मेरे हिस्से का सूरज

कैसे कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज खा भी गये।

यूं देखा जाये

तो रोशनी पर सबका हक़ है।

पर सबके पास

अपने-अपने हक का

सूरज भी तो होता है।

फ़िर, क्यों, कैसे

कुछ लोग

मेरे हिस्से का सूरज खा गये।

बस एक बार

इतना ही समझना चाहती हूं

कि गलती मेरी थी कहीं,

या फिर

लोगों ने मेरे हक का सूरज

मुझसे छीन लिया।

शायद गलती मेरी ही थी।

बिना सोचे-समझे

रोशनियां बांटने निकल पड़ी मैं।

यह जानते हुए भी

कि सबके पास

अपना-अपना सूरज भी है।

बस बात इतनी-सी

कि अपने सूरज की रोशनी पाने के लिए

कुछ मेहनत करनी पड़ती है,

उठाने पड़ते हैं कष्ट,

झेलनी पड़ती हैं समस्याएं।

पर जब यूं ही

कुछ रोशनियां मिल जायें,

तो क्यों अपने सूरज को जलाया जाये।

जब मैं नहीं समझ पाई,

इतनी-सी बात।

तो होना यही था मेरे साथ,

कि कुछ लोग

मेरे हिस्से का सूरज खा गये।