कुछ और नाम न रख लें

समाचार पत्र

कभी मोहल्ले की

रौनक हुआ करते थे।

एक आप लेते थे

एक पड़ोसियों से

मांगकर पढ़ा करते थे।

पूरे घर की

माँग हुआ करते थे।

दिनों-दिन

बातचीत का

आधार हुआ करते थे,

चैपाल और काॅफ़ी हाउस में

काफ़ी से ज़्यादा गर्म

चर्चा का आधार हुआ करते थे।

विश्वास का

नाम हुआ करते थे।

ज्ञान-विज्ञान की

खान हुआ करते थे।

नित नये काॅलम

पूरे परिवार के

मनोरंजन का

आधार हुआ करते थे।

 -

मानों

युग बदल गया।

अब

समाचार पत्रों में

सब मिलता है

बस

समाचार नहीं मिलते।

कोई मुद्दे,

कोई भाव नहीं मिलते।

पृष्ठ घटते गये

विज्ञापन बढ़ते गये।

चार पन्नों को

उलट-पुलटकर

पलभर में रख देते हैं।

चित्र बड़े हो रहे हैं

पर कुछ बोलते नहीें।

बस

डराते हैं

धमकाते हैं

और चले जाते हैं।

कहानियाँ रह गईं

सत्य कहीं बिखर गया।

अन्त में लिखा रहता है

अनेक जगह

इन समाचारों/विचारों का

हमारा कोई दायित्व नहीं।

तो फिर

इनका

कुछ और नाम न रख लें।