां बरसती हैं गगन से]
धरा का मन शोख हो उठा ।
तिरती पल्लवों पर लाज की बूंदे
झुकते हैं और धरा को चूमते हैं।
धरा शर्माई-सी,
आनन्द में
पक्षियों के कलरव से गूंजता है गगन।
अब मन तो बहकेगा ही
अब आप ही बताईये
क्या करें।
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सच बोलने की आदत है बुरी
सच बोलने की आदत है बुरी।
इसीलिए
सभी लोग रहने लगे हैं किनारे ।
पीठ पर वार करना मुझे भाता नहीं।
चुप रहना मुझे आता नहीं।
भाती नहीं मुझे झूठी मिठास।
मन मसोस कर मैं जीती नहीं।
खरी-खरी कहने से मैं रूकती नहीं।
इसीलिए
सभी लोग रहने लगे हैं किनारे।
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हालात क्या बदले,
वक्त ने क्या चोट दी,
सब लोग रहने लगे हैं किनारे ।
काश !
कोई तो हमारी डूबती कश्ती में
सवार होता संग हमारे।
कहीं तो हम नाव खेते
किसी के सहारे।
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किन्तु हालात यूं बदले
न पता लगा, कब टूटे किनारे।
सब लोग जो बैठे थे किनारे।
डूबते-उतरते वे अब ढूंढने लगे सहारे।
तैर कर निकल आये हम तो किनारे।
उसी कश्ती को थाम ,
अब वे भी ढूंढने में लगे हैं किनारे ।