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कुशल रहें सब, स्वस्थ रहें
कुशल रहें सब, स्वस्थ रहें सब, यही कामना करते हैं
आनी-जानी तो लगी रहेगी, हम यूं ही डरते रहते हैं
कौन है अपना, कौन पराया, कहां जान पाते हैं हम
जो सुख-दुख के हों साथी, वे ही अपने लगने लगते हैं
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इशारों में ही बात हो गई
मेरे हाथ आज लगे
जिन्न और चिराग।
पूछा मैंने
क्या करोगे तुम मेरे
सारे काम-काज।
बोले, खोपड़ी तेरी
क्या घूम गई है
जो हमसे करते बात।
ज्ञात हो चुकी हमको
तुम्हारी सारी घात।
बहुत कर चुके रगड़ाई हमारी।
बहुत लगाये ढक्कन।
किन्तु अब हम
बुद्धिमान हो गये।
बोतल बड़ी-बड़ी हो गई,
लेन-देन की बात हो गई,
न रगड़ाई और न ढक्कन।
बस देता जा और लेता जा।
लाता जा और पाता जा।
भर दे बोतल, काम करा ले।
काम करा ले बोतल भर दे।
इशारों में ही बात हो गई
समझ आ गई तो ठीक
नहीं आई तो
जाकर अपना माथा पीट।
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झूठी-सच्ची ख़बरें बुनते
नाम नहीं, पहचान नहीं, करने दो मुझको काम।
क्यों मेरी फ़ोटो खींच रहे, मिलते हैं कितने दाम।
कहीं की बात कहीं करें और झूठी-सच्ची ख़बरें बुनते
समझो तुम, मिल-जुलकर चलता है घर का काम।
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रंग-बिरंगी दुनिया
रंग-बिरंगी दुनिया, रंगों से मन सजाती हूॅं
पाॅंव आलता लगा मन ही मन मुस्काती हूूॅं
रंग-बिरंगे फूल खिले, मन महक-महक रहा
अनजानी, बहकी-बहकी-सी मदमाती हूॅं।
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युगे-युगे
मां ने कहा मीठे वचन बोलाकर
अमृत होता है इनमें
सुनने वाले को जीवन देते हैं ।
-
पिता ने कहा
चुप रहा कर
ज़माने की धार-से बोलने लगी है अभी से।
वैसे भी
लड़कियों का कम बोलना ही
अच्छा होता है।
-
यह सब लिखते हुए
मैं बताना तो नहीं चाहती थी
अपनी लड़की होने की बात।
क्योंकि यह पता लगते ही
कि बात कहने वाली लड़की है,
सुनने वाले की भंगिमा
बदल जाती है।
-
पर अब जब बात निकल ही गई,
तो बता दूं
लड़की नहीं, शादीशुदा ओैरत हूं मैं।
-
पति ने कहा,
कुछ पढ़ा-लिखाकर,
ज़माने से जुड़।
अखबार,
बस रसोई में बिछाने
और रोटी बांधने के लिए ही नहीं होता,
ज़माने भर की जानकारियां होती हैं इसमें,
कुछ अपना दायरा बढ़ा।
-
मां की गोद में थी
तब मां की सुनती थी।
पिता का शासनकाल था
तब उनका कहना माना।
और अब, जब
पति-परमेश्वर कह रहे हैं
तब उनका कहना सिर-माथे।
मां के दिये, सभी धर्म-ग्रंथ
उठाकर रख दिये मैंने ताक पर,
जिन्हें, मेरे समाज की हर औरत
पढ़ती चली आई है
पतिव्रता,
सती-सीता-सावित्री बनने के लिए।
और सुबह की चाय के साथ
समाचार बीनने लगी।
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माईक्रोवेव के युग में
मेरी रसोई
मिट्टी के तेल के पीपों से भर गई।
मेरा सारा घर
आग की लपटों से घिर गया।
आदिम युग में
किस तरह भूना जाता होगा
मादा ज़िंदा मांस,
मेरी जानकारी बढ़ी।
औरत होने के नाते
मेरी भी हिस्सेदारी थी इस आग में।
किन्तु, कहीं कुछ गलत हो गया।
आग, मेरे भीतर प्रवेश कर गई।
भागने लगी मैं पानी की तलाश में।
एक फावड़ा ओैर एक खाली घड़ा
रख दिया गया मेरे सामने
जा, हिम्मत है तो कुंआं खोद
ओैर पानी ला।
भरे कुंएं तो कूदकर जान देने के लिए होते हैं।
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अविवाहित युवतियां
लड़के मांगती हैं मुझसे।
पैदाकर ऐसे लड़के
जो बिना दहेज के शादी कर लें।
या फिर रोज़-रोज़ की नौटंकी से तंग आकर
आत्महत्या के बारे में
विमर्श करती हैं मेरे घर के पंखों से।
मैं पंखे हटा भी दूं,
तो और भी कई रास्ते हैं विमर्श के।
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मेरे द्वार पर हर समय
खट्-खट् होने लगी है।
घर से निकाल दी गई औरतें
रोती हैं मेरे द्वार पर,
शरण मांगती हैं रात-आधी रात।
टी वी, फ्रिज, स्कूटर,
पैसा मांगती हैं मुझसे।
आदमी की भूख से कैसे निपटें
राह पूछती हैं मुझसे।
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मेरे घर में
औरतें ही औरतें हो गईं हैं।
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बीसियों बलात्कारी औरतों के चेहरे
मेरे घर की दीवारों पर
चिपक गये हैं तहकीकात के लिए।
पुलिसवाले,
कोंच-कोंचकर पूछ रहे हैं
उनसे उनकी कहानी।
फिर करके पूछते हैं,
ऐसे ही हुआ था न।
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निरीह बच्चियां
बार-बार रास्ता भूल जाती हैं
स्कूल का।
ओढ़ने लगती हैं चूनरी।
मां-बाप इत्मीनान की सांस लेते हैं।
-
अस्पतालों में छांटें जाते हैं
लड़के ओैर लड़कियां।
लड़के घर भेज दिये जाते हैं
और लड़कियां
पुनर्जन्म के लिए।
-
अपने ही चाचा-ताउ से
चचेरों-ममेरों से, ससुर-जेठ
यानी जो भी नाते हैं नर से
बचकर रहना चाहिए
कब उसे किससे ‘काम’ पड़े
कौन जाने
फिर पांच वर्ष की बच्ची हो
अथवा अस्सी वर्ष की बुढ़िया
सब काम आ जाती है।
यह मैं क्या कर बैठी !
यूंही सबकी मान बैठती हूं।
कुछ अपने मन का करती।
कुछ गुनती, कुछ बुनती, कुछ गाती।
कुछ सोती, कुछ खाती।
मुझे क्या !
कोई मरे या जिये,
मस्तराम घोल पताशा पीये।
यही सोच मैंने छोड़ दी अखबार,
और इस बार, अपने मन से
उतार लिए,
ताक पर से मां के दिये सभी धर्मग्रंथ।
पर यह कैसे हो गया?
इस बीच,
अखबार की हर खबर
यहां भी छप चुकी थी।
यहां भी तिरस्कृत,
घर से निकाली जा रहीं थीं औरतेंै
अपहरण, चीरहरण की शिकार,
निर्वासित हो रही थीं औरतें।
शिला और देवी बन रहीं थीं औरतें।
अंधी, गूंगी, बहरीं,
यहां भी मर रहीं थीं औरतें।
-
इस बीच
पूछ बैठी मुझसे
मेरी युवा होती बेटी
मां क्या पढूं मैं।
मैं खबरों से बाहर लिकली,
बोली,
किसी का बताया
कुछ मत पढ़ना, कुछ मत करना।
जिन्दगी आप पढ़ायेगी तुझे पाठ।
बनी-बनाई राहों पर मत चलना।
किसी के कदमों का अनुगमन मत करना।
जिन्दगी का पाठ आप तैयार करना।
छोड़कर जाना अपने कदमों के निशान
कि सारा इतिहास, पुराण
और धर्म मिट जाये।
मिट जाये वर्तमान।
और मिट जाये
भविप्य के लिए तैयार की जा रही आचार-संहिता,
जिसमें सती, श्रापित, अपमानित
होती हैं औरतें।
शिला मत बनना।
बनाकर जाना शिलाएं ,
कि युग बदल जाये।
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कहां गई तुम्हारी अम्मां
छोटी-सी छतरी तानी मैंने।
दाना-चुग्गा लाउंगा,
तुमको मैं खिलाउंगा।
मां कहती है,
बारिश में भीगो न,
ठंडी लग जायेगी।
मेरी मां तो
मुझको गुस्सा करती,
कहां गई तुम्हारी अम्मां।
ऐसे कैसे बैठे हो,
अपने घर जाओ,
कम्बल मैं दे जाउंगा।
कल जब धूप खिलेगा
तब आना
साथ-साथ खेलेंगे,
मेरे घर चलना,
मां से मैं मिलवाउंगा।
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सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी
जल सी भीगी-भीगी है ज़िन्दगी
कहीं सरल, कहीं धीमे-धीमे
आगे बढ़ती है ज़िन्दगी।
तरल-तरल भाव सी
बहकती है ज़िन्दगी
राहों में धार-सी बहती है ज़िन्दगी
चलें हिल-मिल
कितनी सुहावनी लगती है ज़िन्दगी
किसी और से क्या लेना
जब आप हैं हमारे साथ ज़िन्दगी
आज भीग ले अन्तर्मन,
कदम-दर-कदम
मिलाकर चलना सिखाती है ज़िन्दगी
राहें सूनी हैं तो क्या,
तुम साथ हो
तब सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी।
आगे बढ़ते रहें
तो आप ही खुलने लगती हैं मंजिलें ज़िन्दगी
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अपनी बत्ती गुल हो जाती है
बड़ा हर्ष होता है जब दफ्तर में बिजली गुल हो जाती है
काम छोड़ कर चाय-पानी की अच्छी दावत हो जाती है
इधर-उधर भटकते, इसकी-उसकी चुगली करते, दिन बीते
काम नहीं, वेतन नहीं, यह सुनकर अपनी बत्ती गुल हो जाती है
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नई शुरूआत
जो मैं हूं
वैसा सब मुझे जान नहीं पाते
और जैसा सब मुझे जान पाते हैं
वह मैं बन नहीं पाती।
बार बार का यह टकराव
हर बार हताश कर जाता है मुझे
फिर साथ ही उकसा जाता है
एक नई शुरूआत के लिए।।।।।।।।।।।
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इन्द्रधनुषी रंग बिखेरे
नीली चादर तान कर अम्बर देर तक सोया पाया गया
चंदा-तारे निर्भीक घूमते रहे,प्रकाश-तम कहीं आया-गया
प्रात हुई, भागे चंदा-तारे,रवि ने आहट की,तब उठ बैठा,
इन्द्रधनुषी रंग बिखेरे, देखो तो, फिर मुस्काता पाया गया