अन्तस में हैं सारी बातें

पन्नों पर लिखी हैं मन की वे सारी गाथाएं

जो दुनिया तो  जाने थी पर मन था छुपाए

पर इन फूलों के अन्तस में हैं वे सारी बातें

न कभी हम उन्हें बताएं न वो हमें जताएं

रेखाएं अनुभव की अनुभूत सत्‍य की

रेखाएं

कलम की, तूलिका की,

रचती हैं कुछ भाव, कोई चित्र।

किन्‍तु 

रेखाएं अनुभव की, अनुभूत सत्‍य की,

दिखती तो दरारों-सी हैं

लेकिन झांकती है

इनके भीतर से एक रोशनी

देती एक गहन जीवन-संदेश।

जिसे पाने के लिए, समझने के लिए

समर्पित करना पड़ता है

एक पूरा जीवन

या एक पूरा युग।

ऐसे हाथ जब आशीष में उठते हैं

तब भी

और जब अभिवादन में जुड़ते हैं

तब भी

नतमस्‍तक होता है मन।

तुम्हारी यह चुप्पी सुहाती नहीं

तुम्हारी यह चुप्पी सुहाती नहीं

उदास बैठी तुम भाती नहीं

कभी तुम्हें यूं देखा नहीं

एकान्‍तवासी

मौन, गम्भीर, चिन्तित।

लौट आओ

ज़रा अपने अंदाज़ में

तुम्हारी किटकिटकुटकुट

डाल डाल फांदती

छुप्पनछुपाई खेलती

कूदती भागती,

पेड़ों के कोटर से झांकती,

यही अंदाज़ भाता है तुम्हारा।

गुनगुनाती हो

हंसती खिलखिलाती हो मेरे भीतर

जीवन को राग रंग देती हो।

कैसे समझाउं तुम्हें

न तुम मेरी बोली समझती हो

न मैं तुम्हारी।

क्या था, क्या हो गया, क्या होगा

कहां वश रह गया हमारा

चलो, लौट आओ तो ज़रा अपने रंग में।

परीलोक से आई है

चित्रलिखित सी प्रतीक्षारत ठहरी हो मुस्काई-सी
नभ की लाली मुख पर कुमकुम सी है छाई-सी
दीपों की आभा में आलोकित, घूंघट की ओट में
नयनाभिराम रूप लिए परीलोक से आई है सकुचाई-सी

हम खुश हैं जग खुश है

इस भीड़ भरे संसार में मुश्किल से मिलती है तन्हाई सखा

, ज़रा दो बातें कर लें,कल क्या हो,जाने कौन सखा

ये उजली धूप,समां सुहाना,हवा बासंती,हरा भरा उपवन

हम खुश हैं, जग खुश है, जीवन में और क्या चाहिए सखा

जो रीत गया वह बीत गया

चेहरे की रेखाओं की गिनती मत करना यारो
जरा,अनुभव,पतझड़ की बातें मत करना यारो
यहां मदमस्त मौमस की मस्ती हम लूट रहे हैं
जो रीत गया उसका क्यों है दु:ख करना यारो   

इस रंगीन शाम में

इस रंगीन शाम में आओ पकड़म-पकड़ाई खेलें

तुम थामो सूरज, मैं चन्दा, फिर नभ के पार चलें

बदली को हम नाव बनायें, राह दिखाएं देखो पंछी

छोड़ो जग-जीवन की चिंताएं,चल हंस-गाकर जी लें

एक मुस्कान हो जाये

देर से

तुम्हें निहारते निहारते

मेरे जीवन में भी

रंग करवट लेने लगे है।।

इस  में

अपनों से

मन की बात कह ली हो

तो चलो

एक उड़ान हो जाये

एक मुस्कान हो जाये

बस यूं

गुमसुम गुमसुम न बैठो।

सूख गये सब ताल तलैया

न प्रीत, न मीत के लिए, न मिलन, न विरह के लिए
घट लाई थी पनघट पर जल भर घर ले जाने के लिए
न घटा आई, न जल बरसा, सूख गये सब ताल–तलैया
संभल मानव, कुछ तो अच्छा कर जा अगली पीढ़ी के लिए

तू लौट जा अपने ठौर

हे पंछी, प्रकृति प्रदत्त स्रोत छोड़कर तू कहां आया रे !

ये मानव निर्मित स्रोत हैं यहां न जल न छाया रे !

तृषित जग, तृषित भाव, तृषित मानव मन हैं यहां

तू लौट जा अपने ठौर,! न कर यहां जीवन जाया रे !

ये आंखें

मन के भीतर प्रवेश का द्वार हैं ये आंखें

सुहाने सपनों से सजा संसार हैं ये आंखें

होंठ बेताब हैं हर बात कह देने के लिए

शब्द को भाव बनने का आधार हैं ये आंखें

जीवन-दर्शन दे जाते हैं ये पत्थर

किसी छैनी हथौड़ी के प्रहार से नहीं तराशे जाते हैं ये पत्थर

प्रकृति के प्यार मनुहार, धार धार से तराशे जाते हैं ये पत्थर

यूं तो  ठोकरे खा-खाकर भी जीवन संवर-निखर जाता है

इस संतुलन को निहारती हूं तो जीवन डांवाडोल दिखाई देता है
मैं भाव-संतुलन नहीं कर पाती, जीवन-दर्शन दे जाते हैं ये पत्थर

देखो तो सूर्य भी निहारता है जब आकार ले लेते हैं ये पत्थर 

चांद को पाल पर बांध लिया

चांद को पाल पर बांध लिया है, ज़रा मेरी हिम्मत देखो

ध्वज फहराया है सागर बीच, ज़रा मैंने मेरी हिम्मत देखो

न आंधियां न तूफान न ज्वार भाटा न भंवर रोकती है मुझे

बांध कर सबको पाल में बहती हूं अनवरत,ज़रा मेरी हिम्मत देखो

इस जग की आपा-धापी में

उलट-पलट कर चित्र को देखो तो, डूबे हैं दोनों ही जल में

मेरी छोड़ो मैं तो डूबी, तुम उतरो ज़रा जग के प्रांगण में

इस जग की आपा-धापी में मेरे संग जीकर दिखला दो तो

गैया,मैया,दूध,दहीं,चरवाहे,माखन,भूलोगे सब पल भर में

 

कथा प्रकाश की

बुझा भी दोगे इस दीप की लौ को, प्रतिच्छाया मिटा न पाओगे

बूंद बूंद में लिखी जा चुकी है कथा प्रकाश की, मिटा न पाओगे

कांच की दीवार के आर हो या पार, सत्य तो सुरभित होकर रहेगा

बाती और धूम्र पहले ही लिख चुके इतिहास को, मिटा न पाओगे

क्षणिक तृप्ति हेतु

घाट घाट का पानी पीकर पहुंचे हैं इस ठौर

राहों में रखते थे प्याउ, बीत गया वह दौर

नीर प्रवाह शुष्क पड़े, जल बिन तरसे प्राणी

क्षणिक तृप्ति हेतु कृत्रिम सज्जा का है दौर

आवागमन में बीत जाता है सारा जीवन

झुलसते हैं पांव, सीजता है मन, तपता है सूरज, पर प्यास तो बुझानी है

न कोई प्रतियोगिता, न जीवटता, विवशता है हमारी, बस इतनी कहानी है

इसी आवागमन में बीत जाता है सारा जीवन, न कोई यहां समाधान सुझाये

और भी पहलू हैं जिन्दगी के, न जानें हम, बस इतनी सी बात बतानी है

थक गई हूं इस बनावट से

जीवन में
और भी बहुत रोशनियां हैं
ज़रा बदलकर देखो।
सजावट की
और भी बहुत वस्तुएं हैं
ज़रा नज़र हटाकर देखो।
प्रेम, प्रीत, अश्रु, सजन
विरह, व्यथा, श्रृंगार,
इन सबसे हटकर
ज़रा नज़र बदलकर देखो,
थक गई हूं
इस बनावट से
ज़रा मुझे भी
आम इंसान बनाकर देखो।

पाषाणों में पढ़ने को मिलती हैं

वृक्षों की आड़ से

झांकती हैं कुछ रश्मियां

समझ-बूझकर चलें

तो जीवन का अर्थ

समझाती हैं ये रश्मियां

मन को राहत देती हैं

ये खामोशियां

जीवन के एकान्त को

मुखर करती हैं ये खामोशियां

जीवन के उतार-चढ़ाव को

समझाती हैं ये सीढ़ियां

दुख-सुख के पल आते-जाते हैं

ये समझा जाती हैं ये सीढ़ियां

पाषाणों में

पढ़ने को मिलती हैं

जीवन की अनकही कठोर दुश्वारियां

समझ सकें तो समझ लें

हम ये कहानियां

अपनेपन से बात करती

मन को आश्वस्त करती हैं

ये तन्हाईयां

अपने लिए सोचने का

समय देती हैं ये तन्हाईयां

और जीवन में

आनन्द दे जाती हैं

छू कर जातीं

मौसम की ये पुरवाईयां

विवेक कहां अब नीर क्षीर का

हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं, किससे आस लिये बैठे हैं

अंधे-गूंगे बहरे-नाकारों की बस्ती में विश्वास लिए बैठे हैं

अपने अपने मद में डूबे हम, औरों से क्या लेना देना

विवेक कहां अब नीर क्षीर का, सब ढाल लिए बैठे है।

प्रकृति के प्रपंच

प्रकृति भी न जाने कहां-कहां क्या-क्या प्रपंच रचा करती है

पत्थरों को जलधार से तराश कर दिल बना दिया करती है

कितना भी सजा संवार लो इस दिल को रंगीनियों से तुम

बिगड़ेगा जब मिज़ाज उसका, पल में सब मिटा दिया करती है

ज़िन्दगी की लम्बी राहों पर

मुस्कुराने की भी
अपनी एक अदा होती है
ज़िन्दगी बिताने की भी
अपनी एक अदा होती है।
ज़िन्दगी की इन लम्बी राहों पर
चलते चलते
फूलों संग मुस्कुराने की भी
अपनी एक अदा होती है।
बरसात की मार हो या
सूखे की धार
ज़िन्दगी को मनाने की भी
अपनी एक अदा होती है।
ठहर गये अगर
तो चुक जायेंगे
चलते रहने की भी
अपनी एक अदा होती है।
खड़े हैं आपकी प्रतीक्षा में,
चले आओ हमारे साथ,
ज़िन्दगी में संग संग
दूर-दूर तक
चलने की भी
अपनी एक अदा होती है।

 

गूंगी,बहरी, अंधी दुनिया

कान तो हम
पहले ही बन्द किये बैठे थे,
चलो आज आंख भी मूंद लेते हैं।
वैसे भी हमने अपने दिमाग से तो
कब का
काम लेना बन्द कर दिया है
और  दिल से सोचना-समझना।
हर बात के लिए
दूसरों की ओर  ताकते हैं।
दायित्वों से बचते हैं
एक ने कहा
तो किसी दूसरे से सुना।
किसी तीसरे ने देखा
और किसी चौथे ने दिखाया।
बस इतने से ही
अब हम
अपनी दुनिया चलाने लगे हैं।
अपने डर को
औरों के कंधों पर रखकर
बंहगी बनाने लगे हैं।
कोई हमें आईना न दिखाने लग जाये
इसलिए
काला चश्मा चढ़ा लिया है
जिससे दुनिया रंगीन दिखती है,
और हमारी आंखों में झांककर
कोई हमारी वास्तविकता
परख नहीं सकता।
या कहीं कान में कोई फूंक न मार दे
इसलिए “हैड फोन” लगा लिए हैं।
अब हम चैन की नींद सोते हैं,
नये ज़माने के गीत गुनगुनाते हैं।
हां , इतना ज़रूर है
कि सब बोल-सुन चुकें
तो जिसका पलड़ा भारी हो
उसकी ओर हम हाथ बढ़ा देते हैं।
और फिर चश्मा उतारकर
हैडफोन निकालकर
ज़माने के विरूद्ध
एक लम्बी तकरीर देते हैं
फिर एक लम्बी जम्हाई लेकर
फिर अपनी पुरानी

मुद्रा में आ जाते हैं।

यह कैसी विडम्बना है

सुना है,

मानव

चांद तक हो आया।

वहां जल की

खोज कर लाया।

ताकती हूं

अक्सर, चांद की ओर

काश !

मेरा घर चांद पर होता

तो मानव

इस रेगिस्तान में भी

जल की खोज कर लेता।

एक सुन्दर सी कृति बनाई मैंने

उपवन में कुछ पत्ते संग टहनी, कुछ फूल झरे थे।

मैं चुन लाई, देखो कितने सुन्दर हैं ये, गिरे पड़े थे।

न डाली पर जायेंगे न गुलदान में अब ये सजेंगे।

एक सुन्दर सी कृति बनाई मैंने, सब देख रहे थे।

 

छोड़ दो अब मुफ्त की बात

क्या तुम्हारी शिक्षा

क्या आयु

कितनी आय

कौन-सी नौकरी

कौन-सा आरक्षण

और इस सबका क्या आधार ?

अनुत्तरित हैं सब प्रश्न।

यह कौन सी आग है

जो अपने-आप को ही जला रही है।

कैसे भूल सकते हैं हम

तिनका-तिनका जोड़कर

बनता है एक घरौंदा।

शताब्दियों से लूटे जाते रहे हम

आततायियों से।

जाने कहां से आते थे

और देश लूटकर चले जाते थे,

अपनों से ही युद्धों में

झोंक दिये जाते थे हम।

कैसे निकले उस सबसे बाहर

फिर शताब्दियां लग गईं,

कैसे भूल सकते हैं हम।

और आज !

अपना ही परिश्रम,

अपनी ही सम्पत्ति

अपना ही घर फूंक रहे हैं हम।

अपने ही भीतर

आततायियों को पाल रहे हैं हम।

किसके झांसे में आ गये हैं हम।

न शिक्षा चाहिए

न विकास, न उद्यम।

खैरात में मिले, नाम बाप के मिले

एक नौकरी सरकारी

धन मिले, घर मिले,

अपना घर फूंककर मिले,

मरे की मिले

या जिंदा दफ़न कर दें तो मिले

लाश पर मिले, श्मशान में मिले

कफ़न बेचकर मिले

बस मुफ्त की मिले

बस जो भी मिले, मुफ्त ही मिले

झाड़ पर चढ़ा करता है आदमी

सुना है झाड़ पर चढ़ा करता है आदमी

देखूं ज़रा कहां-कहां पड़ा है आदमी

घास, चारा, दाना-पानी सब खा गया

देखूं अब किस जुगाड़ में लगा है आदमी

 

सूखी धरती करे पुकार

वातानुकूलित भवनों में बैठकर जल की योजनाएं बनाते हैं

खेल के मैदानों पर अपने मनोरंजन के लिए पानी बहाते हैं

बोतलों में बन्द पानी पी पीकर, सूखी धरती को तर करेंगे

सबको समान सुविधाएं मिलेंगी, सुनते हैं कुछ ऐसा कहते हैं

आंखों में लरजते कुछ सपने देखो

न चूड़ियां देखो, न मेंहदी

न साज-श्रृंगार।

बस, आंखों में लरजते

कुछ सपने देखो।

कुछ पीछे छूट गये ,

कुछ बनते, कुछ सजते

कुछ वादे कुछ यादें।

आधी ज़िन्दगी

इधर थी, आधी उधर है।

पर, सपनों की गठरी

इक ही है।

कुछ बांध लिए, कुछ छिन लिए

कुछ पैबन्द लगे, कुछ गांठ पड़ी

कुछ बिखर गये , कुछ नये बुने

कुछ नये बने।

फिर भी सपने हैं, हैं तो, अपने हैं

कोई देख नहीं पायेगा

इस गठरी को, मन में है।

सपने हैं, जैसे भी हैं

हैं तो बस अपने हैं।

सम्मान से जीना है रूपसी

आंखों की भाषा समझे न, निष्ठुर है यह जग रूपसी

आवरण हटा कर बोल, मन की बात खोल रूपसी

तेरी इस साज-सज्जा से यूं ही भ्रमित हैं सब देख तो

न डर, हो निडर, गरसम्मान से जीना है रूपसी