Share Me
कैसा दुर्भाग्य है मेरा
कि जब तक
मेरे साथ दो बैल
और ग़रीबी की रेखा न हो
मुझे कोई पहचानता ही नहीं।
जब तक
मैं असहाय, शोषित न दिखूँ
मुझे कोई किसान
मानता ही नहीं।
मेरी
इस हरी-भरी दुनियाँ में
एक सुख भरा संसार भी है
लहलहाती कृषि
और भरा-पूरा
परिवार भी है।
गुरूर नहीं है मुझे
पर गर्व करता हूँ
कि अन्न उपजाता हूँ
ग्रीष्म-शिशिर सब झेलता हूँ,
आशाओं में जीता हूँ
आशाएँ बांटता हूँ।
दुख-सुख तो
आने-जाने हैं।
अरबों-खरबों के बड़े-बड़े महल
अक्सर भरभराकर गिर जाते हैं,
तो कृषि की
असामयिक आपदा के लिए
हम सदैव तैयार रहते हैं,
हमारे लिए
दान-दया की बात कौन करता है
हम नहीं जानते।
अपने बल पर जीते हैं
श्रम ही हमारा धर्म है
बस इतना ही हम मानते।
Share Me
Write a comment
More Articles
कहां जानती है ज़िन्दगी
कदम-दर-कदम
बढ़ती है ज़िन्दगी।
कभी आकाश
तो कभी पाताल
नापती है ज़िन्दगी।
पंछी-सा
उड़ान भरता है कभी मन,
तो कभी
रंगीनियों में खेलता है।
कब उठेंगे बवंडर
और कब फंसेंगे भंवर में,
यह बात कहां जानती है ज़िन्दगी।
यूं तो
साहस बहुत रखते हैं
आकाश छूने का
किन्तु नहीं जानते
कब धरा पर
ला बिठा देगी ज़िन्दगी।
Share Me
क्षमा-मंत्र
कोई मांगने ही नहीं आता
हम तो
क्षमाओं का पिटारा लिए
कब से खड़े हैं।
सबकी ग़लतियां तलाश रहे हैं
भरने के लिए
टोकरा उठाये घूम रहे हैं।
आपको बता दें
हम तो दूध के धुले हैं,
महान हैं, श्रेष्ठ हैं,
सर्वश्रेष्ठ हैं,
और इनके
जितने पर्यायवाची हैं
सब हैं।
और समझिए
कितने दानी , महादानी हैं,
क्षमाओं का पिटारा लिए घूम रहे हैं,
कोई तो ले ले, ले ले, ले ले।
Share Me
बजता था डमरू
कहलाते शिव भोले-भाले थे पर गरल उन्होंने पिया था
विषधर उनके आभूषण थे त्रिशूल हाथ में लिया था
भूत-प्रेत संग नरमुण्डों की माला पहने, बजता था डमरू
त्रिनेत्र खोल तीनों लोकों के दुष्टों का संहार उन्होंने किया था
Share Me
कुछ और नाम न रख लें
समाचार पत्र
कभी मोहल्ले की
रौनक हुआ करते थे।
एक आप लेते थे
एक पड़ोसियों से
मांगकर पढ़ा करते थे।
पूरे घर की
माँग हुआ करते थे।
दिनों-दिन
बातचीत का
आधार हुआ करते थे,
चैपाल और काॅफ़ी हाउस में
काफ़ी से ज़्यादा गर्म
चर्चा का आधार हुआ करते थे।
विश्वास का
नाम हुआ करते थे।
ज्ञान-विज्ञान की
खान हुआ करते थे।
नित नये काॅलम
पूरे परिवार के
मनोरंजन का
आधार हुआ करते थे।
-
मानों
युग बदल गया।
अब
समाचार पत्रों में
सब मिलता है
बस
समाचार नहीं मिलते।
कोई मुद्दे,
कोई भाव नहीं मिलते।
पृष्ठ घटते गये
विज्ञापन बढ़ते गये।
चार पन्नों को
उलट-पुलटकर
पलभर में रख देते हैं।
चित्र बड़े हो रहे हैं
पर कुछ बोलते नहीें।
बस
डराते हैं
धमकाते हैं
और चले जाते हैं।
कहानियाँ रह गईं
सत्य कहीं बिखर गया।
अन्त में लिखा रहता है
अनेक जगह
इन समाचारों/विचारों का
हमारा कोई दायित्व नहीं।
तो फिर
इनका
कुछ और नाम न रख लें।
Share Me
जब जैसी आन पड़े वैसी होती है मां
मां मां ही नहीं होती
पूरा घर होती है मां।
दरवाज़े, खिड़कियां, दीवारें,
चौखट, परछत्ती, परदे, बाग−बगीचे,
बाहर−भीतर सब होती है मां।
चूल्हे की लकड़ी − उपले से लेकर
गैस, माइक्रोवेव और माड्यूल किचन तक होती है मां।
दाल –रोटी, बर्तन –भांडे, कपड़े –लत्ते,
साफ़ सफ़ाई, सब होती है मां।
कैलेण्डर, त्योहार, दिन,तारीख
सब होती है मां।
मीठी चीनी से लेकर नीम की पत्ती, तुलसी,
बर्गर − पिज्जा तक सब होती है मां।
कलम दवात से लेकर
कम्प्यूटर, मोबाईल तक सब होती है मां।
स्कूल की पढ़ाई, कालेज की मस्ती,
जब चाहा जेब खर्च
आंचल मे गलतियों को छुपाती
सब होती है मां।
कभी सोती नहीं, बीमार होती नहीं।
सहज समर्पित,
रिश्तों को बांधती, सहेजती, समेटती,
दुर्गा, काली, चंडी,
सहस्रबाहु, सहस्रवाहिनी,
जब जैसी आन पड़े, वैसी होती है मां।
Share Me
परिवर्तन नित्य है
सन्मार्ग पर चलने के लिए रोशनी की बस एक किरण ही काफ़ी है
इरादे नेक हों, तो, राही दो हों न हों, बढ़ते रहें, इतना ही काफ़ी है
सूर्य अस्त होगा, रात आयेगी, तम भी फैलेगा, संगी साथ छोड़ देंगे,
तब भी राह उन्मुक्त है, परिवर्तन नित्य है, इतना जानना ही काफ़ी है
Share Me
आई आंधी टूटे पल्लव पल भर में सब अनजाने
जीवन बीत गया बुनने में रिश्तों के ताने बाने।
दिल बहला था सबके सब हैं अपने जाने पहचाने।
पलट गए कब सारे पन्ने और मिट गए सारे लेख
आई आंधी, टूटे पल्लव,पल भर में सब अनजाने !!
Share Me
चाय सुबह मिले या शाम को
सुबह की चाय और मीठी नींद की बात ही कुछ और है।
एक से बात कहां बनती है, दो-चार का तो चले दौर है।
ठीक नशे का काम करती है चाय, सुबह मिले या शाम को,
कितनी भी मिल जाये तो भी मन पूछता है, और है? और है?
Share Me
याद है आपको डंडे खाया करते थे
याद है आपको, भूगोल की कक्षा में ग्लोब घुमाया करते थे
शहरों की गलत पहचान करने पर कितने डंडे खाया करते थे
नदी, रेल, सड़क, सूखा, हरियाली के चिह्न याद नहीं होते थे
मास्टर जी के जाते ही ग्लोब को गेंद बनाकर नचाया करते थे
Share Me
यादों के पृष्ठ सिलती रही
ज़िन्दगी,
मेरे लिए
यादों के पृष्ठ लिखती रही।
और मैं उन्हें
सबसे छुपाकर,
एक धागे में सिलती रही।
कुछ अनुभव थे,
कुछ उपदेश,
कुछ दिशा-निर्देश,
सालों का हिसाब-बेहिसाब,
कभी पढ़ती,
कभी बिखरती रही।
समय की आंधियों में
लिखावट मिट गई,
पृष्ठ जर्जर हुए,
यादें मिट गईं।
तब कहीं जाकर
मेरी ज़िन्दगी शुरू हुई।