प्रेम की नवीन परिभाषा और कृष्ण

कभी सोचा नहीं मैंने

इस तरह तुम्हारे लिए।

ऐसा तो नहीं कि प्रेम-भाव,

श्रृंगार भाव नहीं मेरे मन में।

किन्तु तुम्हारी प्रेम-कथाओं का

युगों-युगों से

इतना पिष्ट-पेषण हुआ

कि भाव ही निष्ठुर हो गये।

स्त्रियां ही नहीं

पुरुष भी राधे-राधे बनकर

तुम्हारे प्रेम में वियोगी हो गये।

निःसंदेह, सौन्दर्य के रूप हो तुम।

तुम्हारी श्याम आभा,

मोर पंख के साथ

मन मोह ले जाती है।

राधा के साथ

तुम्हारा प्रेम, नेह,

यमुना के नील जल में

गोपियों के संग  रास-लीला,

आह ! मन बहक-बहक जाता है।

 

लेकिन, इस युग में

ढूंढती हूं तुम्हारा वह रूप,

अपने-परायों को

जीना सिखलाता था।

प्रेम की एक नवीन परिभाषा पढ़ाता था।

सत्य-असत्य को परिभाषित करता था,

अपराधी को दण्डित करता था,

करता था न्याय, बेधड़क।

चक्र घूमता था उसका,

उसकी एक अंगुली से परिभाषित

होता था यह जगत।

हर युग में रूप बदलकर

प्रेम की नवीन परिभाषा सिखाते थे तुम।

इस काल में कब आओगे,

आंखें बिछाये बैठे हैं हम।