चूड़ियां: रूढ़ि या परम्परा

आज मैंने अपने हाथों की 

सारी चूड़ियों उतार दी हैं

और उतार कर सहेज नहीं ली हैं

तोड़ दी हैं

और  टुकड़े टुकड़े करके

उनका कण-कण

नाली में बहा दिया हैं।

इसे

कोई बचकानी हरकत न समझ लेना।

वास्तव में मैं डर गई थी।

चूड़ियों की खनक से,

उनकी मधुर आवाज़ से,

और उस आवाज़ के प्रति

तुम्हारे आकर्षण से।

और साथ ही चूड़ियों से जुड़े

शताब्दियों से बन रहे

अनेक मुहावरों और कहावतों से।

मैंने सुना है

चूड़ियों वाले हाथ कमज़ोर हुआ करते हैं।

निर्बलता का प्रतीक हैं ये।

और अबला तो मेरा पर्यायवाची

पहले से ही है।

फिर चूड़ी के कलाई में आते ही

सौर्न्दय और प्रदर्शन प्रमुख हो जाता है

और कर्म उपेक्षित।

 

और सबसे बड़ा खतरा यह

कि पता नहीं

कब, कौन, कहां,

परिचित-अपरिचित

अपना या पराया

दोस्त या दुश्मन

दुनिया के किसी

जाने या अनजाने कोने में

मर जाये

और तुम सब मिलकर

मेरी चूड़ियां तोड़ने लगो।

फ़िलहाल

मैंने इस खतरे को टाल दिया है।

जानती हूं

कि तुम जब यह सब जानेगे

तो बड़ा बुरा मानोगे।                       

क्योंकि, बड़ी मधुर लगती है

तुम्हें मेरी चूड़ियों की खनक।

तुम्हारे प्रेम और सौन्दर्य गीतों की

प्रेरणा स्त्रोत हैं ये।

फुलका बेलते समय

चूड़ियों से ध्वनित होते स्वर

तुम्हारे लिए अमर संगीत हैं

और तुम

मोहित हो इस सब पर।

पर मैं यह भी जानती हूं

कि इस सबके पीछे

तुम्हारा वह आदिम पुरूष है

जो स्वयं तो पहुंच जाना चाहता है

चांद के चांद पर।

पर मेरे लिए चाहता है

कि मैं,

रसोईघर में,

चकले बेलने की ताल पर,

तुम्हारे लिए,

संगीत के स्वर सर्जित करती रहूं,

तुम्हारी प्रतीक्षा में,

तुम्हारी प्रशंसा के

दो बोल मात्र सुनने के लिए।

पर मैं तुम्हें बता दूं

कि तुम्हारे भीतर का वह आदिम पुरूष

जीवित है अभी तो हो,

किन्तु,

मेरे भीतर की वह आदिम स्त्री

कब की मर चुकी है।