बस नेह की धरा चाहिए

यहां पत्थरों में फूल खिल रहे हैं
और वहां
देखो तो
इंसान पत्थर दिल हुए जा रहे हैं।
बस !!
एक बुरी-सी बात कह कर
ले ली न वाह –वाह !!!
अभी तो
पूरी भी नहीं हुई
मेरी बात
और  आपने
पता नहीं क्या-क्या सोच लिया।
कहां हैं इंसान पत्थर दिल
नहीं हैं इंसान पत्थर दिल
दिलों में भी फूल खिलते हैं
फूल क्या पूरे बाग-बगीचे
महकते हैं
बस नेह की धरा चाहिए
अपनेपन की पौध डालिये
विश्चवास के नीर से सींचिए
थोड़ी देख-भाल कीजिए
प्यार-मनुहार से संवारिये

फिर देखिये
पत्थर भी पिघलेंगे
पत्थरों में भी फूल खिलेंगे।
पर इंसान नहीं हैं
पत्थर दिल !!!!
 

कहां गई वह गिद्ध-दृष्टि

बने बनाये मुहावरों के फेर में पड़कर हम यूं ही गिद्धों को नोचने में लगे हैं

पर्यावरणिकों से पूछिये ज़रा, गिद्धों की कमी से हम भी तो मरने लगे हैं

कहां गई हमारी वह गिद्ध-दृष्टि जो अच्छे और बुरे को पहचानती थी

स्वच्छता-अभियान के इस महानायक को हम यूं ही कोसने में लगे हैं

मेरा आधुनिक विकासशील भारत

यह मेरा आधुनिक विकासशील भारत है

जो सड़क पर रोटियां बना रहा है।

यह मेरे देश की

पचास प्रतिशत आबादी है

जो सड़क पर अपनी संतान को

जन्म देती है

उनका लालन-पालन करती है

और इस प्राचीन

सभ्य, सुसंस्कृत देश के लिए

नागरिक तैयार करती है।

यह मेरे देश की वह भावी पीढ़ी है

जिसके लिए

डिजिटल इंडिया की

संकल्पना की जा रही है।

यह मेरे देश के वे नागरिक हैं

जिनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास

के विज्ञापनों पर

अरबों-खरबों रूपये लगाये जा रहे हैं,

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ

अभियान चला रहे हैं।

इन सब की सुरक्षा

और विकास के लिए

धरा से गगन तक के

मार्ग बनाये जा रहे हैं।

क्या यह भारत

चांद और उपग्रहों से नहीं दिखाई देता ?

और भी ग़म हैं मुहब्बत के सिवा

समझ नहीं पाते हैं

कि धरा पर

ये कैसे प्राणी रहते हैं

ज़रा-सा पास-पास बैठे देखा नहीं

कि इश्क, मुहब्ब्त, प्यार के

चर्चे होने लगते हैं।

तोता-मैना

की कहानियां बनाने लगते हैं।

अरे !

क्या तुम्हारे पास नहीं हैं

जिन्दगी के और भी मसले

जिन्हें सुलझाने के लिए

कंधे से कंधा मिलाकर चलना पड़ता है,

सोचना-समझना पड़ता है।

देखो तो,

मौसम बदल रहा है

निकाल रहे हो न तुम

गर्म कपड़े, रजाईयां-कम्बल,

हमें भी तो नया घोंसला बनाना है,

तिनका-तिनका जमाना है,

सर्दी भर के लिए भोजन जुटाना है।

बच्चों को उड़ना सिखाना है,

शिकारियों से बचना बताना है।

अब

हमारी जिन्दगी के सारे फ़लसफ़े तो

तुम्हारी समझ में आने से रहे।

गालिब ने कहा था

ज़माने में

और भी ग़म हैं मुहब्बत के सिवा

और

इश्क ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया

बस इतना ही समझाना है !!!!

कुहुक-कुहुक करती

चीं चीं चीं चीं करती दिन भर, चुपकर दाना पानी लाई हूं, ले खा

निकलेंगे तेरे भी पंख सुनहरे लम्बी कलगी, चल अब खोखर में जा

उड़ना सिखलाउंगी, झूमेंगे फिर डाली-डाली, नीड़ नया बनायेंगे

कुहुक-कुहुक करती, फुदक-फुदक घूमेगी, अब मेरी जान न खा

पीछे से झांकती है दुनिया

कुछ तो घटा होगा

जो यह पत्थर उठे होंगे।

कुछ तो टूटा होगा

जो यह घुटने फूटे होंगे।

कुछ तो मन में गुबार होगा

जो यूं हाथ उठे होंगे।

फिर, कश्मीर हो या कन्याकुमारी

कोई फ़र्क नहीं पड़ता।

वह कौन-सी बात है

जो शब्दों में नहीं ढाली जा सकी,

कलम ने हाथ खींच लिया
और हाथ में पत्थर थमा दिया।

अरे ! अबला-सबला-विमला-कमला

की बात मत करो,

मत करो बात लाज, ममता, नेह की।

एक आवरण में छिपे हैं भाव

कौन समझेगा ?

न यूं ही आरोप-प्रत्यारोप में उलझो।

कहीं, कुछ तो बिखरा होगा।

कुछ तो हुआ होगा ऐसा

कि चुप्पी साधे सब देख रहे हैं

न रोक रहे हैं, न टोक रहे हैं,

कि पीछे से झांकती है दुनिया

न रोकती है, न मदद करती है

न राह दिखाती है

तमाशबीन हैं सब।

कुछ शब्दों के, कुछ नयनों के।

क्यों ? क्यों ?

हां, मैं हूं कुत्ता

एक कुत्ते ने

फेसबुक पर अपना चित्र देखा,

और बड़बड़ाया

इस इंसान को देखो

फेसबुक पर भी मुझे ले आया।

पता नहीं क्या-क्या कह डालेगा मेरे बारे मे।

दुनिया-जहां में तो

नित्यप्रति मेरी कहानियां

गढ़-गढ़कर समय बिताता है।

पता नहीं कितने मुहावरे

बनाये हैं मेरे नाम से,

तरह तरह की बातें बनाता है।

यह तो शिष्ट-सभ्य,

सुशिक्षित बुद्धिजीवियों का मंच है,

मैं अपने मन की पीड़ा

यहां कह भी तो नहीं सकता।

कोई टेढ़ी पूंछ के किस्से सुनाता है,

तो कोई स्वामिभक्ति के गुण गाता है।

कोई तलुवे चाटने की बात करता है

तो कोई बेवजह ही दुत्कारता है।

किसी को मेरे भाग्य से ईर्ष्या होती है

तो कोई अपनी भड़ास निकालने के लिए

मुझे लात मारकर चला जाता है।

और महिलाओं   के हाथ में

मेरा पट्टा देखकर तो

मेरी भांति ही लार टपकाता है।

बची बासी रोटी डालने से

कोई नहीं हिचकिचाता है।

बस,आज तक

एक ही बात समझ नहीं आई

कि मैं कुत्ता हूं, जानता हूं,

फिर मुझे कुत्ता-कुत्ता कहकर क्यों चिड़ाता है।

और हद तो तब हो गई

जब अपनी तुलना मेरे साथ करने लगता है।

बस, तभी मेरा मन

इस इंसान को

काट डालने का करता है।

मन न जाने कहां-कहां-तिरता है

इस एकान्त में

एक अपनापन  है,

फूलों-पत्तियों में

मेरे मन का चिन्तन है।

कुछ हरे-भरे,

कुछ गिरे-पड़े,

कुछ डाली से टूटे,

और कुछ मानों कलियों-से

अधजीवन में ही

अपनेपन से छूटे।

लकड़ी की नैया पर बैठे-बैठे

मन न जाने कहां-कहां-तिरता है।

इस निश्चल, निश्छल जल में

अपनी प्रतिच्छाया ढूंढता है।

कुछ उलटता है, कुछ पलटता है

डूबता-उतरता है,

फिर लौटता है

सहज-सहज

एक मधुर मुस्कान के साथ।

और हम यूं ही लिखने बैठ जाते हैं कविता

आज ताज

स्वयं अपने साये में

बैठा है

डूबते सूरज की चपेट में।

शायद पलट रहा है

अपने ही इतिहास को।

निहारता है

अपनी प्रतिच्छाया,

कब, किसने,

क्यों निर्माण किया था मेरा।

एक कब्र थी, एक कब्रगाह।

प्रदर्शन था

सत्ता का, मोह का, धन का

अधिकार का

और शायद प्रेम का।

अथाह जलराशि में

न जाने क्या-क्या समाहित।

डूबता है मन, डूबते हैं भाव

काल के साथ

बदलते हैं अर्थ।

और हम यूं ही

लिखने बैठ जाते हैं कविता,

प्रेम की, विरह की, श्रृंगार की

और वेदना की।

खुले हैं वातायन

इन गगनचुम्‍बी भवनों में भी

भाव रहते हैं

कुछ सागर से गहरे

कुछ आकाश को छूते

परस्‍पर सधे रहते हैं।

यहां भी उन्‍मुक्‍त हैं द्वार,

खुले हैं वातायन, घूमती हैं हवाएं

यहां भी गूंजती हैं किलकारियां ,

हंसता है सावन

बादल उमड़ते-घुमड़ते हैं

हां, यह हो सकता है

कुछ कम या ज्‍़यादा होता हो,

पर समय की मांग है यह सब

कितनी भी अवहेलना कर लें

किन्‍तु हम मन ही मन

यही चाहते हैं

फिर भी

पता नहीं क्‍यों हम

बस यूं ही डरे-डरे रहते हैं।

बनी-बनाई धारणाएं लिए घूमते हैं

ऐसा क्यों है
कि कुछ बातों के लिए हम
बनी-बनाई धारणाएं लिए घूमते हैं।

बेचारा,
न जाने कैसी बोतल थी हाथ में
और क्या था गिलास में।
बस गिरा देखा
या कहूं
फि़सला देखा
हमने मान लिया कि दारू है।
सोचा नहीं एक बार
कि शायद सामने खड़े
दादाजी की दवा-दारू ही हो।
लीजिए
फिर दारू शब्द आ गया।

और यह भी तो हो सकता है
कि बेटा बेचारा
पिताजी की
बोतल छीनकर भागा हो
अब तो बस कर इस बुढ़ापे में बुढ़उ
क्यों अपनी जान लेने पर तुला है।

बेचारा गिर गया
और बापजी बोले
देखा, आया मजा़ ।
तू उठता रह
मैं नई लेने चला।

बिना बड़े सपनों के जीता हूं

कंधों पर तुम्‍हारे भी

बोझ है मेरे भी।

तुम्‍हारा बोझ  

तुम्‍हारे कल के लिए है

एक डर के साथ ।

मेरा बोझ मेरे आज के लिए है

निडर।

तुम अपनों के, सपनों के

बोझ के तले जी रहे हो।

मैं नि:शंक।

डर का घेरा बुना है

तुम्‍हारे चारों ओर 

इस बोझ को सही से

न उठा पाये तो

कल क्‍या होगा।

कल, आज और कल

मैं नहीं जानता।

बस केवल

आज के लिए जीता हूं

अपनों के लिए जीता हूं।

नहीं जानता कौन ठीक है

कौन नहीं।

पर बिना बड़े सपनों के जीता हूं

इसलिए रोज़

आराम की नींद सोता हूं

यह जिजीविषा की विवशता है

यह जिजीविषा की विवशता है

या त्याग-तपस्या, ज्ञान की सीढ़ी

जीवन से विरक्तता है

अथवा जीवित रहने के लिए

दुर्भाग्य की सीढ़ी।

ज्ञान-ध्यान, धर्म, साधना संस्कृति,

साधना का मार्ग है

अथवा ढकोसलों, अज्ञान, अंधविश्‍वासों को
व्यापती एक पाखंड की पीढ़ी।

या एकाकी जीवन की

विडम्बानाओं को झेलते

भिक्षा-वृत्ति के दंश से आहत

एक निरूपाय पीढ़ी।

लाखों-करोड़ों की मूर्तियां बनाने की जगह

इनके लिए एक रैन-बसेरा बनवा दें

हर मन्दिर के किसी कोने में

इनके लिए भी एक आसन लगवा दें।

कोई न कोई काम तो यह भी कर ही देंगे

वहां कोई काम इनको भी दिलवा दें,

इस आयु में एक सम्मानजनक जीवन जी लें

बस इतनी सी एक आस दिलवा दें।

धरा पर उतर

चांद को छू ले

एक बार,

फिर धरा पर उतर,

पांव रख।

आज मैं साथ तेरे

कल अकेले

तुझे आप ही

सारी सीढि़यां नापनी होंगी।

जीवन में सीढि़यां चढ़

सहज-सहज

चांद आप ही

तेरे लिए

धरा पर उतर आयेगा।

श्याम-पटल पर लिख रहे हम

जीवन में
दो गुणा दो चार होते हैं
किन्तु बहुत बाद में पता लगा
कि दो और दो भी चार ही होते हैं।
समस्या तब आती है
जब हम देखते हैं कि
दो गुणा तीन तो छ: होते ह ैं
किन्तु दो और तीन तो छ: नहीं होते।
और जीवन में
पन्द्र्ह और सोलह
कब और कैसे हो जाते हैं
समझ ही नहीं पाते ।

श्याम-पटल पर लिख रहे हम
श्वेताक्षर,
मिट जाते हैं,
किन्तु जीवन का गुणा-भाग
जीवन का स्याह-सफ़ेद
नहीं मिटता कभी
श्याम-पटल से जीवन-पटल की राहें
सुगम नहीं ,
पर इतनी दुर्गम भी नहीं
जब जीवन की पुस्तक में
साथ हो
एक गुरू का, शिक्षक का ।

श्रम की धरा पर पांव धरते हैं

श्रम की धरा पर पांव धरते हैं

न इन राहों से डरते हैं

दिन-भर मेहनत कर

रात चैन की नींद लेते हैं

कहीं भी कुछ नया

या अटपटा नहीं लगता

यूं ही

जीवन की राहों पर चलते हैं

न बड़े सपनों में जीते हैं

न आहें भरते हैं।

न किसी भ्रम में रहते हैं

न आशाओं का

अनचाहा जाल बुनते हैं।

पर इधर कुछ लोग आने लगे हैं

हमें औरत होने का एहसास

कराने लगे हैं

कुछ अनजाने-से

अनचाहे सपने दिखाने लगे हैं

हमें हमारी मेहनत की

कीमत बताने लगे हैं

दया, दुख, पीड़ा जताने लगे हैं

महल-बावड़ियों के

सपने दिखाने लगे हैं

हमें हमारी औकात बताने लगे हैं

कुछ नारे, कुछ दावे, कुछ वादे

सिखाने लगे हैं

मिलें आपसे तो

मेरी ओर से कहना

एक बार धरा पर पांव रखकर देखो

काम को छोटा या बड़ा न देखकर

बस मेहनत से काम करके देखो

ईमान की रोटी तोड़ना

फिर रात की नींद लेकर देखो