वास्तविकता और  कल्पना

सच कहा है किसी ने

कलाकार की तूलिका

जब आकार देती है

मन से कुछ भाव देती है

तब मूर्तियाँ बोलती हैं

बात करती हैं।

हमें कभी

कलाकार नहीं बताता

अपने मन की बात

कला स्वयँ बोलती है

कहानी बताती है

बात कहती है।

.

निरखती हूँ

कलाकार की इस

अद्भुत कला को,

सुनना चाहती हूँ

इसके मन की बात

प्रयास करती हूँ

मूर्ति की भावानाओं को

समझने का।

 

 

आपको

कुछ रुष्ट-सी नहीं लगी

मानों कह रही

हे पुरुष !

अब तो मुझे आधुनिक बना

अपने आनन्द के लिए

यूँ न सँवार-सजा

मैं चाहती हूँ

अपने इस रूप को त्यागना।

घड़े हटा, घर में नल लगवा।

वैसे आधुनिकाओं की

वेशभूषा पर

करते रहते हो टीका-टिप्पणियाँ,

मेरी देह पर भी

कुछ अच्छे वस्त्र सजाते

सुन्दर वस्त्र पहनाते।

देह प्रदर्शनीय होती हैं

क्या ऐसी

कामकाजी घरेलू स्त्रियाँ।

गांव की गोरी

क्या ऐसे जाती है

पनघट जल भरन को ?

हे आदमी !

वास्तविकता और अपनी कल्पना में

कुछ तो तालमेल बना।

समझ नहीं पाती

क्यों ऐसी दोगली सोच है तुम्हारी !!