जब भी दूध देखा

सुना ही है

कि भारत में कभी

दूध-घी की

नदियाँ बहा करती थीं।

हमने तो नहीं देखीं।

बहती होंगी किसी युग में।

हमने तो

दूध को सदा

टीन के पीपों से ही

बहते देखा है।

हम तो समझ ही नहीं पाये

कि दूध के लिए

दुधारु पशुओं का नाम

क्यों लिया जाता है।

कैसे उनका दूध समा जाता है

बन्द पीपों में

थैलियों में और बोतलों में।

हमने तो जब भी दूध देखा

सदा पीपों में, थैलियों में

बन्द बोतलों में ही देखा।

 

 

जीवन चलता तोल-मोल से

सड़कों पर बाज़ार बिछा है

रोज़ सजाते, रोज़ हटाते।

आज  हरी हैं

कल बासी हो जायेंगी।

आस लिए बैठे रहते हैं

देखें कब तक बिक जायेंगी

ग्राहक आते-जाते

कभी ख़रीदें, कभी सुनाते।

धरा से उगती

धरा पर सजती

धरा पर बिकती।

धूप-छांव में ढलता जीवन

सांझ-सवेरे कब हो जाती।

तोल-मोल से काम चले

और जीवन चलता तोल-मोल से

यूँ ही दिन ढलते रहते हैं

जीवन का आनन्द ले

प्रकृति ने पुकारा मुझे,

खुली हवाओं ने

दिया सहारा मुझे,

चल बाहर आ

दिल बहला

न डर

जीवन का आनन्द ले

सुख के कुछ पल जी ले।

वृक्षों की लहराती लताएँ

मन बहलाती हैं

हरीतिमा मन के भावों को

सहला-सहला जाती है।

मन यूँ ही भावनाओं के

झूले झूलता है

कभी हँसता, कभी गुनगुनाता है।

गुनगुनी धूप

माथ सहला जाती है

एक मीठी खुमारी के साथ

मानों जीवन को गतिमान कर जाती है।

 

अपने केश संवरवा लेना

बंसी बजाना ठीक था

रास रचाना ठीक था

गैया चराना ठीक था

माखन खाना,

ग्वाल-बाल संग

वन-वन जाना ठीक था।

यशोदा मैया

गूँथती थी केश मेरे

उसको सताना ठीक था।

कुरुक्षेत्र की यादें

अब तक मन को

मथती हैं

बड़े-बड़े महारथियों की

कथाएँ  अब तक

मन में सजती हैं।

 

पर राधे !

अब मुझको यह भी करना होगा!!

अब मुझको

राजनीति छोड़

तुम्हारी लटों में उलझना होगा!!!

न न न, मैं नहीं अब आने वाला

तेरी उलझी लटें

मैं  न सुलझाने वाला।

और काम भी करने हैं मुझको

चक्र चलाना, शंख बजाना,

मथुरा, गोकुल, द्वापर, हस्तिनापुर

कुरुक्षेत्र

न जाने कहाँ-कहाँ मुझको है जाना।

मेरे जाने के बाद

न जाने कितने नये-नये युग आये हैं

जिनका उलटा बजता ढोल

मुझे सताये है।

इन सबको भी ज़रा देख-परख लूँ

और समझ लूँ,

कैसे-कैसे इनको है निपटाना।

फिर अपने घर लौटूँगा

थक गया हूँ

अवतार ले-लेकर

अब मुझको अपने असली रूप में है आना

तुम्हें एक लिंक देता हूँ

पार्लर से किसी को बुलवा लेना

अपने केश संवरवा लेना।

 

मुखौटे बहुत चढ़ाते हैं लोग

गुब्बारों में हँसी लाया हूँ

चेहरे पर चेहरा लगाकर

खुशियों का

सामान बांटने आया हूँ।

कुछ पल बांट लो मेरे साथ

जीवन को हँसी

बनाने आया हूँ।

चेहरों पर

मुखौटे बहुत चढ़ाते हैं लोग

पर मैं अपने मुखौटै से

तुम्हें हँसाने आया हूँ।

गुब्बारे फूट जायेंगे

हवा बिखर जायेगी,

या उड़ जायेंगे आकाश में

ग़म न करना

ज़िन्दगी का सच

समझाने आया हूँ।

 

वास्तविकता से परे

किसका संधान तू करने चली

फूलों से तेरी कमान सजी

पर्वतों पर तू दूर खड़ी

अकेली ही अकेली

किस युद्ध में तू तनी

कौन-सा अभ्यास है

क्या यह प्रयास है

इस तरह तू क्यों है सजी

वास्तविकता से परे

तेरी यह रूप सज्जा

पल्लू उड़ रहा, सम्हाल

बाजूबंद, करघनी, गजरा

मांगटीका लगाकर यूँ कैसे खड़ी

धीरज से कमान तान

आगे-पीछे  देख-परख

सम्हल कर रख कदम

आगे खाई है सामने पहाड़

अब गिरी, अब गिरी, तब गिरी

या तो वेश बदल या लौट चल।

 

जिन्दगी संवारती हूं

भीतर ही भीतर

न जाने कितने रंग

बिखरे पड़े हैं,

कितना अधूरापन

खंगालता है मन,

कितनी कहानियां

कही-अनकही रह जाती हैं,

कितने रंग बदरंग हो जाते हैं।

 

आज उतारती हूं

सबको

तूलिका से।

अपना मन भरमाती हूं,

दबी-घुटी कामनाओं को

रंग देती हूं,

भावों को पटल पर

निखारती हूं,

तूलिका से जिन्दगी संवारती हूं।

 

 

 

 

डर-डर कर जी रहे हैं

खुले आसमान के नीचे

विघ्न-बाधाओं को लांघकर

समुद्र मापकर

आकाश और धरा को नापकर,

हवाओं को बांधकर,

मानव समझ बैठा था

स्वयं को विधाता, सर्वशक्तिमान।

 

और आज

अपनी ही करनी से,

अपनी ही कथनी से,

अपने ही कर्मों से,

अपने लिए, आप ही,

तैयार कर लिया है कारागार।

सीमाओं में रहना सीख रहा है,

अपनापन अपनाना सीख रहा है।

उच्च विचार पता नहीं,

पर सादा जीवन जी रहा है।

इच्छाओं पर प्रतिबन्ध लगा है।

आशाओं पर तुषारापात हुआ है।

चाबी अपने पास है

पर खोलने से डरा हुआ है।

दूरियों में जी रहा है

नज़दीकियों से भाग रहा है।

हर पल मर-मर कर जी रहा है,

हर पल डर-डर कर जी रहा है।

 

अपना साहस परखता हूँ मैं

आसमान में तिरता हूँ मैं।

धरा को निहारता हूँ मैं।

अपना साहस परखता हूँ मैं।

मंज़िल पाने के लिए

खतरों से खेलता हूँ मैं।

यूँ भी जीवन का क्या भरोसा

लेकिन अपने भरोसे

आगे बढ़ता ही बढ़ता हूँ मैं।

हवाएँ घेरती हैं मुझे,

ज़माने की हवाओं को

परखता हूँ मैं।

साथी नहीं, हमसफ़र नहीं

अकेले ही

अपनी राहों को

तलाशता हूँ मैं।

 

इरादे नेक हों तो

सिर उठाकर जीने का

मज़ा ही कुछ और है।

बाधाओं को तोड़कर

राहें बनाने का

मज़ा ही कुछ और है।

इरादे नेक हों तो

बड़े-बड़े पर्वत ढह जाते हैं

इस धरा और पाषाणों को भेदकर

गगन को देखने का

मज़ा ही कुछ और है।

बहुत कुछ सिखा जाता है यह अंकुरण

सुविधाओं में तो

सभी पनप लेते हैं

अपनी हिम्मत से

अपनी राहें बनाने मज़ा ही कुछ और है।

   

अपनी कहानियाँ आप रचते हैं

पुस्तकों में लिखते-लिखते

भाव साकार होने लगे।

शब्द आकार लेने लगे।

मन के भाव नर्तन करने लगे।

आशाओं के अश्व

दौड़ने लगे।

सही-गलत परखने लगे।

कल्पना की आकृतियां

सजीव होने लगीं,

लेखन से विलग

अपनी बात कहने लगीं।

पूछने लगीं, जांचने लगीं,

सत्य-असत्य परखने लगीं।

अंधेरे से रोशनियों में

चलने लगीं।

हाथ थाम आगे बढ़ने लगीं।

चल, इस ठहरी, सहमी

दुनिया से अलग चलते हैं

बनी-बनाई, अजनबी

कहानियों से बाहर निकलते हैं,

अपनी कहानियाँ आप रचते हैं।

 

अपनी राहों पर अपने हक से चला मैं

रोशनी से

बात करने चला मैं।

सुबह-सवेरे

अपने से चला मैं।

उगते सूरज को

नमन करने चला मैं।

न बदला सूरज

न बदली उसकी आब,

तो अपनी राहों पर

यूं ही बढ़ता चला मैं।

उम्र यूं ही बीती जाती

सोचते-सोचते

आगे बढ़ता चला मैं।

धूल-धूसरित राहें

न रोकें मुझे

हाथ में लाठी लिए

मनमस्त चला मैं।

साथ नहीं मांगता

हाथ नहीं मांगता

अपने दम पर

आज भी चला मैं।

वृक्ष भी बढ़ रहे,

शाखाएं झुक रहीं

छांव बांटतीं

मेरा साथ दे रहीं।

तभी तो

अपनी राहों पर

अपने हक से चला मैं।

 

कितने सबक देती है ज़िन्दगी

भाग-दौड़ में लगी है ज़िन्दगी।

खेल-खेल में रमी है ज़िन्दगी।

धूल-मिट्टी में आनन्द देती

मज़े-मजे़ से बीतती है ज़िन्दगी।

तू हाथ बढ़ा, मैं हाथ थामूँ,

धक्का-मुक्की, उठन-उठाई

नाम तेरा यही है ज़िन्दगी।

आगे-पीछे देखकर चलना

बायें-दायें, सीधे-सीधे

या पलट-पलटकर,

सम्हल-सम्हलकर।

तब भी न जाने

कितने सबक देती है ज़िन्दगी।

 

देखो किसके कितने ठाठ

एक-दो-तीन-चार

पांच-छः-सात-आठ

देखो किसके कितने ठाठ

इसको रोटी, उसको दूध

किसी को पानी

किसी को भूख

किसकी कितनी हिम्मत

देखें आज

देखो तुम सब

हमरे ठाठ

किके्रट टीम तो बनी नहीं

किस खेल में होते आठ

अपनी टीम बनाएंगे

मौज खूब उड़ायेंगे

सस्ते में सब निपटायेंगे

पढ़ना-लिखना हुआ है मंहगा

बना ले घर में ही टीम

पढ़ोगे-लिखोगे होंगे खराब

खेलोगे-कूदोगे बनोगे नवाब

 

जीवन संवर-संवर जाता है

बादलों की ओट से

निरखता है सूरज।

बदलियों को

रँगों से भरता

ताक-झाँक

करता है सूरज।

सूरज से रँग बरसें

हाथों में थामकर

जीवन को रंगीन बनायें।

लहरें रंग-बिरँगी

मानों कोई स्वर-लहरी

जीवन-संगीत संवार लें।

जब मिलकर हाथ बंधते हैं

तब आकाश

हाथों में ठहर-ठहर जाता है।

अंधेरे से निपटते हैं

जीवन संवर-संवर जाता है।

 

मेरी आंखों में आँसू देख

मुझसे

प्याज न कटवाया करो।

मुझे

प्याज के आँसू न रुलाया करो।

मेरी आंखों में आँसू देख

न मुस्कुराया करो।

खाना बनाने की

रोज़-रोज़

नई-नई

फ़रमाईशें न बताया करो।

रोज़-रोज़ मुझसे खाना बनवाते हो

कभी तो बनाकर खिलाया करो।

चलो, न बनाओ

तो बस

कभी तो हाथ बंटाया करो।

श्रृंगार किये बैठी थी मैं

कुछ तो

मुझ पर तरस खाया करो।

श्रृंगार का सामान मांगती हूँ

तब मँहगाई का राग न गाया करो।

मेरी आँसू देखकर

न जाने कितनी कहानियाँ बनेंगीं,

हँस-हँसकर मुझे न चिड़ाया करो।

शब्दों से न सही

भावों से ही

कभी तो प्रेम-भाव जतलाया करो।

रूठकर बैठती हूँ

कभी तो मनाने आ जाया करो।

 

 

 

 

खुशियों के रंग

द्वार पर अल्पना

मानों मन की कोई कल्पना

रंगों में रंग सजाती

मन के द्वार खटखटाती

पाहुन कब आयेगा

द्वार खटखटाएगा।

मन के भीतर

रंगीनियां सजेंगी

घर के भीतर

खुशियां बसेंगीं।

 

आंखों देखी दुनिया

कथा है

कि मिट्टी खाने पर

यशोदा ने कृष्ण को

मुँह खोलकर

दिखाने के लिए कहा था

और यशोदा ने

कृष्ण के मुँह में

ब्रह्माण्ड के दर्शन किये थे।

 

कुछ ऐसा ही ब्रह्माण्ड

हमारी आंखों के भीतर भी है

जिसे हम देख नहीं पाते,

किसी और को क्या दिखाना

हम स्वयं ही

समझ भी नहीं पाते।

 

बड़ी प्रचलित कहावत है

आंखों देखी दुनिया।

किन्तु आश्चर्य कि

हम दुनिया को

कभी भी खुली आंखों से

देख  नहीं पाते।

जब भी दुनिया को समझना होता है

हम आंखें बन्द कर लेते हैं

और शिकायत करते हैं

हमारी समझ से बाहर है यह दुनिया।

   

 

 

श्वेत हंसों का जोड़ा

अपनी छाया से मोहित मन-मग्न हुआ हंसों का जोड़ा

चंदा-तारों को देखा तो कुछ शरमाया हंसों का जोड़ा

इस मिलन की रात को देख चंदा-तारे भी मग्न हुए

नभ-जल की नीलिमा में खो गया श्वेत हंसों का जोड़ा

   

 

कुछ तो करवा दो सरकार

 कुएँ बन्द करवा दो सरकार।

अब तो मेरे घर नल लगवा दो सरकार।

इस घाघर में काम न होते

मुझको भी एक सूट सिलवा दो सरकार।

चलते-चलते कांटे चुभते हैं

मुझको भी एक चप्पल दिलवा दो सरकार।

कच्ची सड़कें, पथरीली धरती

कार न सही,

इक साईकिल ही दिलवा दो सरकार।

मैं कोमल-काया, नाज़ुक-नाज़ुक

तुम भी कभी घट भरकर ला दो सरकार।

कान्हा-वान्हा, गोपी-वोपी,

प्रेम-प्यार के किस्से हुए पुराने

तुम भी कुछ नया सोचो सरकार।

शहरी बाबू बनकर रोब जमाते फ़िरते हो

दो कक्षा

मुझको भी अब तो पढ़वा दो  सरकार।

 

सूरज को रोककर मैंने पूछा

सूरज को रोककर

मैंने पूछा

चलोगे मेरे साथ ?

-

हँस दिया सूरज

मैं तो चलता ही चलता हूँ।

तुम अपनी बोलो

चलोगे मेरे साथ ?

-

कभी रुका नहीं

कभी थका नहीं।

तुम अपनी बोलो

चलोगे मेरे साथ ?

-

दिन-रात घूमता हूँ

सबके हाल पूछता हूँ।

तुम अपनी बोलो

चलोगे मेरे साथ ?

-

रंगीनियों को सहेजता हूँ।

रंगों को बिखेरता हूँ।

तुम अपनी बोलो

चलोगे मेरे साथ ?

-

चँदा-तारे मेरे साथी

कौन तुम्हारे साथ ?

तुम अपनी बोलो

चलोगे मेरे साथ ?

-

बादल-वर्षा, आंधी-तूफ़ान

ग्रीष्म-शिशिर सब मेरे साथी।

तुम अपनी बोलो

चलोगे मेरे साथ ?

-

विस्तार गगन का

किसने नापा।

तुम अपनी बोलो

चलोगे मेरे साथ ?

 

 

 


 

दिल आजमाने में लगे हैं

अब गुब्बारों में दिल सजाने लगे हैं

उनकी कीमत हम लगाने लगे हैं

पांच-सात रूपये में ले जाईये मनचाहे

फुलाईये, फोड़िए

या यूं ही समय बिताने  में लगे हैं

मायूसे दिल की ओर तो कोई देखता ही नहीं

सोने चांदी के भाव अब लगाने लगे हैं

दिल कहां, दिलदार कहां अब

बातें करते बहुत

पर असल ज़िन्दगी में टांके लगाने लगे हैं

कुछ तुम दीजिए, कुछ हमसे लीजिए

पर फोड़ना इस दिल को

काटना इसे

असलियत निकल आयेगी

खून बहेगा, आस आहें भरेंगी

बस रोंआ-रोंआ बिखरेगा

सरकार ने प्लास्टिक बन्द कर दिया है

बस इतनी सी बात हम बताने में लगे हैं

समझ आया हो कुछ,  तो ठीक

नहीं तो हम

कहीं और दिल आजमाने में लगे हैं।

 

 

अपना मान करना सीख

आधुनिकता के द्वार पर खड़ी नारी

कहने को आकाश छू रही है

पाताल नाप रही है

पुरुषों के साथ

कंधे से कंधा मिलाकर

चलने की शान मार रही है

घर-बाहर दोनों मोर्चों पर

जीतती नज़र आ रही है।

अपने अधिकारों की बात करती

कहीं भी कमतर

नज़र न आ रही है।

किन्तु यहां

क्यों मौन साध रही है?

न मोम की गुड़िया है,

न लाचार, अपंग।

फिर क्यों इस मोर्चे पर

हर बार

पराजित-सी हार रही है।

.

पाखण्डों और परम्पराओं में

भेद करना सीख।

अपने हित में

अपने लिए बात करना सीख।

रूढ़ियों और रीतियों में

पहचान करना सीख।

अपनी कोमल-कान्त छवि से

बाहर निकल

गलत-सही में भेद करना सीख।

आवाज़ उठा

अपने लिए निर्णय लेना सीख।

सिर उठा,

आंख तरेर, आंख दिखा

आंख से आंख मिला

न डर।

तर्क कर, वितर्क कर

दो की चार कर

अपनी राहें आप नाप

हो निडर।

अपने कंधे पर अपना हाथ रख

अपने हाथ में अपना हाथ ले

न डर

सब बदल गये, सब बदल गया

तू भी बदल

अपना मान करना सीख

अपना मान रखना सीख।

 

उड़ती चिड़िया के पर न गिनूं मैं

आप अब तक मेरी कविताएँ पढ़कर जान ही चुके होंगे कि मेरी विपरीत बुद्धि है। एक चित्र आया कावय रचना के लिए। आपको इस चित्र में किसके दर्शन हुए? मेरे सभी मित्रों को, किसी को विरहिणी नायिका दिखी, किसी को राधा, किसी को मीरा, किसी को बाट जोहती प्रेमिका आदि-आदि-इत्यादि। किन्तु मुझे जैसा यह चित्र प्रतीत हुआ, रचना आपके सामने है।

************-******************

फ़ोटू हो गई हो

मेरे सैयां

तो ये ताम-झाम हटवा दे।

इक कुर्सी-मेज़ ला दे।

उड़ती चिड़िया के पर न गिनूं मैं

फ़्रिज से

थोड़ा शीतल जल पिलवा दे।

कब तक नुमाईश करेगा मेरी,

आप आधुनिक बन बैठा है

मुझको भी नयी ड्रैस सिलवा दे।

अब खाना-वाना

न बनता मुझसे

स्वीगी से मंगवा दे।

 

 

मेहनत की ज़िन्दगी है

प्रेम का प्रतीक है

हाथ में मेरे

न देख मेरा चेहरा

न पूछ मेरी आस।

भीख नहीं मांगती

दया नहीं मांगती

मेहनत की ज़िन्दगी है

छोटी है तो क्या

मुझ पर न दया दिखा।

मुझसे ज्यादा जानते हो तुम

जीवन के भाव को।

न कर बात यूं ही

इधर-उधर की

लेना हो तो ले

मंदिर में चढ़ा

किसी के बालों में लगा

कल को मसलकर

सड़कों पर गिरा

मुझको क्या

लेना हो तो ले

नहीं तो आगे बढ़ 

 

आह! डाकिया!

आह! डाकिया!

खबरें संसार भर की।

डाक तरह-तरह की।

छोटी बात तो

पोस्टकार्ड भेजते थे,

औरों के अन्तर्देशीय पत्रों को

झांक-झांककर देखते थे।

और बन्द लिफ़ाफ़े को

चोरी से पढ़ने के लिए

थूक लगाकर

गीला कर खोलते थे।

जब चोरी की चिट्ठी आनी हो

तो द्वार पर खड़े होकर

चुपचाप डाकिए के हाथ से

पत्र ले लिया करते थे,

इससे पहले कि वह

दरार से चिट्ठी घर में फ़ेंके।

फ़टा पोस्टकार्ड

काली लकीर

किसी अनहोनी से डराते थे

और तार की बात से तो

सब कांपते थे।

सालों-साल सम्हालते थे

संजोते थे स्मृतियों को

अंगुलियों से छूकर

सरासराते थे पत्र

अपनों की लिखावट

आंखों को तरल कर जाती थी

होठों पर मुस्कान खिल आती थी

और चेहरा गुलाल हो जाया करता था

इस सबको छुपाने के लिए

किसी पुस्तक के पन्नों में

गुम हो जाया करते थे।

 

 

ज़िन्दगी भी सिंकती है

रोटियों के साथ

ज़िन्दगी भी सिंकती है।

कौन जाने

जब रोटियां जलती हैं

तब जिन्दगी के घाव

और कौन-कौन-सी

पीड़ाएं रिसती हैं।

पता नहीं

रोज़ कितनी रोटियां सिंकती हैं

कितनी की भूख लगती है

और कितनी भूख मिटती है।

इस एक रोटी के लिए

दिन-भर

कितनी मेहनत करनी पड़ती है

तब जाकर कहीं बाहर आग जलती है

और भीतर की आग

सुलगती हुई आग

न कभी बुझती है

कभी भड़कती है।

 

 

कूड़े-कचरे में बचपन बिखरा है

आंखें बोलती हैं

कहां पढ़ पाते हैं हम

कुछ किस्से  खोलती हैं

कहां समझ पाते हैं हम

किसी की मानवता जागी

किसी की ममता उठ बैठी

पल भर के लिए

मन हुआ द्रवित

भूख से बिलखते बच्चे

बेसहारा अनाथ

चल आज इनको रोटी डालें

दो कपड़े पुराने साथ।

फिर भूल गये हम

इनका कोई सपना होगा

या इनका कोई अपना होगा,

कहां रहे, क्या कह रहे

क्यों ऐसे हाल में है

हमारी एक पीढ़ी

कूड़े-कचरे में बचपन बिखरा है

किस पर डालें दोष

किस पर जड़ दें आरोप

इस चर्चा में दिन बीत गया !!

 

सांझ हुई

अपनी आंखों के सपने जागे

मित्रों की महफ़िल जमी

कुछ गीत बजे, कुछ जाम भरे

सौ-सौ पकवान सजे

जूठन से पंडाल भरा

अनायास मन भर आया

दया-भाव मन पर छाया

उन आंखों का सपना भागा आया

जूठन के ढेर बनाये

उन आंखों में सपने जगाये

भर-भर उनको खूब खिलाये

एक सुन्दर-सा चित्र बनाया

फे़सबुक पर खूब सजाया

चर्चा का माहौल बनाया

अगले चुनाव में खड़े हो रहे हम

आप सबको अभी से करते हैं नमन

न सावन हरे न भादों सूखे

रोज़ी-रोटी के लिए

कुछ लकड़ियां छीलता हूं

मेरा घर चलता है

बुढ़ापे की लाठी टेकता हूं

बच्चों खेलते हैं छड़ी-छड़ी

कुछ अंगीठी जलाता हूं

बची राख से बर्तन मांजता हूं।

 

मैं पेड़ नहीं पहचानता

मैं पर्यावरण नहीं जानता

वृक्ष बचाओ, धरा बचाओ

मैं नहीं जानता

बस कुछ सूखी टहनियां

मेरे जीवन का सहारा बनती हैं

जिन्हें तुम अक्सर छीन ले जाते हो

अपने कमरों की सजावट के लिए।

 

क्यों पड़ता है सूखा

और क्यों होती है अतिवृष्टि

मैं नहीं जानता

क्योंकि

मेरे लिए न सावन हरे

न भादों सूखे

हां, कभी -कभी देखता हूं

हमारे खेतों को सपाट कर

बन गई हैं बहुमंजिला इमारतें

विकास के नाम पर

तुम्हारा धुंआ झेलते हैं हम

और मेरे जीवन का आसरा

ये सूखी टहनियां

छोड़ दो मेरे लिए।

 

 

अनजान राही

एक अनजान राही से

एक छोटी-सी

मुस्कान का आदान-प्रदान।

ज़रा-सा रुकना,

झिझकना,

और देखते-देखते

चले जाना।

अनायास ही

दूर हो जाती है

जीवन की उदासी

मिलता है असीम आनन्द।