शिमला की यादें


 

आज सौ कदम पैदल चलना पड़े तो वह कहते हैं न कि नानी याद आ गई। किन्तु स्मरण करती हूँ बचपन के वे दिन जब हम दिन-भर में 10-12 किलोमीटर तो प्रतिदिन चलते ही थे।

शिमला !

घर से लगभग पाँच किलोमीटर दूर स्कूल। सर्दी हो अथवा गर्मी, बरसात हो अथवा बर्फ़वारी, पूरा बस्ता उठाकर पैदल स्कूल। कोई आवागमन का साधन नहीं, बस पैदल जिसे हम ग्यारह नम्बर बस कहा करते थे। क्या मस्ती भरे दिन थे वे। जेबखर्च पाँच पैसे मिलते थे। और उन पाँच पैसे में पाँच-सात चीज़ें तो खरीद ही लेते थे। स्कूल से लौटते समय सड़क पर पकड़म-पकड़ाई, दौड़, रस्सी सब खेल लेते थे। उन दिनों कोई पीटीएम नहीं होती थी, न गृहकार्य की चिन्ता, न ट्यूशन, न माता-पिता को कोई तनाव कि बच्चे पढ़ रहे हैं अथवा नहीं। सब अपने-आप ही चलता रहता था। सबसे आनन्ददायक होता थी शीत ऋतु। इतने कपड़े पहनते थे कि गिनती ही नहीं हो पाती थी। दो-दो रजाईयाँ लेकर सोना। बर्फ़ में सानन्द घूमते। न बीमार होने की चिन्ता, न भीगने का डर। बर्फ़ खाना, गोले बनाना, बुत बनाना, खूब आनन्द लेते थे। अंगीठियों को घेरकर बैठे सारा दिन मूंगफ़ली खाना। पानी की कमी हो जाती थी, और यदि पानी आता भी था तो नलों में बर्तनों में जम जाता था स्लेट की तरह। कई-कई दिन नहाने की छुट्टी, वे दिन सबसे अच्छे लगते थे। हा हा।

बड़ी याद आती है शिमला तेरी और तेरे साथ बिताये दिनों की।