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झूठी शान जताते लोग
बातें खूब बनाते लोग
खुलती पोल सिर झुकता
तब देखो पछताते लोग
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नेह के बोल
जल लाती हूँ पीकर जाना,
धूप बहुत है सांझ ढले जाना
नेह की छाँव तले बैठो तुम
सब आते होंगे, मिलकर जाना
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अधूरा लगता है जीवन जब सिर पर मां का हाथ नहीं होता
मां का कोई नाम नहीं होता, मां का कोई दाम नहीं होता
मां तो बस मां होती है उसका कोई अलग पता नहीं होता
घर के कण-कण में, सहज-सहज अनदेखी-अनबोली मां
अधूरा लगता है जीवन जब सिर पर मां का हाथ नहीं होता
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ज़िन्दगी आंसुओं के सैलाब में नहीं बीतती
नयनों पर परदे पड़े हैं
आंसुओं पर ताले लगे हैं
मुंह पर मुखौट बंधे हैं।
बोलना मना है,
आंख खोलना मना है,
देखना और बताना मना है।
इसलिए मस्तिष्क में बीज बोकर रख।
दिल में आस जगाकर रख।
आंसुओं को आग में तपाकर रख।
औरों के मुखौटे उतार,
अपनी धार साधकर रख।
ज़िन्दगी आंख मूंदकर,
जिह्वा दबाकर,
आंसुओं के सैलाब में नहीं बीतती,
बस इतना याद रख।
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तल से अतल तक
तल से अतल तक
धरा से गगन तक
विस्तार है मेरा
काल के गाल में
टूटते हैं
बिखरते हैं
अकेलेपन से जूझते हैं
फिर संवरते हैं।
बस
इसी आस में
जीवन संवरते हैं !!!!!
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ये आंखें
मन के भीतर प्रवेश का द्वार हैं ये आंखें
सुहाने सपनों से सजा संसार हैं ये आंखें
होंठ बेताब हैं हर बात कह देने के लिए
शब्द को भाव बनने का आधार हैं ये आंखें
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ऋण नहीं मांगता दान नहीं मांगता
समय बदला, युग बदले,
ज़मीन से आकाश तक,
चांद तारों को परख आया मानव।
और मैं !! आज भी
उसी खेत में
बंजर ज़मीन पर
अपने उन्हीं बूढ़े दो बैलों के साथ
हल जोतता ताकता हूं आकाश
कब बरसेगा मेह मेरे लिए।
तब धान उगेगा
भरपेट भोजन मिलेगा।
ऋण नहीं मांगता। दान नहीं मांगता।
बस चाहता हूं
अपने परिश्रम की दो रोटी।
नहीं मरना चाहता मैं बेमौत।
अगर यूं ही मरा
तब मेरे नाम पर राजनीति होगी।
सुर्खियों में आयेगा मेरा नाम।
फ़ोटो छपेगी।
मेरी गरीबी और मेरी यह मौत
अनेक लोगों की रोज़ी-रोटी बनेगी।
धन बंटेगा, चर्चाएं होंगी
मेरी उस लाश पर
और भी बहुत कुछ होगा।
और इन सबसे दूर
मेरे घर के लोग
इन्हीं दो बैलों के साथ
उसी बंजर ज़मीन पर
मेरी ही तरह
नज़र गढ़ाए बैठे होंगे आकाश पर
कब बरसेगा मेह
और हमें मिलेगी
अपने परिश्रम की दो रोटी
हां ! ये मैं ही हूं।
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कहां समझ पाता है कोई
न आकाश की समझ
न धरा की,
अक्सर नहीं दिखाई देता
किनारा कोई।
हर साल,बार-बार,
जिन्दगी यूं भी तिरती है,
कहां समझ पाता है कोई।
सुना है दुनिया बहुत बड़ी है,
देखते हैं, पानी पर रेंगती
हमारी इस दुनिया को,
कहां मिल पाता है किनारा कोई।
सुना है,
आकाश से निहारते हैं हमें,
अट्टालिकाओं से जांचते हैं
इस जल- प्रलय को।
जब पानी उतर जाता है
तब बताता है कोई।
विमानों में उड़ते
देख लेते हैं गहराई तक
कितने डूबे, कितने तिर रहे,
फिर वहीं से घोषणाएं करते हैं
नहीं मरेगा
भूखा या डूबकर कोई।
पानी में रहकर
तरसते हैं दो घूंट पानी के लिए,
कब तक
हमारा तमाशा बनाएगा हर कोई।
अब न दिखाना किसी घर का सपना,
न फेंकना आकाश से
रोटियों के टुकड़े,
जी रहे हैं, अपने हाल में
आप ही जी लेंगे हम
न दिखाना अब
दया हम पर आप में से कोई।
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कच्चे धागों से हैं जीवन के रिश्ते
हर दिन रक्षा बन्धन का-सा हो जीवन में
हर पल सुरक्षा का एहसास हो जीवन में
कच्चे धागों से बंधे हैं जीवन के सब रिश्ते
इन धागों में विश्वास का एहसास हो जीवन में
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प्रेम, सौहार्द,स्नेह के निर्झर बहाकर देख
किसी दूसरे की व्यथा को अपना बनाकर देख
औरों के लिए सुख का सपना सजाकर तो देख
अपने लिए,अपनों के लिए तो जीते हैं सभी यहां
मैत्री, प्रेम, सौहार्द,स्नेह के निर्झर बहाकर देख
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सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी।
हाथ भी जलाती हूं, पैर भी जलाती हूं
दिल भी जलाती हूं, दिमाग भी जलाती हूं
पर तवा गर्म नहीं होता।
सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी।
मां ने कहा, बाप ने कहा,
पति ने कहा, सास ने कहा।
सेंकनी है तुझको ज़िन्दगी की रोटी।
न आग न लपट, न धुंआ न चटक
सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी
मां ने कहा, बाप ने कहा,
पति ने कहा, समाज ने कहा।
सेंकनी है तुझको ज़िन्दगी की रोटी।
हाथ भी बंधे हैं, पैर भी बंधे हैं,
मुंह भी सिला है, कान भी कटे हैं।
सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी।
मां ने कहा, बाप ने कहा,
पति ने कहा, समाज ने कहा।
बोलना मना है, सुनना मना है,
देखना मना है, सोचना मना है,
सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी।
मां ने कहा, बाप ने कहा,
पति ने कहा, सास ने कहा।
भाव भी मिटाती हूं, आस भी लुटाती हूं
सपने भी बुझाती हूं, आब भी गंवाती हूं
सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी
आना मना है, जाना मना है,
रोना मना है, हंसना मना है।
मां ने कहा, बाप ने कहा,
पति ने कहा, सास ने कहा।
सेंकनी है मुझको ज़िन्दगी की रोटी।
हाथ भी जलाती हूं, पैर भी जलाती हूं
दिल भी जलाती हूं, दिमाग भी जलाती हूं
पर तवा गर्म नहीं होता।……………