मन के भीतर कल्पवृक्ष

मन के भीतर ही

उगे बैठे हैं

न जाने कितने कल्पवृक्ष।

रोज उगते हैं, फलते-फूलते हैं

जड़े जमाते हैं

और समय के प्रवाह में

सब कुछ दे जाते हैं।

न समुद्र मंथन की आवश्यकता,

न किसी युद्ध की

न देवताओं-असुरों की,

क्योंकि सब कुछ तो

इसी मन के भीतर है।

कहां बाहर भटकते हैं हम

क्यों बाहर भटकते हैं हम।

हां, यह और बात है

कि समय के प्रवाह में

बदल जाता है बहुत कुछ।

शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं

भाव बदल जाते हैं

प्रभाव बदल जाते हैं।

इसलिए

मन के इस कल्पवृक्ष से भी

बहुत आशाएं मत रखना।