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रेखाओं का खेल है प्यारे, कुछ शब्दों में ढल जाते हैं कुछ आकारों में
कुछ चित्रों को कलम बनाती, कुछ को उकेरती तूलिका विचारों में
भावों का संसार विचित्र, स्वयं समझ न पायें, औरों को क्या समझायें
न रूप बने न रंग चढ़े, उलझे-सुलझे रह जाते हैं अपने ही उद्गारों में
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जीवन है मेरा राहें हैं मेरी सपने हैं अपने हैं
साहस है मेरा, इच्छा है मेरी, पर क्यों लोग हस्तक्षेप करने चले आते हैं
जीवन है मेरा, राहें हैं मेरी, पर क्यों लोग “कंधा” देने चले आते हैं
अपने हैं, सपने हैं, कुछ जुड़ते हैं बनते हैं, कुछ मिटते हैं, तुमको क्या
जीती हूं अपनी शर्तों पर, पर पता नहीं क्यों लोग आग लगाने चले आते हैं
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पत्थरों के भीतर भी पिघलती है जिन्दगी
प्यार मनुहार धार-धार से संवरती है जिन्दगी
मन ही क्या पत्थरों के भीतर भी पिघलती है जिन्दगी
यूं तो ठोकरे खा-खाकर भी जीवन संवर जाता है
यही तो भाव हैं कि सिर पर सूरज उगा लेती है जिन्दगी
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पाषाणों में पढ़ने को मिलती हैं
वृक्षों की आड़ से
झांकती हैं कुछ रश्मियां
समझ-बूझकर चलें
तो जीवन का अर्थ
समझाती हैं ये रश्मियां
मन को राहत देती हैं
ये खामोशियां
जीवन के एकान्त को
मुखर करती हैं ये खामोशियां
जीवन के उतार-चढ़ाव को
समझाती हैं ये सीढ़ियां
दुख-सुख के पल आते-जाते हैं
ये समझा जाती हैं ये सीढ़ियां
पाषाणों में
पढ़ने को मिलती हैं
जीवन की अनकही कठोर दुश्वारियां
समझ सकें तो समझ लें
हम ये कहानियां
अपनेपन से बात करती
मन को आश्वस्त करती हैं
ये तन्हाईयां
अपने लिए सोचने का
समय देती हैं ये तन्हाईयां
और जीवन में
आनन्द दे जाती हैं
छू कर जातीं
मौसम की ये पुरवाईयां
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कांटों की बात जीवन भर साथ
रूप, रस, गंध, भाव, एहसास, कांटों में भी होते है
नज़र नज़र की बात है सबको कहां दिखाई देते है
कांटों की चुभन की ही बात क्यों करते हैं सदा हम
संजोकर देखना इन्हें, जीवन भर अक्षुण्ण साथ देते है
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आज़ादी की क्या कीमत
कहां समझे हम आज़ादी की क्या कीमत होती है।
कहां समझे हम बलिदानों की क्या कीमत होती है।
मिली हमें बन्द आंखों में आज़ादी, झोली में पाई हमने
कहां समझे हम राष्ट््भक्ति की क्या कीमत होती है।
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अपने आप को खोजती हूं
अपने आप को खोजती हूं
अपनी ही प्रतिच्छाया में।
यह एकान्त मेरा है
और मैं भी
बस अपनी हूं
कोई नहीं है
मेरे और मेरे स्व के बीच।
यह अगाध जलराशि
मेरे भीतर भी है
जिसकी तरंगे मेरा जीवन हैं
जिसकी हलचल मेरी प्रेरणा है
जिसकी भंवर मेरा संघर्ष है
और मैं हूं और
और है मेरी प्रतिच्छाया
मेरी प्रेरणा
सी मेरी भावनाएं
अपने ही साथ बांटती हूं
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कितने बन्दर झूम रहे हैं
शेर की खाल ओढ़कर शहर में देखो गीदड़ घूम रहे हैं
टूटे ढोल-पोल की ताल पर देखो कितने बन्दर झूम रहे हैं
कौन दहाड़ रहा पता नहीं, और कौन कर रहा हुआं-हुंआ
कौन है असली, कौन है नकली, गली-गली में ढूंढ रहे है।
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अन्तर्मन की आवाजें
अन्तर्मन की आवाजें अब कानों तक पहुंचती नहीं
सन्नाटे को चीरकर आती आवाजें अन्तर्मन को भेदती नहीं
यूं तो पत्ता भी खड़के, तो हम तलवार उठा लिया करते हैं
पर बडे़-बडे़ झंझावातों में उजडे़ चमन की बातें झकझोरती नहीं
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चाहती हूं खोल दूं कपाट सारे
चाहती हूं खोल दूं कपाट सारे
पर स्वतन्त्र नहीं हैं ये कपाट
चिटखनियों, कुण्डों
और कब्ज़ों में जकड़े ये कपाट।
जंग खाया हुआ सब।
पुराना और अर्थहीन।
कहीं से टेढ़े, टूटे, उलझे
ये पुरातात्विक पहरेदार।
चाहती हूं
उखाड़ फेंकूं इन सबको।
बदल देना चाहती हूं
सब पल भर में ।
औज़ार भी जुटाये हैं मैंने।
पर मैं ! विवश !
कपाट को कपाट के रूप में
प्रयोग करने में असमर्थ।
मेरे औज़ार छोटे
पहरेदार बड़े, मंजे हुए।
फिर इन्हें जंग भी पसन्द है
और अपना टेढ़ा टूटापन भी।
मेरे औज़ार इन्हें
विपक्ष का समझौता लगते हैं।
ताज़ी हवा को ये
घुसपैठिया समझते हैं।
और फूलों की गंध से इन्हें
विदेशी हस्तक्षेप की बू आती है।
इनका कहना है
कि कपाट खोल का प्रयास
हमारा षड्यन्त्र है।
पुरातात्विक अवशेषों,
इतिहास और संस्कृति को
नष्ट कर देने का।
पर अद्भुत तो यह
कि ये पुरातात्विक अवशेष
इतिहास और संस्कृति के ये जड़ प्रतीक
बन्द कपाटों के भीतर भी
बढ़ते ही जा रहे हैं दिन प्रति दिन।
ज़मीन के भीतर भी
और ज़मीन के बाहर भी।
वैसे, इतना स्वयं भी नहीं जानते वे
कि यदि उनका जंग घिसा नहीं गया
तेल नहीं दिया गया इनमें
तो स्वयं ही काट डालेगा
इन्हें एक दिन।
और अनजाने में ही
बन्द कपाटों पर
इनकी पकड़ कमज़ोर हो जायेगी।
कपाट खोलने
बहुत ज़रूरी हो गये हैं।
क्योंकि, हम सब
बाहर होकर भी कहीं न कहीं
कपाटों के भीतर जकड़े गये हैं।
अत: मैंने सोच लिया है
कि यदि औज़ार काम नहीं आये
तो मैं दीमक बनकर
कपाटों पर लग जाउंगी।
न सही तत्काल, धीरे धीरे ही सही
कपाट अन्दर ही अन्दर मिट्टी होने लगेंगे।
पहरेदार समझेंगे
उनके हाथ मज़बूत हो रहे हैं।
फिर एक दिन
पहरेदार, खड़े के खड़े रह जायेंगे
और बन्द दरवाज़े, टूटी खिड़कियां
पुरानी दीवारें
सब भरभराकर
गिर जायेंगे
कपाट स्वयंमेव खुल जायेंगे।
फिर रोशनी ही रोशनी
नयापन, ताज़ी हवा और ज़िन्दगी
सब मिलेगा एक दिन
सब बदलेगा एक दिन।
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ज़िन्दगी खुली मुट्ठी है या बन्द
अंगुलियां कभी मुट्ठी बन जाती हैं,
तो कभी हाथ।
कभी खुलते हैं,
कभी बन्द होते हैं।
कुछ रेखाएं इनके भीतर हैं,
तो कुछ बाहर।
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रोज़ रात को
मुट्ठियों को
ठीक से
बन्द करके सोती हूं,
पर प्रात:
प्रतिदिन
खुली ही मिलती हैं।
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देखती हूं,
कुछ रेखाएं नई,
कुछ बदली हुईं,
कुछ मिट गईं।
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फिर दिन भर
अंगुलियां ,
कभी मुट्ठी बन जाती हैं,
तो कभी हाथ।
कभी खुलते हैं,
कभी बन्द होते हैं।
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यही ज़िन्दगी है।