जब उसका डमरू बजता है
नज़र दूरियां नापती हैं
हिमशिखर के पार
कहां तक है संसार
राहें
सुगम हों या हों दुर्गम।
जगत माया है
मिथ्या है
पता नहीं,
पर
जब
उसका डमरू बजता है
तब, सब
उस जगत के पार ही दिखता है।
मन हुलसा मन बहका
मन हरषा ।।
फिर भी नयनों से नीर
क्यों है बरसा
मन भीगा, तन भीगा
घटा छाई
बूंद बूंद धरती पर आई
पत्तों पर ठिठकी
कोने में अटकी
अब गिरती, तब गिरती
माणिक सी चमकी
धरती पर धारा बहती
मन हुलसा, मन बहका
सरस सरस सा
मन हरषा ।।
नई शुरूआत
जो मैं हूं
वैसा सब मुझे जान नहीं पाते
और जैसा सब मुझे जान पाते हैं
वह मैं बन नहीं पाती।
बार बार का यह टकराव
हर बार हताश कर जाता है मुझे
फिर साथ ही उकसा जाता है
एक नई शुरूआत के लिए।।।।।।।।।।।
अकेली हूं मैं
मेरे पास
बहुत सी अधूरी उम्मीदें हैं
और हर उम्मीद
एक पूरा आदमी मांगती है
अपने लिए।
और मेरे पास तो
बहुत सी
अधूरी उम्मीदें हैं
पर अकेली हूं मैं
अपने को
कहां कहां बांटूं ?
अर्थ को अभिव्यक्ति
मौन को शब्द दूं
शब्द को अर्थ
और अर्थ को अभिव्यक्ति
न जाने राह में
कब कौन समझदार मिल जाये।
निशा पड़ाव पल भर
निशा !
दिन भर के थके कदमों का
पड़ाव पल भर।
रोशनी से शुरू होकर
रोशनी तक का सफ़र।
सूर्य की उष्मा से राहत
पल भर।
चांद की शीतलता का
मधुर हास।
चमकते तारों से बंधी आस।
-अंधेरा छंटेगा।
फिर सुबह होगी।
नई सुबह।
यह सफ़र जारी रहेगा।
मन का ज्वार भाटा
सरित-सागर का ज्वार
आज
मन में क्यों उतर आया है
नीलाभ आकाश
व्यथित हो
धरा पर उतर आया है
चांद लौट जायेगा
अपने पथ पर।
समय के साथ
मन का ज्वार भी
उतर जायेगा।
वर्षा ऋतु पर हाईकू
पानी बरसा
चांद-सितारे डूबे
गगन हंसा
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पानी बरसा
धरती भीगी-भीगी
मिट्टी महकी
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पानी बरसा
अंकुरण हैं फूटे
पुष्प महके
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पानी बरसा
बूंद-बूंद टपकती
मन हरषा
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पानी बरसा
अंधेरा घिर आया
चिड़िया फुर्र
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पानी बरसा
मन है आनन्दित
तुम ठिठुरे
एक फूल झरा
एक फूल झरा।
सबने देखा
रोज़ झरता था एक फूल
देखने के लिए ही
झरता थी फूल।
सबने देखा
और चले गये।
कहां सीख पाये हैं हम
नयनों की एक बूंद
सागर के जल से गहरी होती है
ढूंढोगे तो किन्तु
जलराशि जब अपने तटबन्धों को
तोड़ती है
तब भी विप्लव होता है
और जब भीतर ही भीतर
सिमटती है तब भी।
कहां सीख पाये हैं हम
सीमाओं में रहना।
तल से अतल तक
तल से अतल तक
धरा से गगन तक
विस्तार है मेरा
काल के गाल में
टूटते हैं
बिखरते हैं
अकेलेपन से जूझते हैं
फिर संवरते हैं।
बस
इसी आस में
जीवन संवरते हैं !!!!!
रंगीनियां तो बिखेर कर ही जाता है
सूर्य उदित हो रहा हो
अथवा अस्त,
प्रकाश एवं तिमिर
दोनों को लेकर आता है
और
रंगीनियां तो
बिखेर कर ही जाता है
आगे अपनी-अपनी समझ
कौन किस रूप में लेता है।
नेह-जलधार हो
जीवन में
कुछ पल तो ऐसे हों
जो केवल
मेरे और तुम्हारे हों।
जलधि-सी अटूट
नेह-जलधार हो
रेत-सी उड़ती दूरियों की
दीवार हो।
जीवन में
कुछ पल तो ऐसे हों
जो केवल
मेरे और तुम्हा़रे हों।
बस एक हिम्मत की चाह
जीवन बोझ-सा
समस्याएं नाग-सी
तब चाहिए
तुम्हारा साथ
हाथ पकड़ा है
मैं तुम्हें समस्याओं से बचाउं
तुम मेरे साथ
तो जीवन भी बोझ-सा नहीं
बस एक हिम्मत की चाह
होंगे हम साथ-साथ
चोट दिल पर लगती है
चोट दिल पर लगती है
आंसू आंख से बहते हैं
दर्द जिगर में होता है
बात चेहरा बोलता है
आघात कहीं पर होता है
घाव कहीं पर बनता है
जख्म शब्दों के होते हैं
बदला कलम ले लेती है
दूर रहना ज़रा मुझसे
चोट गहरी हो तो
प्रतिघात घातक होता है।
चिराग जलायें बैठे हैं
घनघोर अंधेरे में
जुगनुओं को जूझते देखा।
गहरे सागर में
दीपक को राह ढूंढते
तिरते देखा।
गहन अंधेरी रातों में
चांद-तारे भी
भटकते देखे मैंने,
रातों की आहट से
सूरज को भी डूबते देखा।
और हमारी
हिम्मत देखो
चिराग जलायें बैठे हैं
चलो, राह दिखाएं तुमको।