आदतें ठीक नहीं मेरी

जानती हूँ

बहुत-सी आदतें

तो ठीक नहीं मेरी

पर

कोई अफ़सोस नहीं होता मुझे।

दुनिया-भर की

अच्छाईयों का ठेका

मेरा ही तो नहीं।

कुछ तुम ही

बदल जाओ

मेरे लिए।

 

उतर कभी धरा पर

अक्सर मन करता है

पूछूं चांद से

कहीं दूर

गगन में चमकता है

उतर कभी धरा पर

फिर देख कैसे

अंधेरा लीलता है,

भरपूर रोशनी में भी

कैसे अंधेरा बोलता है।

 

नई राहें

नई राहें

तो सरकार बनवाती है।

कभी मरम्मत करवाती है,

कभी गढ्ढे भरवाती है।

कभी पहाड़ कटते हैं,

तो कभी नदियों के

रास्ते बदलते हैं।

-

और हमारी राहें!

-

राहें तो पुरानी होती हैं

बस हमारी चालें

नई होती हैं।

आशाओं के दीप

सुना है

आशाओं के

दीप जलते हैं।

शायद

इसी कारण

बहुत छोटी होती है

आशाओं की आयु।

और

इसी कारण

हम

रोज़-हर-रोज़

नया दीप प्रज्वलित करते हैं

आशाओं के दीप

कभी बुझने नहीं देते।

 

ढोल बजा

चुनावों का अब बिगुल बजा

किसका-किसका ढोल बजा

किसको चुन लें, किसको छोड़ें

हर बार यही कहानी है

कभी ज़्यादा कभी कम पानी है

दिमाग़ की बत्ती गुल पड़ी है

आंखों पर पट्टी बंधी है

बस बातें करके सो जायेंगे

और सुबह फिर वही राग गायेंगे।

 

 

नेह की डोर

कुछ बन्धन

विश्वास के होते हैं

कुछ अपनेपन के

और कुछ एहसासों के।

एक नेह की डोर

बंधी रहती है इनमें

जिसका

ओर-छोर नहीं होता

गांठें भी नहीं होतीं

बस

अदृश्य भावों से जुड़ी

मन में बसीं

बेनाम

बेमिसाल

बेशकीमती।

  

खुशियों के रंग

द्वार पर अल्पना

मानों मन की कोई कल्पना

रंगों में रंग सजाती

मन के द्वार खटखटाती

पाहुन कब आयेगा

द्वार खटखटाएगा।

मन के भीतर

रंगीनियां सजेंगी

घर के भीतर

खुशियां बसेंगीं।

 

अंधेरे का सहारा

ज़्यादा रोशनी की चाहत में

सूरज को

सीधे सीधे

आंख उठाकर मत देखना

आंखें चौंधिया जायेंगी।

अंधेरे का अनुभव होगा।

 

बस ज़रा सहज सहज

अंधेरे का सहारा लेकर

आगे बढ़ना।

भूलना मत

अंधेरे के बाद की

रोशनी तो सहज होती है

पर रोशनी के बाद का

अंधेरा हम सह नहीं पाते

बस इतना ध्यान रखना।

 

सन्दर्भ तो बहुत थे

जीवन में

सन्दर्भ तो बहुत थे

बस उनको भावों से

जोड़ ही नहीं पाये।

कब, कहाँ, कौन-सा

सन्दर्भ छूट गया,

कौन-सा विफ़ल रहा,

समझ ही नहीं पाये।

ऐसा क्यों हुआ

कि प्रेम, मनुहार

अपनापन

विश्वास और आस भी

सन्दर्भ बनते चले गये

और हम जीवन-भर

न जाने कहाँ-कहाँ

उलझते-सुलझते रह गये।

 

मौन पर दो क्षणिकाएं

मौन को शब्द दूं

शब्द को अर्थ

और अर्थ को अभिव्यक्ति

न जाने राहों में

कब, कौन

समझदार मिल जाये।

*-*-*-*

मौन को

मौन ही रखना।

किन्तु

मौन न बने

कभी डर का पर्याय।

चाहे

न तोड़ना मौन को

किन्तु

मौन की अभिव्यक्ति को

सार्थक बनाये रखना।

 

 

दुराशा

जब भी मैंने

चलने की कोशिश की

मुझे

खड़े होने लायक

जगह दे दी गई।

जब मैंने खड़ा होना चाहा

मुझे बिठा दिया गया।

और ज्यों ही मैंने

बैठने का प्रयास किया

मुझे नींद की गोली दे दी गई।

 

चलने से लेकर नींद तक।

लेकिन मुझे फिर लौटना है

नींद से लेकर चलने तक।

जैसे ही

गोली का खुमार टूटता है

मैं

फिर

 चलने की कोशिश

करने लगती हूं।

 

 

ख्वाहिशों की  लकीर

ख्वाहिशों की एक
लम्बी-सी लकीर होती है
ज़िन्दगी में
आप ही खींचते हैं
और आप ही
उस पर दौड़ते-दौड़ते
उसे मिटा बैठते है।

 


 

बहुत किरकिरी होती है

अनुभव की बात कहती हूं
अनधिकार को
कभी मान मत देना
जिस घट में छिद्र हो
उसमें जल संग्रहण नहीं होता
कृत्रिम पुष्पों से
सज्जित रंग-रूप देकर
भले ही कुछ दिन सहेज लें
किन्तु दरारें तो फूटेंगी ही
फिर जो मिट्टी बिखरती है
बहुत किरकिरी होती है

 



 

हम खाली हाथ रह जाते हैं

नदी

अपनी त्वरित गति में

मुहाने पर

अक्सर

छोड़ जाती है

कुछ निशान।

जब तक हम

समझ सकें,

फिर लौटती है

और ले जाती है

अपने साथ

उन चिन्हों को

जो धाराओं से

बिखरे थे

और हम

फिर खाली हाथ

रह जाते हैं

देखते ।

 

बेभाव अपनापन बांटते हैं

किसी को

अपना बना सकें तो क्या बात है।

जब रह रह कर

 मन उदास होता है,

तब बिना वजह

 खिलखिला सकें तो क्या बात है।

चलो आज

उड़ती चिड़िया के पंख गिने,

जो काम कोई न कर सकता

वही आज कर लें

 तो क्या बात है।

किसी की

प्यास बुझा सकें तो क्या बात है।

चलो,

आज बेभाव अपनापन बांटते हैं,

किसी अपने को

 सच में

 अपना बना सकें तो क्या बात है।

 

 

मन कुहुकने लगा है

इधर भीतर का मौसम

करवटें लेने लगा है

बाहर शिशिर है

पर मन बहकने लगा है

चली है बासंती बयार

मन कुहुकने लगा है

तुम्हारी बस याद ही आई

मन महकने लगा है

 

 

 

 

अनजान राही

एक अनजान राही से

एक छोटी-सी

मुस्कान का आदान-प्रदान।

ज़रा-सा रुकना,

झिझकना,

और देखते-देखते

चले जाना।

अनायास ही

दूर हो जाती है

जीवन की उदासी

मिलता है असीम आनन्द।

 

बेटा-बेटी एक समान

बेटी ने पूछा

मां, बेटा-बेटी एक समान!

मां बोली,

हां हां, बेटा-बेटी एक समान!

बेटी बोली,

मां तो अब से कहना

मैं अपने बेटे को

बेटी समान मानती हूं।

 

अंधेरों से जूझता है मन

गगन की आस हो या चांद की,

धरा की नज़दीकियां छूटती नहीं।

मन उड़ता पखेरु-सा,

डालियों पर झूमता,

संजोता ख्वाब कोई।

अंधेरों से जूझता है मन,

संजोता है रोशनियां,

दूरियां कभी सिमटती नहीं,

आस कभी मिटती नहीं।

चांद है या ख्वाब कोई।

रोशनी है आस कोई।

 

किससे क्या कहें हम

लाशों पर शहर नहीं बसते

बाले-बरछियों से घर नहीं बनते

फ़सलों में पानी की ही तरावट चाहिए

रक्त से बीज नहीं पनपते।

कब कौन किसको समझाये यह

हमें तो यह भी नहीं पता

कि कौन शत्रु

और कौन मित्र बनकर लड़ते।

जिनसे आज करते हैं मैत्री समझौता

वे ही कल शत्रु बन बरसते।

अस्त्रों-शस्त्रों से घरों की सजावट नहीं होती

और दूसरों के कंधों पर दुनिया नही चलती।

अपनी-अपनी कोशिश

हमने जब भी

उठकर

खड़े होने की कोशिश की

तुमने हमें

मिट्टी मे मिला देना चाहा।

लेकिन

तुम यह बात भूल गये

कि मिट्टी में मिल जाने पर ही

एक छोटा-सा बीज

विशाल वृक्ष का रूप

धारण कर लेता है।

 

प्रतिष्ठा

उस अधिकार को पाने के लिए

जो तुम्हारा नहीं है;

दूसरे का अधिकार छीनने के लिए

जो तुम्हारे वश में नहीं है

बोलते रहा, बोलते रहो।

बोलत-बोलते

जब ज़बान थक जाये

तो गाली देना शुरु कर दो।

गाली देते-देते

जब हिम्मत चुक जाये

तब हाथापाई पर उतर आओ।

और जब लगे

कि हाथापाई में

सामने वाला भारी पड़ गया है

तो दो कदम पीछे हटकर

हाथ झाड़ लो -

- लो छोड़ दिया मैंने तुम्हें

- आओ, समझौता कर लें

फिर समझौते की शतें

उसके सिर पर लाद दो।

 

जीवन का  अर्थ

मैं अक्सर

बहुत-सी बातें

नहीं समझ पाती हूं।

और यह बात भी

कुछ ऐसी ही है

जिसे मैं नहीं समझ पाती हूं।

बड़े-बड़े

पण्डित-ज्ञानी कह गये

मोह-माया में मत पड़ो,

आसक्ति से दूर रहो,

न करो किसी से अनुराग।

विरक्ति बड़ी उपलब्धि है।

तो

इस जीवन का क्या अर्थ?

 

कोई बतायेगा मुझे !!!

 

हम किसे फूंकें

कहते हैं

दूध का जला

छाछ को  भी

फूंक-फूंक कर पीता है

किन्तु हम तो छाछ के जले हैं

हम किसे फूंकें

बतायेगा कोई

उड़ान चाहतों की

दिल से भरें

उड़ान

चाहतों की

तो पर्वतों को चीर

रंगीनियों में

छू लेगें आकाश।

 

चालें चलते

भेड़ें अब दिखती नहीं

भेड़-चाल रह गई है।

किसके पीछे

किसके आगे

कौन चल रहा

देखने की बात

रह गई है।

भेड़ों के अब रंग बदल गये

ऊन उतर गई

चाल बदल गई

पहचान कहां रह गई है।

किसके भीतर कौन सी चाल

कहां समझ रह गई है।

चालें चलते, बस चालें चलते

समझ-बूझ कहां रह गई है।

 

आया कोरोना

घर में कहां से घुस आया कोरोना

हम जानते नहीं।

दूरियां थीं, द्वार बन्द थे,

 डाक्टर मानते नहीं।

कहां हुई लापरवाही,

 कहां से कौन लाया,

पता नहीं।

एक-एक कर पांचों विकेट गिरे,

अस्पताल के चक्कर काटे,

जूझ रहे,

फिर हुए खड़े,

हार हम मानते नहीं।

प्रकृति मुस्काती है

मधुर शब्द

पहली बरसात की

मीठी फुहारों-से होते हैं

मानों हल्के-फुल्के छींटे,

अंजुरियों में

भरती-झरती बूंदें

चेहरे पर रुकती-बहतीं,

पत्तों को रुक-रुक छूतीं

फूलों पर खेलती,

धरा पर भागती-दौड़ती

यहां-वहां मस्ती से झूमती

प्रकृति मुस्काती है

मन आह्लादित होता है।

 

ले जीवन का आनन्द

सपनों की सीढ़ी तानी

चलें गगन की ओर

लहराती बदरियां

सागर की लहरियां

चंदा की चांदनी

करती उच्छृंखल मन।

लरजती डालियों से

झांकती हैं रोशनियां

कहती हैं

ले जीवन का आनन्द।

 

प्रेम-सम्बन्ध

 

दो क्षणिकाएं

******-******

प्रेम-सम्बन्ध

कदम बहके

चेहरा खिले

यूं ही मुस्काये

होंठों पर चुप्पी

पर आंखें

कहां मानें

सब कह डालें।

*-*

प्रेम-सम्बन्ध

मानों बहता दरिया

शीतल समीर

बहकते फूल

खिलता पराग

ठण्डी छांव

आकाश से

बरसते तुषार।