रोज़ पढ़ती  हूं भूल जाती  हूं

जीवन के सिखाये गये पाठ
बार बार दोहराती हूं।

रोज़ याद करती  हूं, पर भूल जाती  हूं ।

पुस्तकें पढ़कर नहीं चलता जीवन,
यह जानकर भी
वही पाठ बार-बार दोहराती हूं ।
सब कहते हैं, पढ़ ले, पढ़ ले,
जीवन में कुछ आगे बढ़ ले ।
पर मेरी बात

कोई क्यों नहीं समझ पाता।
कुछ पन्ने, कुछ हिसाब-बेहिसाब
कभी समझ ही नहीं पाती  हूं,

लिख-लिखकर दोहराती हूं ।

कभी स्याही चुक जाती है ,

कभी कलम छूट जाती है,
अपने को बार-बार समझाती हूं ।

फिर भी,

रोज़ याद करती हूं ,भूल जाती  हूं ।
ज़्यादा गहराईयों से

डर लगता है मुझे
इसलिए कितने ही पन्ने
अधपढ़े छोड़ आगे बढ़ जाती हूं ।
कोई तो समझे मेरी बात ।
कहते हैं,

तकिये के नीचे रख दो किताब,
जिसे याद करना हो बेहिसाब,
पर ऐसा करके भी देख लिया मैंने
सपनों में भी पढ़कर देख लिया मैंने,

बस, इसी तरह जीती चली जाती हूं ।

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रोज़ पढ़ती  हूं भूल जाती  हूं ।