नये सिरे से

मां कहती थी

किसी जाते हुए को

पीठ पीछे पुकारना अपशगुन होता है।

और यदि कोई तुम्हें पुकार भी ले

तो अनसुना करके चले जाना,

पलटकर मत देखना, उत्तर मत देना।

लेकिन, मैं क्या करूं इन आवाजों का

जो मेरी पीठ पीछे

मुझे निरन्तर पुकारती हैं,

मैं मुड़कर नहीं देखती

अनसुना कर आगे बढ़ जाती हूं।

तब वे आवाजें

मेरे पीछे दौड़ने लगती हैं,

उनके कदमों की धमक

मुझे डराने लगती है।

मैं और तेज दौडने लगती हूं।

तब वे आवाजें

एक शोर का रूप लेकर

मेरे भीतर तक उतर जाती हैं,

मेरे दिल-दिमाग को झिंझोड़ते हुये।

मैं फिर भी नहीं रूकती।

किन्तु इन आवाजों की गति

मुझसे कहीं तेज है।

वे आकर

मेरी पीठ से टकराने लगती हैं,

भीतर तक गहराती हैं

बेधड़क मेरे शरीर में।

सामने आकर राह रोक लेती हैं मेरा।

पूछने लगती हैं मुझसे

वे सारे प्रश्न,

जिन्हें हल न कर पाई मैं जीवन-भर,

इसीलिए नकारती आई थी उन्हें,

छोड़ आई थी कहीं अनुत्तरित।

जीवन के इस मोड़ पर ,

अब क्या करूंगी इनका समाधान,

और क्या उपलब्धि प्राप्त कर लूंगी,

पूछती हूं अपने-आपसे ही।

किन्तु इन आवाजों को

मेरा यह पलायन का स्वर भाता नहीं।

अंधायुग में कृष्ण ने कहा था

“समय अब भी है, अब भी समय है

हर क्षण इतिहास बदलने का क्षण होता है”।

किन्तु

उस महाभारत में तो

कुरूक्षेत्र के रणक्षेत्र में

अट्ठारह अक्षौहिणी सेना थी।

 

और यहां अकेली मैं।

मेरे भीतर ही हैं सब कौरव-पांडव,

सारे चक्र-कुचक्र और चक्रव्यूह,

अट्ठारह दिन का युद्ध,

अकेली ही लड़ रही हूं।

 

तो क्या मुझे

मां की सीख को अनसुना कर,

पीछे मुड़कर

इन आवाजों को,

फिर से,

नये सिरे से भोगना होगा,

अपने जीवन का वह हर पल,

जिससे भाग रही थी मैं

जिन्हें मैंने इतिहास की वस्तु समझकर

अपने जीवन का गुमशुदा हिस्सा मान लिया था।

मां ! तू अब है नहीं

कौन बतायेगा मुझे !!!