नेह की पौध

हृदय में अंकुरित होती है

जब नेह की पौध,

विश्रृंखलित होते हैं मन के भाव ,

लेने लगते हैं आकार।

पुष्पित –पल्‍लवित होती हैं

कुछ भाव लताएं।

द्युतिमान होता है मन का आकाश।

नीलाभ आकाश और धरा,

जीवन आलोकित करते हैं।

मन में एक विश्चास हो

चल आज

इन उमड़ते-घुमड़ते बादलों

में जीवन का

एक मधुर चित्र बनायें।

सूरज की रंगीनियां

बादलों की अठखेलियां

किरणों से बनायें।

दूरियां कितनी भी हों,

जब हाथ में हाथ हो,

मन में एक विश्चास हो,

सहज-सरल-सरस

भाव हों,

बस , हम और आप हों।

 

न छूट रहे लगाव थे

कुछ कहे-अनकहे भाव थे।

कुछ पंख लगे चाव थे।

कुछ शब्दों के साथ थे।

कुछ मिट गये लगाव थे।

कुछ को शब्द मिले थे।

कुछ सूख गये रिसाव थे।

आधी नींद में देखे

कुछ बिखरे-बिखरे ख्वाब थे।

नहीं पलटती अब मैं पन्ने,

नहीं संवारती पृष्ठ।

कहीं धूल जमी,

कहीं स्याही बिखरी।

किसी पुरानी-फ़टी किताब-से,

न छूट रहे लगाव थे।

तलाश

वे और थे

जो मंज़िल की तलाश में

भटका करते थे।

आज तो

 मंज़िल मेरी तलाश में है।

क्योंकि

मंज़िल तक

कोई पहुंचता ही नहीं।

आत्ममूल्यांकन

 

अत्यन्त सरल है

मेरे लिए

तुम्हारे गुण दोष

रूप रंग, चाल ढाल

उठने बैठने, बातचीत करने

और तुम्हारी अन्य सभी

बातों का निरूपण करना।

किन्तु ऐसा तो सभी कर लेते हैं,

तुम कुछ अलग करके देखो।

दर्पण देखना सीखो।

क्या होगा वक्त के उस पार

वक्त के इस पार ज़िन्दगी है,

खुशियां हैं वक्त के इस पार।

दुख-सुख हैं, आंसू, हंसी है,

आवागमन है वक्त के इस पार।

कल किसने देखा है,

कौन जाने क्या होगा,

क्यों सोच में डूबे,

आज को जी लेते हैं,

क्यों डरें,

क्या होगा वक्त के उस पार।

 

ज़िन्दगी कोई गणित नहीं

ज़िन्दगी

जब कभी कोई

प्रश्नचिन्ह लगाती है,

उत्तर शायद पूर्वनिर्धारित होते हैं।

यह बात

हम समझ ही नहीं पाते।

किसी न किसी गणित में उलझे

अपने-आपको महारथी समझते हैं।

 

बांसुरी अब भावशून्य हो गई

कृष्ण तेरी बांसुरी अब

भावशून्य हो गई।

राधा तेरे नृत्य की गति भी

कहीं खो गई।

छोड़ अब ये रास लीला,

प्रेम मनुहार की बातें।

चक्र उठा,

कंस, दु:शासन,दुर्योधनों की

भीड़ भारी हो गई।

क्यों न कहे

आंखें देखती हैं,

कान सुनते हैं,

दिल जलता है,

माथा तपता है,

सब चुपचाप चलता है।

.

किन्तु यह जिह्वा

सह नहीं पाती,

सब कह बैठती है।

 

गगन

गगन

बादलों के आंचल में

चांद को समेटकर

छुपा-छुपाई खेलता रहा।

और हम

घबराये,

बौखलाये-से

ढूंढ रहे।

 

गगन 1

गगन के आंचल में

चांद खेलता।

बिखेरता चांदनी,

जीवन हमारा

दमकता।

 

ओ बादल अब तो बरस ले

तेरे बिना

जीवन की आस नहीं,

तेरे बिना जीव का भास नहीं,

न जाने क्यों

अक्सर रूठ जाया करते हैं।

बुलाने पर भी

नहीं सूरत दिखाया करते हैं।

जानते हो,

मौसम बड़ा बेरहम है,

बस झलक दिखाकर

अक्सर मुंह मोड़कर

चले जाया करते हैं।

न चिन्ता न जताया करते हैं।

 

ओ बादल!

अब तो बरस ले,

हर बार,

ग्रीष्म में यूं ही सताया करते हैं।

कुछ पाने के लिए सर टकराने पड़ते हैं

जीवन में

आगे बढ़ने के लिए

खतरे तो उठाने पड़ते हैं।

लीक से हटकर

चलते-चलते

अक्सर झटके भी

खाने पड़ते हैं।

हिमालय की चोटी छूने में

खतरा भी है,

जोखिम भी,

और शायद संकट भी।

जीवन में कुछ पाने के लिए

तीनों से सर

टकराने पड़ते हैं।

किरचों से नहीं संवरते मन और दर्पण

किरचों से नहीं संवरते मन और दर्पण 

कांच पर रंग लगा देने से

वह दर्पण बन जाता है।

इंसान मुखौटे ओढ़ लेता है,

सज्जन कहलाता हैं।

किरचों से नहीं संवरते

मन और दर्पण,

छोटी-छोटी खुशियां समेट लें,

जीवन संवर जाता है।

लौटाकर खड़ा कर दिया शून्य पर

अभिमान

अपनी सफ़लता पर।

नशा

उपलब्धियों का।

मस्ती से जीते जीवन।

उन्माद

अपने सामने सब हेठे।

घमण्ड ने

एक दिन लौटाकर

खड़ाकर दिया

शून्य पर। 

 

 

चंचल हैं सागर की लहरें

चंचल हैं सागर की लहरें।

कुछ कहना चाहती हैं।

किनारे तक आती हैं,

किन्तु नहीं मिलता किनारा,

लौट जाती हैं,

अपने-आपमें,

कभी बिखर कर,

कभी सिमट कर।

 

 

सागर का मन

पूर्णिमा के चांद को देख

चंचल हो उठता है

सागर का मन,

उत्ताल तरंगें

उमड़ती हैं

उसके मन में,

वैसे ही सीमा-विहीन है

सागर का मन।

ऐसे में

और  बिखर-बिखर जाता है,

कौन समझा है यहां।

 

 

किस बात का हम मान करें

कहते हैं

मिट्टी की यह देह

मिट्टी में मिल जायेगी।

 

मिट्टी चुन-चुन

थाप-थापकर

घट का निर्माण करें।

रंग-रूप में,

चमक-दमक में,

अपनी यूं ही शान करें।

ज़रा-सी धमक,

बिखर कर

फिर मिट्टी के नाम करें।

मिट्टी से बनते हैं,

फिर मिट्टी में मिल जाते हैं।

किस बात का हम मान करें।

ज़िन्दगी की पथरीली राहों में

सुना था

पत्थरों में फूल खिलते हैं,

किन्तु यह लिखते समय

यह क्यों नहीं याद रहता

कि फूलों से ही

फल मिलते हैं।

 

ज़िन्दगी की

पथरीली राहों में,

कांटों से उलझकर,

मिट्टी से सुलझकर,

बस फूल खिलते रहें,

फल ज़रूर मिलेंगें।

आंखें बोलतीं

आंखों से झरे

तुम समझे आंसू

मोती थे खरे

*-*-*-*-

आंखें बोलतीं

कई किस्से खोलतीं

तुम अज्ञानी

*-*-*-

बोलती आंखें

नहीं सुनते तुम

हवा में स्वर

*-*-*-

खुली थीं आंखें

पलक झपकती

दुनिया न्यारी

*-*-*-

बंद आंखों से

सपने देखे कैसे

कौन समझे।

धूप ये अठखेलियां हर रोज़ करती है

पुरानी यादें यूं तो मन उदास करती हैं

पर जब कुछ सुनहरे पल तिरते हैं

मन में नये भाव खिलते हैं

कोहरे में धुंधलाती रोशनियां

चमकने लगती हैं

कुछ बूंदे तिरती हैं

झुके-झुके पल्लवों पर

आकाश में नीलिमा तिरती है

फूल लेने लगते हैं अंगडाईयां

मन में कहीं आस जगती है

धूप ये अठखेलियां हर रोज़ करती है

कितना खोया है मैंने

डायरी लिखते समय
मुझसे
अक्सर 
बीचबीच में
एकाध पन्ना
कोरा छूट जाया करता है
और कभी शब्द टूट जाते हैं
बिखरे से, अधूरे।
पता नहीं
कितना खोया है मैंने
और कितना छुपाना चाहा है
अपनेआप से ही
अनकहाअनलिखा छोड़कर।

जब उसका डमरू बजता है

नज़र दूरियां नापती हैं

हिमशिखर के पार

कहां तक है संसार

राहें

सुगम हों या हों दुर्गम।

 

जगत माया है

मिथ्या है

पता नहीं,

पर

जब

उसका डमरू बजता है

तब, सब

उस जगत के पार ही दिखता है।

मन हुलसा मन बहका

मन हरषा  ।।

फिर भी नयनों से नीर

क्यों है बरसा

मन भीगा, तन भीगा

घटा छाई

बूंद बूंद धरती पर आई

पत्तों पर ठिठकी

कोने में अटकी

अब गिरती, तब गिरती

माणिक सी चमकी

धरती पर धारा बहती

मन हुलसा, मन बहका

सरस सरस सा

मन हरषा  ।।

नई शुरूआत

जो मैं हूं

वैसा सब मुझे जान नहीं पाते

और जैसा सब मुझे जान पाते हैं

वह मैं बन नहीं पाती।

बार बार का यह टकराव

हर बार हताश कर जाता है मुझे

फिर साथ ही उकसा जाता है

एक नई शुरूआत के लिए।।।।।।।।।।।

अकेली हूं मैं

मेरे पास

बहुत सी अधूरी उम्मीदें हैं

और हर उम्मीद

एक पूरा आदमी मांगती है

अपने लिए।

और मेरे पास तो

बहुत सी

अधूरी उम्मीदें हैं

पर अकेली हूं मैं

अपने को

कहां कहां बांटूं ?

अर्थ को अभिव्यक्ति

मौन को शब्द दूं
शब्द को अर्थ 
और  अर्थ को अभिव्यक्ति
जाने राह में

कब कौन समझदार मिल जाये।

निशा पड़ाव पल भर

निशा !

दिन भर के थके कदमों का

पड़ाव पल भर।

रोशनी से शुरू होकर

रोशनी तक का सफ़र।

सूर्य की उष्मा से राहत

पल भर।

चांद की शीतलता का

मधुर हास।

चमकते तारों से बंधी आस।

-अंधेरा छंटेगा।

फिर सुबह होगी।

नई सुबह।

यह सफ़र जारी रहेगा।

मन का ज्वार भाटा

सरित-सागर का ज्वार

आज

मन में क्यों उतर आया है

नीलाभ आकाश

व्यथित हो

धरा पर उतर आया है

चांद लौट जायेगा

अपने पथ पर।

समय के साथ

मन का ज्वार भी

उतर जायेगा।

वर्षा ऋतु पर हाईकू

पानी बरसा

चांद-सितारे डूबे

गगन हंसा

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पानी बरसा

धरती भीगी-भीगी

मिट्टी महकी

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पानी बरसा

अंकुरण हैं फूटे

पुष्प महके

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पानी बरसा

बूंद-बूंद टपकती

मन हरषा

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पानी बरसा

अंधेरा घिर आया

चिड़िया फुर्र

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पानी बरसा

मन है आनन्दित

तुम ठिठुरे