धागा प्रेम का

रहिमन धागा प्रेम का

कब का गया है टूट।

गांठें मार-मार,

रहें हैं रस्सियाॅं खींच।

रस्सियाॅं भी अब गल गईं

धागा-धागा बिखर रहा।

गांठों को सहेजकर

बंधे नहीं अब मन की डोर।

जाने किस आस में

बैठे हाथों को जोड़।

जो छूट गया

उसे छोड़कर

अब तो आगे बढ़।

प्रेम-प्यार के किस्से

हो गये अब तो झूठ

हीर-रांझा, लैला-मजनूं

को जाओ अब तुम भूल।

रस्सियों का अब गया ज़माना

कसकर हाथ पकड़कर घूम।