क्या शिक्षा उपभोक्तावाद का शिकार हो गई है

क्या शिक्षा उपभोक्तावाद की शिकार हो गई है, इस विषय पर बात करने से पूर्व हमें उपभोक्तावाद शब्द को समझना होगा। वास्तव में उपभोक्तावाद का अर्थ वस्तुओं के उपयोग करने वाला जिसे हम consumerism कह सकते हैं। अर्थात शिक्षा के लिए यदि हम उपभोक्तावाद शब्द का प्रयोग करते हैं तो हम स्पष्टतः शिक्षा को एक वस्तु के रूप में प्रयोग करने की बात कर रहे हैं।
दूसरे अर्थ में इस शब्द का अभिप्राय व्यवसाय, पूंजीवाद, व्यावसायीकरण, उद्योगवाद भी लिया जा सकता है।
इस अर्थ में यह बात तार्किक प्रतीत होती है कि शिक्षा उपभोक्तावाद से की शिकार है।
भारत में शिक्षा की एकरूपता नहीं है, कोई नियन्त्रण नहीं है, कोई समानता नहीं है। जिसका मन करता है अपनी इच्छा से विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय खोल लेते हैं, बड़ी-बड़ी शैक्षणिक संस्थाएं खोल लेते हैं, बस धन और बल चाहिए। पाठ्यक्रम में कहीं एकरूपता नहीं है, जो प्रकाशक कमीशन देता है उसकी पुस्तकें पाठ्यक्रम में लगा दी जाती हैं। एन.सी.आर.टी. की पुस्तकें केवल सरकारी विद्यालयों तक सीमित रह गई हैं जहां शिक्षकों को तो असीमित सुविधाएं, वेतन, अवकाश हैं किन्तु विद्यार्थियों के लिए कुछ नहीं। वहीं दूसरी ओर निजी शिक्षण संस्थाएं एक पंचसितारा व सात सितारा होटलों के समान हैं। दूसरी ओर प्राईवेट ट्यूशन।
इसके अतिरिक्त पाठ्यक्रम अर्थहीन होता जा रहा है, व्यवसायिक पाठ्यक्रम न के बराबर हैं और शिक्षा के वर्ष बढ़ते जा रहे हैं। वर्तमान शिक्षा कहीं भी रोज़गारोन्मुख नहीं है।
अर्थात जिसके पास धन है वह यहां खड़ा है शेष या तो बेरोज़गार होकर भटक रहे हैं, राहों से भटक रहे हैं ।
तो कहा जा सकता है कि शिक्षा व्यवसाय, पूंजीवाद, व्यावसायीकरण, उद्योगवाद के रूप में उपभोक्तावाद की शिकार हो गई है।