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हृदय में अंकुरित होती है
जब नेह की पौध,
विश्रृंखलित होते हैं मन के भाव ,
लेने लगते हैं आकार।
पुष्पित –पल्लवित होती हैं
कुछ भाव लताएं।
द्युतिमान होता है मन का आकाश।
नीलाभ आकाश और धरा,
जीवन आलोकित करते हैं।
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More Articles
आज मौसम मिला
आज मौसम मिला।
मैंने पूछा
आजकल
ये क्या रंग दिखा रहे हो।
कौन से कैलेण्डर पर
अपना रूप बना रहे हो।
अप्रैल में अक्तूबर,
और मई में
अगस्त के दर्शन
करवा रहे हो।
मौसम
मासूमियत से बोला
आजकल
इंसानों की बस्ती में
ज़्यादा रहने लगा था।
माह और तारीखों पर
ध्यान नहीं लगा था।
उनके मन को पढ़ता था
और वैसे ही मौसम रचने लगा था।
अपने और परायों में
भेद समझने में लगा था।
कौन किसका कब हुआ
यह परखने में लगा था।
कब कैसे पल्टी मारी जाती है,
किसे क्यों
साथ लेकर चलना है
और किसे पटखनी मारी जानी है
बस यही समझने में लगा था।
गर्मी, सर्दी, बरसात
तो आते-जाते रहते हैं
मैं तो तुम्हारे भीतर के
पल-पल बदलते मौसम को
समझने में लगा था।
.
इतनी जल्दी घबरा गये।
तुमसे ही तो सीख रहा हूँ।
पल में तोला,पल में माशा
इधर पंसेरी उधर तमाशा।
अभी तो शुरुआत है प्यारे
आगे-आगे देखिए होता है क्या!!!
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प्रणाम तुम्हें करती हूं
हे भगवान!
इतना उंचा मचान।
सारा तेरा जहान।
कैसी तेरी शान ।
हिमगिरि के शिखर पर
बैठा तू महान।
कहते हैं
तू कण-कण में बसता है।
जहां रहो
वहीं तुझमें मन रमता है।
फिर क्यों
इतने उंचे शिखरों पर
धाम बनाया।
दर्शनों के लिए
धरा से गगन तक
इंसान को दौड़ाया।
ठिठुरता है तन।
कांपता है मन।
हिम गिरता है।
शीत में डरता है।
मन में शिवधाम सृजित करती हूं।
यहीं से प्रणाम तुम्हें करती हूं।
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रंगीनियां तो बिखेर कर ही जाता है
सूर्य उदित हो रहा हो
अथवा अस्त,
प्रकाश एवं तिमिर
दोनों को लेकर आता है
और
रंगीनियां तो
बिखेर कर ही जाता है
आगे अपनी-अपनी समझ
कौन किस रूप में लेता है।
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कृष्ण एक अवतार बचा है ले लो
अपने जन्मदिवस पर,
आनन्द पूर्वक,
परिवार के साथ,
आनन्दमय वातावरण में,
आनन्द मना रही थी।
पता नहीं कहां से
कृष्ण जी पधारे,
बोले, परसों मेरा भी जन्मदिन था।
करोड़ों लोगों ने मनाया।
मैं बोली
तो मेरे पास क्या करने आये हो?
मैंने तो नहीं मनाया।
बोले,
इसी लिए तो तुम्हें ही
अपना आशीष देने आया हूं,
बोले] जुग-जुग जीओ बेटा।
पहले तो मैंने उन्हें डांट दिया,
अपना उच्चारण तो ठीक करो,
जुग नहीं होता, युग होता है।
इससे पहले कि वह
डर कर चले जाते,
मैंने रोक लिया और पूछा,
हे कृष्ण! यह तो बताओ
कौन से युग में जीउं ?
मेरे इस प्रश्न पर कृष्ण जी
तांक-झांक करने लगे।
मैंने कहा, केक खाओ,
और मेरे प्रश्न सुलझाओ।
हर युग में आये तुम।
हर युग में छाये तुम।
पर मेरी समझ कुछ छोटी है
बुद्धि ज़रा मोटी है।
कुछ समझाओ मुझे तुम।
पढ़ा है मैंने
24 अवतार लिए तुमने।
कहते हैं
सतयुग सबसे अच्छा था,
फिर भी पांच अवतार लिये तुमने।
दुष्टों का संहार किया
अच्छों को वरदान दिया।
त्रेता युग में तीन रूप लिये
और द्वापर में अकेले ही चले आये।
कहते हैं,
यह कलियुग है,
घोर पाप-अपराध का युग है।
मुझे क्या लेना
किस युग में तुमने क्या किया।
किसे दण्ड दिया,
और किसे अपराध मुक्त किया।
एक अवतार बचा है
ले लो, ले लो,
नयी दुनिया देखो
इस युग में जीओ,
केक खाओ और मौज करो।
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धागों का रिश्ता
कहने को कच्चे धागों का रिश्ता, पर मज़बूत बड़ा होता है
निःस्वार्थ भावों से जुड़ा यह रिश्ता बहुत अनमोल होता है
भाई यादों में जीता है जब बहना दूर चली चली जाती है
राखी-दूज पर मिलने आती है, तब आनन्द दूना होता है।
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कुछ तो करवा दो सरकार
कुएँ बन्द करवा दो सरकार।
अब तो मेरे घर नल लगवा दो सरकार।
इस घाघर में काम न होते
मुझको भी एक सूट सिलवा दो सरकार।
चलते-चलते कांटे चुभते हैं
मुझको भी एक चप्पल दिलवा दो सरकार।
कच्ची सड़कें, पथरीली धरती
कार न सही,
इक साईकिल ही दिलवा दो सरकार।
मैं कोमल-काया, नाज़ुक-नाज़ुक
तुम भी कभी घट भरकर ला दो सरकार।
कान्हा-वान्हा, गोपी-वोपी,
प्रेम-प्यार के किस्से हुए पुराने
तुम भी कुछ नया सोचो सरकार।
शहरी बाबू बनकर रोब जमाते फ़िरते हो
दो कक्षा
मुझको भी अब तो पढ़वा दो सरकार।
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राधिके सुजान
अपनी तो हाला भी राधिके सुजान होती है
हमारी चाय भी उनके लिए मद्यपान होती है
कहा हमने चलो आज साथ-साथ आनन्द लें बोले
तुम्हारी सात की,हमारी सात सौ की कहां बात होती है
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इन्द्रधनुषी रंग बिखेरे
नीली चादर तान कर अम्बर देर तक सोया पाया गया
चंदा-तारे निर्भीक घूमते रहे,प्रकाश-तम कहीं आया-गया
प्रात हुई, भागे चंदा-तारे,रवि ने आहट की,तब उठ बैठा,
इन्द्रधनुषी रंग बिखेरे, देखो तो, फिर मुस्काता पाया गया
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मानवता को मुंडेर पर रख
आस्था, विश्वास,श्रद्धा को हम निर्जीव पत्थरों पर लुटा रहे हैं
अधिकारों के नाम पर जाति-धर्म,आरक्षण का विष पिला रहे हैं
अपने ही घरों में विष-बेल बीज ली है,जानते ही नहीं हम
मानवता को मुंडेर पर रख,अपना घर फूंक ताली बजा रहे हैं
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अपनी कहानियाँ आप रचते हैं
पुस्तकों में लिखते-लिखते
भाव साकार होने लगे।
शब्द आकार लेने लगे।
मन के भाव नर्तन करने लगे।
आशाओं के अश्व
दौड़ने लगे।
सही-गलत परखने लगे।
कल्पना की आकृतियां
सजीव होने लगीं,
लेखन से विलग
अपनी बात कहने लगीं।
पूछने लगीं, जांचने लगीं,
सत्य-असत्य परखने लगीं।
अंधेरे से रोशनियों में
चलने लगीं।
हाथ थाम आगे बढ़ने लगीं।
चल, इस ठहरी, सहमी
दुनिया से अलग चलते हैं
बनी-बनाई, अजनबी
कहानियों से बाहर निकलते हैं,
अपनी कहानियाँ आप रचते हैं।