शिक्षा की यह राह देखकर

शिक्षा की कौन-सी राह है यह

मैं समझ नहीं पाई।

आजकल

बेटियां-बेटियां

सुनने में बहुत आ रहा है।

उनको ऐसी नई राहों पर

चलना सिखलाया जा रहा है।

सामान ढोने वाली

कुण्डियों पर लटकाया जा रहा है

और शायद

विद्यालय का मार्ग दिखलाया जा रहा है।

बच्चियां हैं ये अभी

नहीं जानती कि

राहें बड़ी लम्बी, गहरी

और दलदल भरी होती हैं।

न पैरों के नीचे धरा है

न सिर पर छाया,

बस दिवा- स्वप्न दिखा-दिखाकर

अधर में फ़ंसाया जा रहा है।

अवसर मिलते ही

डराने लगते हैं हम

धमकाने लगते हैं हम।

और कभी उनका

अति गुणगान कर

भटकाने लगते हैं हम।

ये राहें दिखाकर

उनके हौंसले

तोड़ने पर लगे हैं।

नौटंकियां करने में कुशल हैं।

चांद पर पहुंच गये,

आधुनिकता के चरम पर बैठे,

लेकिन

शिक्षा की यह राह देखकर

चुल्लू भर पानी में

डूब मरने को मन करता है।

किन्तु किससे कहें,

यहां तो सभी

गुणगान करने  में जुटे हैं।

 

रस और गंध और पराग

 

ज़्यादा उंची नहीं उड़ती तितली।

बस फूलों के आस पास
रस और गंध और पराग
बस इतना ही।

समेट लिया मैंने 
अपनी हथेलियों में
दिल से।

ले जीवन का आनन्द

सपनों की सीढ़ी तानी

चलें गगन की ओर

लहराती बदरियां

सागर की लहरियां

चंदा की चांदनी

करती उच्छृंखल मन।

लरजती डालियों से

झांकती हैं रोशनियां

कहती हैं

ले जीवन का आनन्द।

 

चांद मानों मुस्कुराया

चांद मानों हड़बड़ाया

बादलों की धमक से।

सूरज की रोशनी मिट चुकी थी,

चांद मानों लड़खड़ाया

अंधेरे की धमक से।

लहरों में मची खलबली,

देख तरु लड़खड़ाने लगे।

जल में देख प्रतिबिम्ब,

चांद मानों मुस्कुराया

अपनी ही चमक से।

अंधेरों में भी रोशनी होती है,

चमक होती है, दमक होती है,

यह समझाया हमें चांद ने

अपनेपन से  मनन  से ।

झुकना तो पड़ता ही है

कहां समय  मिलता है

कमर सीधी करने का।

काम कोई भी करें,

घर हो या खलिहान,

झुकना तो पड़ता ही है,

झुककर ही

काम करना पड़ता है।

फिर धीरे-धीरे

आदत हो जाती है,

झुके रहने की।

और फिर एक  समय

ऐसा  आता है

कि सिर उठाकर

चलना ही भूल जाती हैं।

फिर,

कहां कभी सिर  उठाकर

चल पाती हैं।

 

मुस्कानों की भाषा लिखूं

छलक-छलक-छलकती बूंदें,

मन में रस भरती बूंदें

लहर-लहर लहराता आंचल

मन हरषे जब घन बरसे

मुस्कानों की भाषा लिखूं

हवाओं संग उड़ान भरूं मैं

राग बजे और साज बजे

मन ही मन संगीत सजे

धारा संग बहती जाती

अपने में ही उड़ती जाती

कोई न रोके कोई न टोके

जीवन-भर ये हास सजे।

 

ककहरा जान लेने से ज़िन्दगियां नहीं बदल जातीं

इस चित्र को देखकर सोचा था,

 

आज मैं भी

कोई अच्छी-सी रचना रचूंगी।

मां-बेटी की बात करूंगी।

लड़कियों की शिक्षा,

प्रगति को लेकर बड़ी-बड़ी

बात करूंगी।

पर क्या करूं अपनी इस सोच का,

अपनी इस नज़र का,

मुझे न तो मां दिखाई दी इस चित्र में,

किसी बेटी के लिए आधुनिकता-शिक्षा के

सपने बुनती हुई ,

और न बेटी एवरेस्ट पर चढ़ती हुई।

मुझे दिखाई दे रही है,

एक तख्ती परे सरकती हुई,

कुछ गुम हुए, धुंधलाते अक्षरों के साथ,

और एक छोटी-सी बालिका।

यहां कहां बेटी पढ़ाने की बात है।

कहां कुछ सिखाने की बात है।

नहीं है कोई सपना।

नहीं है कोई आस।

जीवन की दोहरी चालों में उलझे,

तख्ती, चाक और लिखावट

तो बस दिखावे की बात है।

एक ओर  तो पढ़ ले,पढ़ ले,

का राग गा रहे हैं,

दूसरी ओर

इस छोटी सी बालिका को

सजा-धजाकर बिठा रहे हैं।

कोई मां नहीं बुनती

ऐसे हवाई सपने

अपनी बेटियों के लिए।

जानती है गहरे से,

ककहरा जान लेने से

ज़िन्दगियां नहीं बदल जातीं,

भाव और परम्पराएं नहीं उलट जातीं।

.

आज ही देख रही है ,

उसमें अपना प्रतिरूप।

.

सच कड़वा होता है

किन्तु यही सच है।

 

हमारे नाम की चाबी

मां-पिता

जब ईंटें तोड़ते हैं

तब मैंने पूछा

इनसे क्या बनता है मां ?

 

मां हंसकर बोली

मकान बनते हैं बेटा!

मैंने आकाश की ओर

सिर उठाकर पूछा

ऐसे उंचे बनते हैं मकान?

कब बनते हैं मकान?

कैसे बनते हैं मकान?

कहां बनते हैं मकान?

औरों के ही बनते हैं मकान,

या अपना भी बनता है मकान।

मां फिर हंस दी।

पिता की ओर देखकर बोली,

छोटा है अभी तू

समझ नहीं पायेगा,

तेरे हिस्से का मकान कब बन पायेगा।

शायद कभी कोई

हमारे नाम से चाबी देने आयेगा।

और फिर ईंटें तोड़ने लगी।

मां को उदास देख

मैंने भी हथौड़ी उठा ली,

बड़ी न सही, छोटी ही सही,

तोड़ूंगा कुछ ईंटें

तो मकान तो ज़रूर बनेगा,

इतना उंचा न सही

ज़मीन पर ज़रूर बनेगा मकान!

 

एक किरण लेकर चला हूँ

रोशनियों को चुराकर चला हूँ,

सिर पर उठाकर चला हूँ

जब जहां अवसर मिलेगा

रोश्नियां बिखेरने का

वादा करके चला हूँ

अंधेरों की आदत बनने लगी है,

उनसे दो-दो हाथ करने चला हूँ

जानता हूं, है कठिन मार्ग

पर अकेल ही अकेले चला हूँ

दूर-दूर तक

न राहें हैं, न आसमां, न जमीं,

सब तलाशने चला हूं।

ठोकरों की तो आदत हो गई है,

राहों को समतल बनाने चला हूँ

कोई तो मिलेगा राहों में,

जो संग-संग चलेगा,

साथ उम्मीद की, हौंसलों की भी

एक किरण लेकर चला हूँ

दादाजी से  गुड़िया बोली

दादाजी से  गुड़िया बोली,

स्कूल चलो न, स्कूल चलो न।

दादाजी को गुड़िया बोली

मेरे संग पढ़ो न, मेरे संग पढ़ो न।

मां हंस हंस होती लोट-पोट,

भैया देखे मुझको।

दादाजी बोले,

स्कूल चलूंगा, स्कूल चलूंगा।

मुझको एक ड्र्ैस सिलवा दे न।

सुन्दर सा बस्ता,

काॅपी-पैन ला दे न।

अपनी क्लास में

मेरा नाम लिखवा दे न।

तू मुझको ए बी सी सिखलाना,

मैं तुझको अ आ इ ई सिखलाउंगा।

मेरी काम करेगी तू,

मैं तुझको टाॅफ़ी दिलवाउंगा।

मेरी रोटी भी बंधवा लेना

नहीं तो मैं तेरी खा जाउंगा।

गुड़िया बोली,

न न न न, दादाजी,

मैं अपनी रोटी न दूंगी,

आप अभी बहुत छोटे हैं,

थोड़े बड़े हो जाओ न।

अभी तो तुम

मेरे घोड़े ही बन जाओ न।

आस जीवन की

रात गई, प्रात आई, लालिमा झिलमिल,

आते होंगे संगी-साथी, उड़ेंगे हिलमिल,

डाली पर फूल खिलेंगे, आस जीवन की,

तान छेड़ेंगे, राग नये गायेंगे, घुलमिल।

बंजारों पर चित्राधारित रचना

किसी चित्रकार की

तूलिका से बिखरे

यह शोख रंग

चित्रित कर पाते हैं

बस, एक ठहरी-सी हंसी,

थोड़ी दिखती-सी खुशी

कुछ आराम

कुछ श्रृंगार, सौन्‍दर्य का आकर्षण

अधखिली रोशनी में

दमकता जीवन।

किन्‍तु, कहां देख पाती है

इससे आगे

बन्‍द आंखों में गहराती चिन्‍ताएं

भविष्‍य का धुंधलापन

अधखिली रोशनी में जीवन तलाशता

संघर्ष की रोटी

राहों में बिखरा जीव

हर दिन

किसी नये ठौर की तलाश में

यूं ही बीतता है जीवन ।

  

टूटे घरों में कोई नहीं बसता

दिल न हुआ,

कोई तरबूज का टुकड़ा हो गया ।

एक इधर गया,

एक उधर गया,

इतनी सफाई से काटा ,

कि दिल बाग-बाग हो गया।

-

जिसे देखो

आजकल

दिल हाथ में लिए घूमते हैं  ,

ज़रा सम्‍हाल कर रखिए अपने दिल को,

कभी कभी अजनबी लोग,

दिल में यूं ही घर बसा लिया करते हैं,

और फिर जीवन भर का रोग लगा जाते हैं ।

-

वैसे दिल के टुकड़े कर लिए

आराम हो गया ।

न किसी के इंतज़ार में हैं ।

न किसी के दीदार में हैं ।

टूटे घरों में कोई नहीं बसता ।

जीवन में एक ठीक-सा विराम हो गया ।

 

आनन्द उठाने चल रही ज़िन्दगी

 

रंगों के बीच कदम उठाकर चल रही  है  ज़िन्दगी।

चांद की मद्धम रोशनी में पल रही है ज़िन्दगी।

धरा और आकाश में भावों का ज्वार उठ रहा,

एकाकीपन का आनन्द उठाने चल रही है ज़िन्दगी।

  

बादल राग सुनाने के लिए

बादल राग सुनाने के लिए

योजनाओं का

अम्बार लिए बैठे हैं हम।

पानी पर

तकरार किये बैठै हैं हम।

गर्मियों में

पानी के

ताल लिए बैठे हैं हम।

वातानुकूलित भवनों में

पानी की

बौछार लिए बैठे हैं हम।

सूखी धरती के

चिन्तन के लिए

उधार लिए बैठे हैं हम।

कभी पांच सौ

कभी दो हज़ार

तो कभी

छः हज़ारी के नाम पर

मत-गणना किये बैठे हैं हम।

हर रोज़

नये आंकड़े

जारी करने के लिए

मीडिया को साधे बैठे हैं हम।

और कुछ न हो सके

तो तानसेन को

बादल राग सुनाने के लिए

पुकारने बैठे हैं हम।

तीर खोज रही मैं

गहरे सागर के अंतस में

तीर खोज रही मैं।

ठहरा-ठहरा-सा सागर है,

ठिठका-ठिठका-सा जल।

कुछ परछाईयां झलक रहीं,

नीरवता में डूबा हर पल।

-

चकित हूं मैं,

कैसे द्युतिमान जल है,

लहरें आलोकित हो रहीं,

तुम संग हो मेरे

क्या यह तुम्हारा अक्स है?

नेह का बस एक फूल

जीवन की इस आपाधापी में,

इस उलझी-बिखरी-जि़न्‍दगी में,

भाग-दौड़ में बहकी जि़न्‍दगी में,

नेह का बस कोई एक फूल खिल जाये।

मन संवर संवर जाता है।

पत्‍ती-पत्‍ती , फूल-फूल,

परिमल के संग चली एक बयार,

मन बहक बहक जाता है।

देखएि  कैसे सब संवर संवर जाता है।

 

नेह की पौध

हृदय में अंकुरित होती है

जब नेह की पौध,

विश्रृंखलित होते हैं मन के भाव ,

लेने लगते हैं आकार।

पुष्पित –पल्‍लवित होती हैं

कुछ भाव लताएं।

द्युतिमान होता है मन का आकाश।

नीलाभ आकाश और धरा,

जीवन आलोकित करते हैं।

मन में एक विश्चास हो

चल आज

इन उमड़ते-घुमड़ते बादलों

में जीवन का

एक मधुर चित्र बनायें।

सूरज की रंगीनियां

बादलों की अठखेलियां

किरणों से बनायें।

दूरियां कितनी भी हों,

जब हाथ में हाथ हो,

मन में एक विश्चास हो,

सहज-सरल-सरस

भाव हों,

बस , हम और आप हों।

 

सब आओ साथ-साथ खेलेंगे

सब आओ साथ-साथ खेलेंगे

छप-छपा-छप, छप-छपा-छप,

दौड़ूं मैं।

आजा पानी, आजा पानी

भीगूं मैं।

पेड़ों पर पंछी बैठे,

भीग रहे।

वो देखो,

बिल्लो माई दुबकी बैठी।

फुदक-फुदककर,

फुदक-फुदककर,

गिलहरी घूम रही।

मैं देखो छाता लाई हूं,

सब आओ मेरे संग,

साथ-साथ खेलेंगे।

बिल्लो रानी तुमको दूध मिलेगा,

गिलहरी तुम खाना अखरोट।

चिड़िया को दाना दूंगी,

तोता खायेगा अमरूद।

मैं खा लूंगी रोटी।

फिर तुम सब अपने घर जाना।

मैं अपने घर जाउंगी,

कल तुम से मिलने फिर आउंगी।

 

किसकी डोर किसके हाथ

कहां समझे हैं हम, 

जीवन की सच्‍चाईयों और

चित्रों में बहुत अन्‍तर होता है।

कठपुतली नाच और

जीवन के रंगमंच के

नाटक का

अन्‍त अलग-अलग होता है।

स्‍वप्‍न और सत्‍य में

धरा-आकाश का अन्‍तर होता है।

इस चित्र को देखकर मन बहला लो ।

कटाक्ष और व्‍यंग्‍य का

पटल बड़ा होता है।

किसकी डोर किसके हाथ

यह कहां पता होता है।

कहने और लिखने की बात और है,

जीवन का सत्‍य क्‍या है,

यह सबको पता होता है ।

 

जीवन की पुस्तकें

कुछ बुढ़ा-सी गई हैं पुस्तकें।

भीतर-बाहर

बिखरी-बिखरी-सी लगती हैं,

बेतरतीब।

.

किन्तु जैसे

बूढ़ी हड्डियों में

बड़ा दम होता है,

एक वट-वृक्ष की तरह

छत्रछाया रहती है

पूरे परिवार के सुख-दुख पर।

उनकी एक आवाज़ से

हिलती हैं घर की दीवारें,

थरथरा जाते हैं

बुरी नज़र वाले।

देखने में तो लगते हैं

क्षीण काया,

जर्जर होते भवन-से।

किन्तु उनके रहते

द्वार कभी सूना नहीं लगता।

हर दीवार के पीछे होती है

जीवन की पूरी कहानी,

अध्ययन-मनन

और गहन अनुभवों की छाया।

.

जीवन की इन पुस्तकों को

चिनते, सम्हालते, सजाते

और समझते,

जीवन बीत जाता है।

दिखने में बुढ़उ सी लगती हैं,

किन्तु दम-खम इनमें भी होता है।

 

जीवन की कहानियां बुलबुलों-सी नहीं होतीं

 कहते हैं

जीवन पानी का बुलबुला है।

किन्तु कभी लगा नहीं मुझे,

कि जीवन

कोई छोटी कहानी है,

बुलबुले-सी।

सागर की गहराई से भी

उठते हैं बुलबुले।

और खौलते पानी में भी

बनते हैं बुलबुले।

जीवन में गहराई

और जलन का अनुभव

अद्भुत है,

या तो डूबते हैं,

या जल-भुनकर रह जाते हैं।

जीवन की कहानियां

बुलबुलों-सी नहीं होतीं

बड़े गहरे होते हैं उनके निशान।

वैसे ही जैसे

किसी के पद-चिन्हों पर,

सारी दुनिया

चलना चाहती है।

और किसी के पद-चिन्ह

पानी के बुलबुले से

हवाओं में उड़ जाते हैं,

अनदेखे, अनजाने,

अनपहचाने।

 

हाथों से मिले नेह-स्पर्श

 पत्थरों में भाव गढ़ते हैं,

जीवन में संवाद मरते हैं।

हाथों से मिले नेह-स्पर्श,

बस यही आस रखते है।

 

बचाकर रखी है भीतर तरलता

कितना भी काट लो, कुछ है, जो जड़ें  जमाये रखता है

न भीतर से टूटने देता है, मन में इक आस बनाये रखता है

बचाकर रखी है भीतर तरलता, नयी पौध तो पनपेगी ही,

धरा से जुड़े हैं तो कदम संभलेंगे, यह विश्वास जगाये रखता है

 

एकान्त के स्वर

मन के भाव रेखाओं में ढलते हैं।

कलश को नेह-नीर से भरते हैं।

रंगों में जीवन की गति रहती है,

एकान्त के स्वर गीत मधुर रचते हैं।

इंसानों से काम करेंगें

 

इंसानों में रहते हैं तो इंसानों से काम करेंगें

आग जलाई तुमने हम सेंककर शीत हरेंगे

बाहर झड़ी लगी है, यहीं बितायेंगे दिन-रात

यहीं बैठकर रोटी-पानी खाकर पेट भरेंगे।

साथ समय के चलना होगा

तुमको क्यों ईर्ष्या होती है मैंने भी आई-फोन लिया है
साथ समय के चलना होगा इतना मैंने समझ लिया है।
चिट्ठियां-विट्ठियां पीछे छूटीं, इतना ज्ञान मिला है मुझको,
-मेल, फेसबुक, ट्विटर सब कुछ मैंने खोल लिया है।

बस बातें करने में उलझे हैं हम

किस विवशता में कौन है, कहां है, कब समझे हैं हम।

दिखता कुछ और, अर्थ कुछ और, नहीं समझे हैं हम।

मां-बेटे-से लगते हैं, जीवनगत समस्याओं में उलझे,

नहीं इनका मददगार, बस बातें करने में उलझे हैं हम।

 

कब छूटेगी यह नाटकबाजी

देह पर पुस्तक-सज्जा से

पढ़ना नहीं आ जाता।

मांग में कलम सजाने से

लिखना नहीं आ जाता।

कपोत उड़ाने भर से

स्वाधीनता के द्वार

उन्मुक्त नहीं हो जाते।

पहले हाथ की बेड़ियां

तो तोड़।

फिर सोच,

कान के झुमके,

माथे की टिकुली,

नाक की नथनी,

और नर्तन मुद्रा के साथ,

इन फूलों के बीच

कितनी सजती हो तुम।