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नये नये की आस में क्यों भटकता है मन
न जाने क्यों इधर-उधर अटकता है मन
जो मिला है उसे तो जी भर जी ले प्यारे
क्यों औरों के सुख देखकर भटकता है मन
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खेल फिर शुरू हो जाता है
कभी कभी, समझ नहीं पाती हूं
कि मैं
आतंकित होकर चिल्लती हूं
या आतंक पैदा करने के लिए।
तुमसे डरकर चिल्लती हूं
या तुम्हें डराने के लिए।
लेकिन इतना जानती हूं
कि मेरे भीतर एक डर है
एक औरत होने का डर।
और यह डर
तुम सबने पैदा किया है
तुम्हारा प्यार, तुम्हारी मनुहार
पराया सा अपनापन
और तुम्हारी फ़टकार
फिर मौके बे मौके
उपेक्षा दर्शाता तुम्हारा तिरस्कार
निरन्तर मुझे डराते रहते हैं।
और तुम , अपने अलग अलग रूपों में
विवश करते रहते हो मुझे
चिल्लाते रहने के लिए।
फिर एक समय आता है
कि थककर मेरी चिल्लाहट
रूदन में बदल जाती है।
और तुम मुझे
पुचकारने लगते हो।
*******
खेल, फिर शुरू हो जाता है।
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मां के आंचल की छांव
प्रकृति का नियम है
विशाल वट वृक्ष तले
नहीं पनपते छोटे पेड़ पौधे।
नहीं पुष्पित पल्लवित होतीं यूं ही लताएं।
और यदि कुछ पनप भी जाये
तो उसे नाम नहीं मिलता।
पहचान नहीं मिलती।
बस, वट वृक्ष की विशालता के सामने
खो जाते हैं सब।
लेकिन, एक ऐसा वट वृक्ष भी है
जिसका अपना कोई नाम नहीं होता
कोई पहचान नहीं होती।
बस एक दीर्घ आंचल होता है
जिसके साये तले, पलती बढ़ती है
एक पूरी की पूरी पीढ़ी,
एक पूरा का पूरा युग।
अपनी जड़ों से पोषण करती है उनका।
नये पौधों का रोपण करती है
अपने आपको खोकर।
उन्हें नाम देती है, पहचान देती है
आंचल की छांव देती है।
पूरी ज़मीन और पूरा आकाश देती है।
युग बदलते हैं, पर नहीं बदलती
नहीं छूटती आंचल की छांव।
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कुछ मीठे बोल बोलकर तो देखते
कुछ मीठे बोल
बोलकर तो देखते
हम यूं ही
तुम्हारे लिए
दिल के दरवाज़े खोल देते।
क्या पाया तुमने
यूं हमारा दिल
लहू-लुहान करके।
रिक्त मिला !
कुछ सूखे रक्त कण !
न किसी का नाम
न कोई पहचान !
-
इतना भी न जान पाये हमें
कि हम कोई भी बात
दिल में नहीं रखते थे।
अब, इसमें
हमारा क्या दोष
कि
शब्दों पर तुम्हारी
पकड़ ही न थी।
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ज्योति प्रज्वलित है
क्यों ढूंढते हो दीप तले अंधेरा जब ज्योति प्रज्वलित है
क्यों देखते हो मुड़कर पीछे, जब सामने प्रशस्त पथ है
जीवन में अमा और पूर्णिमा का आवागमन नियत है
अंधेरे में भी आंख खुली रखें ज़रा, प्रकाश की दमक सरस है
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कुछ छूट गया जीवन में
गांव तक कौन सी राह जाती है कभी देखी नहीं मैंने
वह तरूवर, कुंआ, बाग-बगीचे, पनघट, देखे नहीं मैंने
पीपल की छाया, चौपालों का जमघट, नानी-दादी के किस्से
लगता है कुछ छूट गया जीवन में, जो पाया नहीं मैंने
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असली-नकली की पहचान कहाँ
पीतल में सोने से ज़्यादा चमक आने लगी है
सत्य पर छल-कपट की परत चढ़ने लगी है
असली-नकली की पहचान कहाँ रह गई अब
बस जोड़-तोड़ से अब ज़िन्दगी चलने लगी है।
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आत्मनिर्भर हूं
देशभक्ति बस राजगद्दी पर बैठे लोगों की बपौती नहीं है
तिरंगा बेचती हूं,आत्मनिर्भर हूं,कोई फिरौती नहीं है
भिक्षा नहीं,दान नहीं,दया नहीं,आत्मग्लानि भी नहीं
पीड़ा नहीं कि शिक्षित नहीं हैं,मुस्कानों में कटौती नहीं है
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पैसों से यह दुनिया चलती
पैसों पर यह दुनिया ठहरी, पैसों से यह दुनिया चलती , सब जाने हैं
जीवन का आधार,रोटी का संसार, सामाजिक-व्यवहार, सब माने हैं
छल है, मोह-माया है, चाह नहीं है हमको, कहने को सब कहते हैं पर,
नहीं हाथ की मैल, मेहनत से आयेगी तो फल देगी, इतना तो सब माने हैं
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राधिके सुजान
अपनी तो हाला भी राधिके सुजान होती है
हमारी चाय भी उनके लिए मद्यपान होती है
कहा हमने चलो आज साथ-साथ आनन्द लें बोले
तुम्हारी सात की,हमारी सात सौ की कहां बात होती है
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लाल बहादुर शास्त्री की स्मृति में
राजनीति में,
अक्सर
लोग बात करते हैं,
किसी के
पदचिन्हों पर चलने की।
किसी के विचारों का
अनुसरण करने की।
किसी को
अपनी प्रेरणा बनाने की।
एक सादगी, सीधापन,
सरलता और ईमानदारी!
क्यों रास नहीं आई हमें।
क्यों पूरे वर्ष
याद नहीं आती हमें
उस व्यक्तित्व की,
नाम भूल गये,
काम भूल गये,
उनका हम बलिदान भूल गये।
क्या इतना बदल गये हम!
शायद 2 अक्तूबर को
गांधी जी की
जयन्ती न होती
तो हमें
लाल बहादुर शास्त्री
याद ही न आते।