इंसानों से काम करेंगें
इंसानों में रहते हैं तो इंसानों से काम करेंगें
आग जलाई तुमने हम सेंककर शीत हरेंगे
बाहर झड़ी लगी है, यहीं बितायेंगे दिन-रात
यहीं बैठकर रोटी-पानी खाकर पेट भरेंगे।
साथ समय के चलना होगा
तुमको क्यों ईर्ष्या होती है मैंने भी आई-फोन लिया है।
साथ समय के चलना होगा इतना मैंने समझ लिया है।
चिट्ठियां-विट्ठियां पीछे छूटीं, इतना ज्ञान मिला है मुझको,
ई-मेल, फेसबुक, ट्विटर सब कुछ मैंने खोल लिया है।
बस बातें करने में उलझे हैं हम
किस विवशता में कौन है, कहां है, कब समझे हैं हम।
दिखता कुछ और, अर्थ कुछ और, नहीं समझे हैं हम।
मां-बेटे-से लगते हैं, जीवनगत समस्याओं में उलझे,
नहीं इनका मददगार, बस बातें करने में उलझे हैं हम।
कब छूटेगी यह नाटकबाजी
देह पर पुस्तक-सज्जा से
पढ़ना नहीं आ जाता।
मांग में कलम सजाने से
लिखना नहीं आ जाता।
कपोत उड़ाने भर से
स्वाधीनता के द्वार
उन्मुक्त नहीं हो जाते।
पहले हाथ की बेड़ियां
तो तोड़।
फिर सोच,
कान के झुमके,
माथे की टिकुली,
नाक की नथनी,
और नर्तन मुद्रा के साथ,
इन फूलों के बीच
कितनी सजती हो तुम।
न समझे हम न समझे तुम
सास-बहू क्यों रूठ रहीं
न हम समझे न तुम।
पीढ़ियों का है अन्तर
न हम पकड़ें न तुम।
इस रिश्ते की खिल्ली उड़ती,
किसका मन आहत होता,
करता है कौन,
न हम समझें न तुम।
शिक्षा बदली, रीति बदली,
न बदले हम-तुम।
कौन किसको क्या समझाये,
न तुम जानों न हम।
रीतियों को हमने बदला,
संस्कारों को हमने बदला,
नया-नया करते-करते
क्या-क्या बदल डाला हमने,
न हम समझे न तुम।
हर रिश्ते में उलझन होती,
हर रिश्ते में कड़वाहट होती,
झगड़े, मान-मनौवल होती,
पर न बात करें,
न जाने क्यों,
हम और तुम।
जहां बात नारी की आती,
बढ़-बढ़कर बातें करते ,
हास-परिहास-उपहास करें,
जी भरकर हम और तुम।
किसकी चाबी किसके हाथ
क्यों और कैसे
न जानें हम और न जानें हो तुम।
सब अपनी मनमर्ज़ी करते,
क्यों, और क्या चुभता है तुमको,
न समझे हैं हम
और क्यों न समझे तुम।
काहे तू इठलाय
हाथों में कमान थाम, नयनों से तू तीर चलाय।
हिरणी-सी आंखें तेरी, बिन्दिया तेरी मन भाय।
प्रत्यंचा खींच, देखती इधर है, निशाना किधर है,
नाटक कंपनी की पोशाक पहन काहे तू इठलाय।
चंगू ने मंगू से पूछा
चंगू ने मंगू से पूछा
ये क्या लेकर आई हो।
मंगू बोली,
इंसानों की दुनिया में रहते हैं।
उनका दाना-पानी खाते हैं।
उनका-सा व्यवहार बना।
हरदम
बुरा-बुरा कहना भी ठीक नहीं है।
अब
दूर-दूर तक वृक्ष नहीं हैं,
कहां बनायें बसेरा।
देखो गर्मी-सर्दी,धूप-पानी से
ये हमें बचायेगा।
पलट कर रख देंगे,
तो बच्चे खेलेंगे
घोंसला यहीं बनायेंगे।
-
चंगू-मंगू दोनों खुश हैं।
कुछ मीठे बोल बोलकर तो देखते
कुछ मीठे बोल
बोलकर तो देखते
हम यूं ही
तुम्हारे लिए
दिल के दरवाज़े खोल देते।
क्या पाया तुमने
यूं हमारा दिल
लहू-लुहान करके।
रिक्त मिला !
कुछ सूखे रक्त कण !
न किसी का नाम
न कोई पहचान !
-
इतना भी न जान पाये हमें
कि हम कोई भी बात
दिल में नहीं रखते थे।
अब, इसमें
हमारा क्या दोष
कि
शब्दों पर तुम्हारी
पकड़ ही न थी।
दोनों अपने-अपने पथ चलें
तुम अपनी राह चलो,
मैं अपनी राह चलूंगी।
.
दोनों अपने-अपने पथ चलें
दोनों अपने-अपने कर्म करें।
होनी-अनहोनी जीवन है,
कल क्या होगा, कौन कहे।
चिन्ता मैं करती हूं,
चिन्ता तुम करते हो।
पीछे मुड़कर न देखो,
अपनी राह बढ़ो।
मैं भी चलती हूं
अपने जीवन-पथ पर,
एक नवजीवन की आस में।
तुम भी जाओ
कर्तव्य निभाने अपने कर्म-पथ पर।
डर कर क्या जीना,
मर कर क्या जीना।
आशाओं में जीते हैं।
आशाओं में रहते हैं।
कल आयेगा ऐसा
साथ चलेगें]
हाथों में हाथ थाम साथ बढ़ेगें।
सागर की गहराईयों सा मन
सागर की गहराईयों सा मन।
सागर के सीने में
अनगिन मणि-रत्नम्
कौन ढूंढ पाया है आज तलक।
.
मन में रहते भाव-संगम
उलझे-उलझे, बिखरे-बिखरे,
कौन समझ पाया है
आज तलक।
.
लहरें आती हैं जाती हैं,
हिचकोले लेती नाव।
जग-जगत् में
मन भागम-भाग किया करता है,
कहां मिलता आराम।
.
खुले नयनों पर वश है अपना,
देखें या न देखें।
पर बन्द नयन
न जाने क्या-क्या दिखला जाते हैं,
अनजाने-अनचाहे भाव सुना जाते हैं,
जिनसे बचना चाहें,
वे सब रूप दिखा जाते हैं।
अगला-पिछला, अच्छा-बुरा
सब हाल बता जाते हैं,
अनचाहे मोड़ों पर खड़ा कर
कभी हंसी देकर,
तो कभी रूलाकर चले जाते हैं।
बुरा लगा शायद आपको
यह कहना
आजकल एक फ़ैशन-सा हो गया है,
कि इंसान विश्वास के लायक नहीं रहा।
.
लेकिन इतना बुरा भी नहीं है इंसान,
वास्तव में,
हम परखने-समझने का
प्रयास ही नहीं करते।
तो कैसे जानेंगे
कि सामने वाला
इंसान है या कुत्ता।
.
बुरा लगा शायद आपको
कि मैं इंसान की
तुलना कुत्ते से कर बैठी।
लेकिन जब सब कहते हैं,
कुत्ता बड़ा वफ़ादार होता है,
इंसान से ज्यादा भरोसेमंद होता है,
तब आपको क्यों बुरा नहीं लगता।
.
आदमी की
अक्सर यह विशेषता है
कह देता है मुंह खोल कर
अच्छा लगे या बुरा।
.
कुत्ता कितना भी पालतू हो,
काटने का डर तो रहता ही है
उससे भी।
और कुत्ता जब-तब
भौंकता रहता है,
हम बुरा नहीं मानते ज़रा भी,
-
इंसान की बोली
अक्सर बहुत कड़वी लगती है,
जब वह
हमारे मन की नहीं बोलता।
जीवन चक्र तो चलता रहता है
जीवन चक्र तो चलता रहता है
अच्छा लगा
तुम्हारा अभियान।
पहले
वंशी की मधुर धुन पर
नेह दिया,
सबको मोहित किया,
प्रेम का संदेश दिया।
.
उपरान्त
शंखनाद किया,
एक उद्घोष, आह्वान,
सत्य पर चलने का,
अन्याय का विरोध,
अपने अधिकारों के लिए
मर मिटने का,
चक्र थाम।
.
और एक संदेश,
जीवन-चक्र तो चलता रहता है,
तू अपना कर्म किये जा
फल तो मिलेगा ही।
चिड़िया ने कहानी सुनाई
अरे,
एक–एक कर बोलो।
थक-हार कर आई हूं,
दाना-पानी लाई हूं,
कहां-कहां से आई हूं।
तुमको रोज़ कहानी चाहिए।
दुनिया की रवानी चाहिए।
अब तुमको क्या बतलाउं मैं
सुन्दर है यह दुनिया
बस लोग बहुत हैं।
रहने को हैं घर बनाते
जैसे हम अपना नीड़ सजाते।
उनके भी बच्चे हैं
छोटे-छोटे
वे भी यूं ही चिन्ता करते,
जब भी घर से बाहर जाते।
प्रेम, नेह , ममता लुटाते।
वे भी अपना कर्त्तव्य निभाते।
रूको, रूको, बतलाती हूं
अन्तर क्या है।
आशाओं, अभिलाषाओं का अन्त नहीं है।
जीने का कोई ढंग नहीं है।
भागम-भाग पड़ी है।
और चाहिए, और चाहिए।
बस यूं ही मार-काट पड़ी है।
घर-संसार भरा-पूरा है,
तो भी लूट-खसोट पड़ी है।
उड़ते हैं, चलते हैं, गिरते हैं,
मरते हैं
पता नहीं क्या क्या करते है।
चाहतें हैं कि बढ़ती जातीं।
बच्चों पर भी डाली जातीं।
बचपन मानों बोझ बना
मां-पिता की इच्छाओं का संसार घना।
अब क्या –क्या बतलाउं मैं।
आज बस इतना ही,
दाना लो और पिओ
जी भरकर विश्राम करो।
बस इतना ही जानो कि
इन तिनकों, पत्तों में,
रूखे-सूखे चुग्गे में,
बूंद-बूंद पानी में,
अपनी इस छोटी सी कहानी में,
जीवन में आनन्द भरा है।
उड़ना तुमको सिखलाती हूं।
बस इतना ही बतलाती हूं।
पंख पसारे
उड़ जाना तुम,
अपनी दुनिया में रहना तुम।
अपना कर्त्तव्य निभाना तुम।
अगली पीढ़ी को
अपने पंखों पर उड़ना सिखलाना तुम।
लौट-लौटकर जीती हूं जीवन
चेहरे की रेखाओं को
नहीं गिनती मैं,
मन के दर्पण में
भाव परखती हूं।
आयु से
अपनी कामनाओं को
नहीं नापती मैं,
अधूरी छूटी कामनाओं को
पूरा करने के लिए
दर्पण में
राह तलाशती हूं मैं।
अपनी वह छाया
परखती हूं,
जिसके सपने देखे थे।
कितने सच्चे थे
कितने अपने थे,
कितने छूट गये
कितने मिट गये
दोहराती हूं मैं।
चेहरे की रेखाओं को
नहीं गिनती मैं,
अपनी आयु से
नहीं डरती मैं।
लौट-लौटकर
जीती हूं जीवन।
जीवन-रस पीती हूं।
क्योंकि
मैं रेखाएं नहीं गिनती,
मैं मरने से नहीं डरती।
मंजी दे जा मेरे भाई
भाई मेरे
मंजी दे जा।
बड़े काम की है यह मंजी।
-
सर्दी के मौसम में,
प्रात होते ही
यह मंजी
धूप में जगह बना लेती है।
सारा दिन
धीरे-धीरे खिसकती रहती है
सूरज के साथ-साथ।
यहीं से
हमारे दिन की शुरूआत होती है,
और यहीं शाम ढलती है।
पूरा परिवार समा जाता है
इस मंजी पर।
कोई पायताने, कोई मुहाने,
कोई बाण पर, कोई तान पर,
कोई नवार पर,
एक-दूसरे की जगह छीनते।
बतंगड़बाजी करते ]
निकलता है पूरा दिन
इसी मंजी पर।
सुबह का नाश्ता
दोपहर की रोटी,
दिन की झपकी,
शाम की चाय,
स्वेटर की बुनाई,
रजाईयों की तरपाई,
कुछ बातचीत, कुछ चुगलाई,
पापड़-बड़ियों की बनाई,
मटर की छिलकाई,
साग की छंटाई,
बच्चों की पढ़ाई,
आस-पड़ोस की सुनवाई।
सब इसी मंजी पर।
-
भाई मेरे, मंजी दे जा।
दे जा मंजी मेरे भाई।
वास्तविकता में नहीं जीते हम
मैं जानती हूं
मेरी सोच कुछ टेढ़ी है।
पर जैसी है
वैसा ही तो लिखूंगी।
* * * *
नारी के
इस तरह के चित्र देखकर
आप सब
नारीत्व के गुण गायेंगे,
ममता, त्याग, तपस्या
की मूर्ति बतायेंगे।
महानता की
सीढ़ी पर चढ़ायेंगे।
बच्चों को गोद में
उठाये चल रही है,
बच्चों को
कष्ट नहीं देना चाहती,
नमन है तेरे साहस को।
अब पीछे
भारत का मानचित्र दिखता है,
तब हम समझायेंगे
कि पूरे भारत की नारियां
ऐसी ही हुआ करती हैं।
अपना सर्वस्व खोकर
बच्चों का पालन-पोषण करती हैं।
फिर हमें याद आ जायेंगी
दुर्गा, सती-सीता, सावित्री,
पद्मिनी, लक्ष्मी बाई।
हमें नहीं याद आयेंगी
कोई महिला वैज्ञानिक, खिलाड़ी
प्रधानमंत्री, राष्ट््रपति,
अथवा कोई न्यायिक अधिकारी
पुलिस, सेना अधिकारी।
समय मिला
तो मीडिया वाले
साक्षात्कार लेकर बतायेंगे
यह नारी
न न, नारी नहीं,
मां है मां ! भारत की मां !
मेहनत-मज़दूरी करके
बच्चों को पाल रही है।
डाक्टर-इंजीनियर बनाना चाहती है।
चाहती है वे पुलिस अफ़सर बनें,
बड़े होकर मां का नाम रोशन करें,
वगैरह, वगैरह।
* * * *
लेकिन इस चित्र में
बस एक बात खलती है।
आंसुओं की धार
और अच्छी बहती,
गर‘ मां के साथ
लड़कियां दिखाते,
तो कविता लिखने में
और ज़्यादा आनन्द पाते।
* * * *
वास्तव में
जीवन की
वास्तविकता में नहीं जीते हम,
बस थोथी भावुकता परोसने में
टसुए बहाने में
आंसू टपकाने में,
मज़ा लेते हैं हम।
* * * *
ओहो !
एक बात तो रह ही गई,
इसके पति, बच्चों के पिता की
कोई ख़बर मिले तो बताना।
प्रणाम तुम्हें करती हूं
हे भगवान!
इतना उंचा मचान।
सारा तेरा जहान।
कैसी तेरी शान ।
हिमगिरि के शिखर पर
बैठा तू महान।
कहते हैं
तू कण-कण में बसता है।
जहां रहो
वहीं तुझमें मन रमता है।
फिर क्यों
इतने उंचे शिखरों पर
धाम बनाया।
दर्शनों के लिए
धरा से गगन तक
इंसान को दौड़ाया।
ठिठुरता है तन।
कांपता है मन।
हिम गिरता है।
शीत में डरता है।
मन में शिवधाम सृजित करती हूं।
यहीं से प्रणाम तुम्हें करती हूं।
दैवीय सौन्दर्य
रंगों की शोखियों से
मन चंचल हुआ।
रक्त वर्ण संग
बासन्तिका,
मानों हवा में लहरें
किलोल कर रहीं।
आंखें अपलक
निहारतीं।
काश!
यहीं,
इसी सौन्दर्य में
ठहर जाये सब।
कहते हैं
क्षणभंगुर है जीवन।
स्वीकार है
यह क्षणभंगुर जीवन,
इस दैवीय सौन्दर्य के साथ।
नेह की चांदनी
स्मृतियों से निकलकर
सच बनने लगी हो।
मन में एक उमंग
भरने लगी हो।
गगन के चांद सी
आभा लेकर आई
जीवन में तुम्हारी मुस्कान,
तुम भाने लगी हो।
अतीत की
धुंधलाती तस्वीरें
रंगों में ढलने लगी हैं।
भूले प्रेम की तरंगे
स्वर-लहरियों में
गुनगुनाने लगी हैं।
नेह की चांदनी
भिगोने लगी है,
धरा-गगन
एक होने लगे हैं।
रंगों के भेद
मिटने लगे हैं।
गहराती रोशनियों में
आशाएं दमकने लगी हैं।
मन में विषधर पाले
विषधर तो है !
लेकिन देखना होगा,
विष कहां है?
आजकल लोग
परिपक्व हो गये हैं,
विष निकाल लिया जाता है,
और इंसान के मुख में
संग्रहीत होता है।
तुम यह समझकर
नाग को मारना,
कुचलना चाहते हो,
कि यही है विषधर
जो तुम्हें काट सकता है।
अब न तो
नाग पकड़ने वाले रह गये,
कि नाग का नृत्य दिखाएंगे,
न नाग पंचमी पर
दुग्ध-दहीं से अभिषेक करने वाले।
मन में विषधर पाले
ढूंढ लो चाहे कितने,
मिल जायेंगे चाहने वाले।
भीड़-तन्त्र
आज दो किस्से हुए।
एक भीड़-तन्त्र स्वतन्त्र हुआ।
मीनारों पर चढ़ा आदमी
आज मस्त हुआ।
28 वर्ष में घुटनों पर चलता बच्चा
युवा हो जाता है,
अपने निर्णय आप लेने वाला।
लेकिन उस भीड़-तन्त्र को
कैसे समझें हम
जो 28 वर्ष पहले दोषी करार दी गई थी।
और आज पता लगा
कितनी निर्दोष थी वह।
हम हतप्रभ से
अभी समझने की कोशिश कर ही रहे थे,
कि ज्ञात हुआ
किसी खेत में
एक मीनार और तोड़ दी
किसी भीड़-तन्त्र ने।
जो एक लाश बनकर लौटी
और आधी रात को जला दी गई।
किसी और भीड़-तन्त्र से बचने के लिए।
28 वर्ष और प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
यह जानने के लिए
कि अपराधी कौन था,
भीड़-तन्त्र तो आते-जाते रहते हैं,
परिणाम कहां दे पाते हैं।
दूध की तरह उफ़नते हैं ,
और बह जाते हैं।
लेकिन कभी-कभी
रौंद भी दिये जाते हैं।
रंगों में बहकता है
यह अनुपम सौन्दर्य
आकर्षित करता है,
एक लम्बी उड़ान के लिए।
रंगों में बहकता है
किसी के प्यार के लिए।
इन्द्रधनुष-सा रूप लेता है
सौन्दर्य के आख्यान के लिए।
तरू की विशालता
संवरती है बहार के लिए।
दूर-दूर तम फैला शून्य
समझाता है एक संवाद के लिए।
परिदृश्य से झांकती रोशनी
विश्वास देती है एक आस के लिए।
रोशनी की परछाईयां भी राह दिखा जाती हैं
अजीब है इंसान का मन।
कभी गहरे सागर पार उतरता है।
कभी
आकाश की उंचाईयों को
नापता है।
ज़िन्दगी में अक्सर
रोशनी की परछाईयां भी
राह दिखा जाती हैं।
ज़रूरी नहीं
कि सीधे-सीधे
किरणों से टकराओ।
फिर सूरज डूबता है,
या चांद चमकता है,
कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
ज़िन्दगी में,
कोई एक पल
तो ऐसा होता है,
जब सागर-तल
और गगन की उंचाईयों का
अन्तर मिट जाता है।
बस!
उस पल को पकड़ना,
और मुट्ठी में बांधना ही
ज़रा कठिन होता है।
*-*-*-*-*-*-*-*-*-
कविता सूद 1.10.2020
चित्र आधारित रचना
यह अनुपम सौन्दर्य
आकर्षित करता है,
एक लम्बी उड़ान के लिए।
रंगों में बहकता है
किसी के प्यार के लिए।
इन्द्रधनुष-सा रूप लेता है
सौन्दर्य के आख्यान के लिए।
तरू की विशालता
संवरती है बहार के लिए।
दूर-दूर तम फैला शून्य
समझाता है एक संवाद के लिए।
परिदृश्य से झांकती रोशनी
विश्वास देती है एक आस के लिए।
ऋण नहीं मांगता दान नहीं मांगता
समय बदला, युग बदले,
ज़मीन से आकाश तक,
चांद तारों को परख आया मानव।
और मैं !! आज भी
उसी खेत में
बंजर ज़मीन पर
अपने उन्हीं बूढ़े दो बैलों के साथ
हल जोतता ताकता हूं आकाश
कब बरसेगा मेह मेरे लिए।
तब धान उगेगा
भरपेट भोजन मिलेगा।
ऋण नहीं मांगता। दान नहीं मांगता।
बस चाहता हूं
अपने परिश्रम की दो रोटी।
नहीं मरना चाहता मैं बेमौत।
अगर यूं ही मरा
तब मेरे नाम पर राजनीति होगी।
सुर्खियों में आयेगा मेरा नाम।
फ़ोटो छपेगी।
मेरी गरीबी और मेरी यह मौत
अनेक लोगों की रोज़ी-रोटी बनेगी।
धन बंटेगा, चर्चाएं होंगी
मेरी उस लाश पर
और भी बहुत कुछ होगा।
और इन सबसे दूर
मेरे घर के लोग
इन्हीं दो बैलों के साथ
उसी बंजर ज़मीन पर
मेरी ही तरह
नज़र गढ़ाए बैठे होंगे आकाश पर
कब बरसेगा मेह
और हमें मिलेगी
अपने परिश्रम की दो रोटी
हां ! ये मैं ही हूं।
प्रेम प्रतीक बनाये मानव
चहक-चहक कर
फुदक-फुदक कर
चल आज नया खेल हम खेंलें।
प्रेम प्रतीक बनाये मानव,
चल हम इस पर इठला कर देखें।
तू क्या देखे टुकुर-टुकुर,
तू क्या देखे इधर-उधर,
कुछ बदला है, कुछ बदलेगा।
कर लो तुम सब स्वीकार अगर,
मौसम बदलेगा,
नव-पल्लव तो आयेंगे।
अभी चलें कहीं और
लौटकर अगले मौसम में,
घर हम यहीं बनायेंगे।
छोड़ी हमने मोह-माया
नहीं करने हमें
किसी के सपने साकार।
न देखें हमारी आयु छोटी
न समझे कोई हमारे भाव।
मां कहती
पढ़ ले, पढ़ ले।
काम कर ले ।
पिता कहते
बढ़ ले बढ़ ले।
सब लगाये बैठे
बड़ी-बड़ी आस।
ले लिया हमने
इस दुनिया से सन्यास।
छोड़ी हमने मोह-माया
हो गई हमारी कृश-काया।
हिमालय पर हम जायेंगे।
वहीं पर धूनी रमायेंगे।
आश्रम वहीं बनायेंगे।
आसन वहीं जमायेंगे।
चेले-चपाटे बनायेंगे।
सेवा खूब करायेंगे।
खीर-पूरी खाएंगें।
लौटकर घर न आयेंगे।
नाम हमारा अमर होगा,
धाम हमारा अमर होगा,
ज्ञान हमारा अमर होगा।
मन बहक-बहक जाये
इन फूलों को देखकर
अकारण ही मन मुस्काए।
न जाने
किस की याद आये।
तब, यहां
गुनगुनाती थी चिड़ियां।
तितलियां पास आकर पूछती थीं,
क्यों मन ही मन शरमाये।
उलझी-उलझी सी डालियां,
मानों गलबहियां डाले,
फूलों की ओट में छुप जायें।
हवाओं का रूख भी
अजीब हुआ करता था,
फूलों संग लाड़ करती
शरारती-सी
महक-महक जाये।
खिली-खिली-सी धूप,
बादलों संग करती अठखेलियां,
न जाने क्या कह जाये।
झरते फूलों को
अंजुरि में समेट
मन बहक-बहक जाये।
लौटा दो मेरे बीते दिन
अब पानी में लहरें
हिलोरें नहीं लेतीं,
एक अजीब-सा
ठहराव दिखता है,
चंचलता मानों प्रश्न करती है,
किश्तियां ठहरी-ठहरी-सी
उदास
किसी प्रिय की आस में।
पर्वत सूने,
ताकते आकाश ,
न सफ़ेदी चमकती है
न हरियाली दमकती हैं।
फूल मुस्कुराते नहीं
भंवरे गुनगुनाते नहीं,
तितलियां
पराग चुनने से डरने लगी हैं।
केसर महकता नहीं,
चिड़िया चहकती नहीं,
इन सबकी यादें
कहीं पीछे छूटने लगी हैं।
जल में चांद का रूप
नहीं निखरता,
सौन्दर्य की तलाश में
आस बिखरने लगी है।
बस दूरियां ही दूरियां,
मन निराश करती हैं।
लौटा दो
मेरे बीते दिन।
तितली को तितली मिली
तितली को तितली मिली,
मुस्कुराहट खिली।
कुछ गीत गुनगुनाएं,
कुछ हंसे, कुछ मुस्कुराएं,
कहीं फूल खिले,
कहीं शाम हंसाए,
रोशनी की चमक,
रंगों की दमक,
हवाओं की लहक,
फूलों की महक,
मन को रिझाए।
सुन्दर है,
सुहानी है ज़िन्दगी।
बस यूं ही खुशनुमा
बितानी है ज़िन्दगी।
इंसान भटकता है जिजीविषा की राह ढूंढता
पत्थरों में चेहरे उकेरते हैं,
और इंसानियत के
चेहरे नकारते हैं।
आया होगा
उंट कभी पहाड़ के नीचे,
मुझे नहीं पता,
हम तो इंसानियत के
चेहरे तलाशते हैं।
इधर
पत्थरों में तराशते लगे हैं
आकृतियां,
तब इंसान को
कहां देख पाते हैं।
शिल्पकार का शिल्प
छूता है आकाश की उंचाईयां,
और इंसान
किसी कीट-सा
एक शहर से दूसरे शहर
भटकता है, दूर-दूर
गर्म रेतीली ज़मीन पर
जिजीविषा की राह ढूंढता ।