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लहरें उठ रहीं
आकाश को छूने चलीं
बादल झुक रहे
लहरों को दुलारते
धरा को पुकारते।
गगन और धरा पर
जल और अनिल
उलझ पड़े
बदरी रूठ-रूठ उमड़ रही
रंग बदरंग हो रहे
कालिमा घिर रही
बवंडर उठ रहे
ताकता रह जाता है मानव।
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जीवन की कहानियां बुलबुलों-सी नहीं होतीं
कहते हैं
जीवन पानी का बुलबुला है।
किन्तु कभी लगा नहीं मुझे,
कि जीवन
कोई छोटी कहानी है,
बुलबुले-सी।
सागर की गहराई से भी
उठते हैं बुलबुले।
और खौलते पानी में भी
बनते हैं बुलबुले।
जीवन में गहराई
और जलन का अनुभव
अद्भुत है,
या तो डूबते हैं,
या जल-भुनकर रह जाते हैं।
जीवन की कहानियां
बुलबुलों-सी नहीं होतीं
बड़े गहरे होते हैं उनके निशान।
वैसे ही जैसे
किसी के पद-चिन्हों पर,
सारी दुनिया
चलना चाहती है।
और किसी के पद-चिन्ह
पानी के बुलबुले से
हवाओं में उड़ जाते हैं,
अनदेखे, अनजाने,
अनपहचाने।
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वक्त की करवटें
जिन्दगी अब गुनगुनाने से डरने लगी है।
सुबह अब रात-सी देखो ढलने लगी है।
वक्त की करवटें अब समझ नहीं आतीं,
उम्र भी तो ढलान पर चलने लगी है।
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जीवन अंधेरे और रोशनियों के बीच
अंधेरे को चीरती
ये झिलमिलाती रोशनियां,
अनायास,
उड़ती हैं
आकाश की ओर।
एक चमक और आकर्षण के साथ,
कुछ नये ध्वन्यात्मक स्वर बिखेरतीं,
फिर लौट आती हैं धरा पर,
धीरे-धीरे सिमटती हैं,
एक चमक के साथ,
कभी-कभी
धमाकेदार आवाज़ के साथ,
फिर अंधेरे में घिर जाती हैं।
जीवन जब
अंधेरे और रोशनियों में उलझता है,
तब चमक भी होती है,
चिंगारियां भी,
कुछ मधुर ध्वनियां भी
और धमाके भी,
आकाश और धरा के बीच
जीवन ऐसे ही चलता है।
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कोयल और कौए दोनों की वाणी मीठी होती है
बड़ी मौसमी,
बड़ी मूडी होती है कोयल।
अपनी कूक सुनाने के लिए
एक मौसम की प्रतीक्षा में
छिपकर बैठी रहती है।
पत्तों के झुरमुट में,
डालियों के बीच।
दूर से आवाज़ देती है
आम के मौसम की प्रतीक्षा में,
बैठी रहती है, लालची सी।
कौन से गीत गाती है
मुझे आज तक समझ नहीं आये।
मुझे तो आनन्द देती है
कौए की कां कां भी।
आवाज़ लगाकर,
कितने अपनेपन से,
अधिकार से आ बैठता है
मुंडेर पर।
बिना किसी नाटक के
आराम से बैठकर
जो मिल जाये
खाकर चल देता है।
हर मौसम में
एक-सा भाव रखता है।
बस कुछ धारणाएं
बनाकर बैठ जाते हैं हम,
नहीं तो, बेचारे पंछी
तो सभी मधुर बोलते हैं,
मौसम की आहट तो
हमारे मन की है
फिर वह बसन्त हो
अथवा पतझड़।
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कहां गये वे दिन बारिश के
कहां गये वे दिन जब बारिश की बातें होती थीं, रिमझिम फुहारों की बातें होती थीं,
मां की डांट खाकर भी, छिप-छिपकर बारिश में भीगने-खेलने की बातें होती थीं
अब तो बारिश के नाम से ही बाढ़, आपदा, भूस्खलन की बातों से मन डरता है,
कहां गये वे दिन जब बारिश में चाट-पकौड़ी खाकर, आनन्द मनाने की बातें होती थीं।
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छोड़ के देख घूंट
कभी शाम ढले घर लौट, पर छोड़ के लालच के दो घूंट
द्वार पर टिकी निहारती दो आंखें हर पल पीती हैं दो घूंट
डरते हैं, रोते भी हैं पर महकते भी हैं तेरी बगिया में फूल।
जिन्दगी सुहानी है हाथ की तेरे बात है बस छोड़ के देख घूंट।
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एक मुस्कान हो जाये
देर से
तुम्हें निहारते निहारते
मेरे जीवन में भी
रंग करवट लेने लगे है।।
इस में
अपनों से
मन की बात कह ली हो
तो चलो
एक उड़ान हो जाये
एक मुस्कान हो जाये
बस यूं
गुमसुम गुमसुम न बैठो।
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भाव तिरंगे के
बालमन भी समझ गये हैं भाव तिरंगे के
केशरी, श्वेत, हरे रंगों के भाव तिरंगे के
गर्व से शीश उठता है, देख तिरंगे को
शांति, सत्य, अहिंसा, प्रेम भाव तिरंगे के
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प्यार इकरार की बात होती है
सुना है
चांदनी रात में
इश्क-मुहब्बत की
बहुत बात होती है।
प्यार भरे दिलों के
इज़हार की बात होती है।
पर हमारे साथ तो
सदा ही बहुत बेइंसाफ़ी होती है।
क्या करें,
जब भी अपने मन में
प्यार-इकरार की बात होती है,
आकाश पर न जाने कहां से
बादलों के
गड़गड़ाने की आवाज़ होती है।
हमारी हर
चांदनी रात, सदा ही
यूं ही बरबाद होती है।