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नई शुरूआत
जो मैं हूं
वैसा सब मुझे जान नहीं पाते
और जैसा सब मुझे जान पाते हैं
वह मैं बन नहीं पाती।
बार बार का यह टकराव
हर बार हताश कर जाता है मुझे
फिर साथ ही उकसा जाता है
एक नई शुरूआत के लिए।।।।।।।।।।।
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इन्द्रधनुषी रंग बिखेरे
नीली चादर तान कर अम्बर देर तक सोया पाया गया
चंदा-तारे निर्भीक घूमते रहे,प्रकाश-तम कहीं आया-गया
प्रात हुई, भागे चंदा-तारे,रवि ने आहट की,तब उठ बैठा,
इन्द्रधनुषी रंग बिखेरे, देखो तो, फिर मुस्काता पाया गया
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आशाओं का जाल
जो है वह नहीं,
जो नहीं है,
उसकी ही प्रतीक्षा में
विचलित रहता है मन।
शिशिर में ग्रीष्म ,
और ग्रीष्म में चाहिए झड़ी।
जी जलता है आशाओं के जाल में।
देता है जीवन दिल खोलकर,
बस हम पकड़ते ही नहीं।
पकड़ते नहीं जीवन के
लुभावने पलों को ।
एक मायावी संसार में जीते हैं,
और-और की आस में।
और इस और-और की आस में,
जो मिला है
उसे भी खो बैठते हैं।
आत्माओं का मिलन चाहते हैं,
और सम्बन्धों को संवारते नहीं।
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चढ़नी पड़ती हैं सीढ़ियाॅं
कदम-दर-कदम ही चढ़नी पड़ती हैं सीढ़ियाॅं
नीचे से उपर, उपर से नीचे ले आती हैं सीढ़ियाॅं
बस धरा की फ़िसलन का ज़रा ध्यान रखिए सदा
नहीं तो उपर से सीधे नीचे ले आती हैं सीढ़ियाॅं
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जीवन की पुस्तकें
कुछ बुढ़ा-सी गई हैं पुस्तकें।
भीतर-बाहर
बिखरी-बिखरी-सी लगती हैं,
बेतरतीब।
.
किन्तु जैसे
बूढ़ी हड्डियों में
बड़ा दम होता है,
एक वट-वृक्ष की तरह
छत्रछाया रहती है
पूरे परिवार के सुख-दुख पर।
उनकी एक आवाज़ से
हिलती हैं घर की दीवारें,
थरथरा जाते हैं
बुरी नज़र वाले।
देखने में तो लगते हैं
क्षीण काया,
जर्जर होते भवन-से।
किन्तु उनके रहते
द्वार कभी सूना नहीं लगता।
हर दीवार के पीछे होती है
जीवन की पूरी कहानी,
अध्ययन-मनन
और गहन अनुभवों की छाया।
.
जीवन की इन पुस्तकों को
चिनते, सम्हालते, सजाते
और समझते,
जीवन बीत जाता है।
दिखने में बुढ़उ सी लगती हैं,
किन्तु दम-खम इनमें भी होता है।
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कुछ सपने बोले थे कुछ डोले थे
कागज की कश्ती में
कुछ सपने थे
कुछ अपने थे
कुछ सच्चे, कुछ झूठ थे
कुछ सपने बोले थे
कुछ डोले थे
कुछ उलझ गये
कुछ बिखर गये
कुछ को मैंने पानी में छोड़ दिया
कुछ को गठरी में बांध लिया
पानी में कश्ती
इधर-उधर तिरती
हिलती
हिचकोले खाती
कहती जाती
कुछ टूटेंगे
कुछ नये बनेंगे
कुछ संवरेंगे
गठरी खुल जायेगी
बिखर-बिखर जायेगी
डरना मत
फिर नये सपने बुनना
नई नाव खेना
कुछ नया चुनना
बस तिरते रहना
बुनते रहना
बहते रहना
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कहां गई वह गिद्ध-दृष्टि
बने बनाये मुहावरों के फेर में पड़कर हम यूं ही गिद्धों को नोचने में लगे हैं
पर्यावरणिकों से पूछिये ज़रा, गिद्धों की कमी से हम भी तो मरने लगे हैं
कहां गई हमारी वह गिद्ध-दृष्टि जो अच्छे और बुरे को पहचानती थी
स्वच्छता-अभियान के इस महानायक को हम यूं ही कोसने में लगे हैं
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जीवन संघर्ष का दूसरा नाम है
कहते हैं
जीवन संघर्ष का
दूसरा नाम है।
किन्तु जीवन
बस
संघर्ष ही बना रहे
कभी समर या
संग्राम न बनने दें।
कहने को तो
पर्यायवाची शब्द हैं
किन्तु जब
जीवन में उतरते हैं
तब
सबका अर्थ बदल जाता है
इसलिए सावधान रहें।
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कहानी टूटे-बिखरे रिश्तों की
कुछ यादें,
कुछ बातें चुभती हैं
शीशे की किरचों-सी।
रिसता है रक्त, धीरे-धीरे।
दाग छोड़ जाता है।
सुना है मैंने
खुरच कर नमक डालने से
खुल जाते हैं ऐसे घाव।
किरचें छिटक जाती हैं।
अलग-से दिखाई देने लगती हैं।
घाव की मरहम-पट्टी को भूलकर,
हम अक्सर उन किरचों को
समेटने की कोशिश करते हैं।
कि अरे !
इस छोटे-से टुकड़े ने
इतने गहरे घाव कर दिये थे,
इतना बहा था रक्त।
इतना सहा था दर्द।
और फिर अनजाने में
फिर चुभ जाती हैं वे किरचें।
और यह कहानी
जीवन भर दोहराते रहते हैं हम।
शायद यह कहानी
किरचों की नहीं,
टूटे-बिखरे रिश्तों की है ,
या फिर किरचों की
या फिर टूटे-बिखरे रिश्तों की ।।।।
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प्रेम की एक नवीन धारा
हां, प्रेम सच्चा रहे,
हां , प्रेम सच्चा रहे,
हर मुस्कुराहट में
हर आहट में
रूदन में या स्मित में
प्रेम की धारा बही
मन की शुष्क भूमि पर
प्रेम-रस की
एक नवीन छाया पड़ी।
पल-पल मानांे बोलता है
हर पल नवरस घोलता है
एक संगीत गूंजता है
हास की वाणी बोलता है
दूरियां सिमटने लगीं
आहटें मिटने लगीं
सबका मन
प्रेम की बोली बोलता है
दिन-रात का भान न रहा
दिन में भी
चंदा चांदनी बिखेरने लगा
टिमटिमाने लगे तारे
रवि रात में भी घाम देने लगा
इन पलों का एहसास
शब्दातीत होने लगा
बस इतना ही
हां, प्रेम सच्चा रहे
हां, प्रेम सच्चा लगे