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लहरें उठ रहीं
आकाश को छूने चलीं
बादल झुक रहे
लहरों को दुलारते
धरा को पुकारते।
गगन और धरा पर
जल और अनिल
उलझ पड़े
बदरी रूठ-रूठ उमड़ रही
रंग बदरंग हो रहे
कालिमा घिर रही
बवंडर उठ रहे
ताकता रह जाता है मानव।
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कहते हैं हाथ की है मैल रूपया
जब से आया बजट है भैया, अपनी हो गई ता-ता थैया
जब से सुना बजट है वैरागी होने को मन करता है भैया
मेरा पैसा मुझसे छीनें, ये कैसी सरकार है भैया
देखो-देखो टैक्स बरसते, छाता कहां से लाउं मैया
कहते हैं हाथ की है मैल रूपया, थोड़ी मुझको देना भैया
छल है, मोह-माया है, चाह नहीं, कहने की ही बातें भैया
टैक्स भरो, टैक्स भरो, सुनते-सुनते नींद हमारी टूट गई
मुट्ठी से रिसता है धन, गुल्लक मेरी टूट गई
जब से सुना बजट है भैया, मोह-माया सब छूट गई
सिक्के सारे खन-खन गिरते किसने लूटे पता नहीं
मेरी पूंजी किसने लूटी, कैसे लूटी मुझको यह तो पता नहीं
किसकी जेबें भर गईं, किसकी कट गईं, कोई न जानें भैया
इससे बेहतर योग चला लें, चल मुफ्त की रोटी खाएं भैया
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छोटा हूं पर समझ बड़ी है
छोटा हूं पर समझ बड़ी है।
मुझको छोटा न जानो।
बड़के भैया, छुटके भैया,
बहना मेरी और बाबा
सब अच्छे-अच्छे कपड़े पहनें।
सज-धजकर रोज़ जाते,
मैं और अम्मां घर रह जाते।
जब मैं कहता अम्मां से
मुझको भी अच्छे कपड़े दिलवा दे,
मुझको भी बाहर जाना है।
तब-तब मां से पड़ती डांट
तू अभी छोटा छौना है।
यह छौना क्या होता है,
न बतलाती मां।
न नहलाती, न कपड़े पहनाती,
बस कहती, ठहर-ठहर।
भैया जाते बड़की साईकिल पर
बहना जाती छोटी साईकिल पर।
बाबा के पास कार बड़ी।
मैं भी मांगू ,
मां मुझको घोड़ा ला दे रे।
मां के पीछे-पीछे घूम रहा,
चुनरी पकड़कर झूम रहा।
मां मुझको कपड़े पहना दे,
मां मुझको घोड़ा ला दे।
मां ने मुझको गैया पर बिठलाया।
यह तेरा घोड़ा है, बतलाया।
मां बड़ी सीधी है,
न जाने गैया और घोड़ा क्या होता है।
पर मैंने मां को न समझाया,
न मैंने सच बतलाया,
कि मां यह तो गैया है, मैया है।
संध्या बाबा आयेंगे।
उनको बतलाउंगा,
मां गैया को घोड़ा कहती है,
मां को इतना भी नहीं पता।
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सम्मान से जीना है रूपसी
आंखों की भाषा समझे न, निष्ठुर है यह जग रूपसी
आवरण हटा कर बोल, मन की बात खोल रूपसी
तेरी इस साज-सज्जा से यूं ही भ्रमित हैं सब देख तो
न डर, हो निडर, गर” सम्मान से जीना है रूपसी
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छोटी-छोटी बातों पर
छोटी-छोटी बातों पर
अक्सर यूँ ही
उदासी घिर आती है
जीवन में।
तब मन करता है
कोई सहला दे सर
आँखों में छिपे आँसू पी ले
एक मुस्कुराहट दे जाये।
पर सच में
जीवन में
कहाँ होता है ऐसा।
-
आ गया है
अपने-आपको
आप ही सम्हालना।
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कर्तव्य श्री
दृश्य एकः
श्री जी की पत्नी का निधन हो गया। अपने पीछे दो बच्चे छोड़ गई। माता-पिता बूढ़े थे, बच्चे छोटे-छोटे। बूढ़े-बुढ़िया से अपना शरीर तो संभलता न था बच्चे और घर कहां संभाल पाते। और श्री जी अपनी नौकरी देखें, बच्चे संभाले या बूढे़-बुढ़िया की सेवा करें।
बड़ी समस्या हुई। कभी भूखे पेट सोते, कभी बाहर से गुज़ारा करते। श्री जी से सबकी सहानुभूति थी। कभी सासजी आकर घर संभालती, कभी सालियांजी, कभी भाभियांजी और कभी बहनेंजी। पर आखिर ऐसे कितने दिन चलता। आदमी आप तो कहीं भी मुंह मार ले पर ये बूढ़े-बुढ़िया और बच्चे।
अन्ततः सबने समझाया और श्री जी की भी समझ में आया। रोटी बनाने वाली, बच्चों कोे सम्हालने वाली, घर की देखभाल करने वाली और बूढ़े-बुढ़िया की देखभाल करने वाली कोई तो होनी ही चाहिए। भला, आदमी के वश का कहां है ये सब। वह नौकरी करे या ये सब देखे। सो मज़बूर होकर महीने भर में ही लानी पड़ी।
और इस तरह श्री जी की जिन्दगी अपने ढर्रे पर चल निकली।
‘अथ सर्वशक्तिमान पुरुष’
दृश्य दोः
श्रीमती जी के पति का निधन हो गया। अपने पीछे दो बच्चे छोड़ गये। सास-ससुर बूढ़े थे। बच्चे छोटे-छोटे। श्रीमती जी स्वयं अभी बच्चा-सी दिखतीं। दसवीं की नहीं कि माता-पिता पर भारी हो गई। शहर में लड़का मिल गया सरकारी नौकर, घर ठीक-ठाक-सा। बस झटपट शादी कर दी। अब यह पहाड़ टूट पड़ा। कभी दहलीज न लांघी थी, सिर से पल्लू न हटा था। पर अब कमाकर खिलाने वाला कोई न रहा। बूढ़े-बुढ़िया से अपना शरीर तो संभलता न था, करते-कमाते क्या ? भूखांे मरने की नौबत दिखने लगी।
अब नाते-रिश्तेदार भी क्या करें ? सबका अपना-अपना घर, बाल-बच्चे, काम और नौकरियां, आखिर कौन कितने दिन तक साथ देता। सब एक-दूसरे से पहले खिसक जाना चाहते थे। कहीं ये बूढ़े-बुढ़िया, श्रीमतीजी या बच्चे किसी का पल्लू न पकड़ लें।
अन्ततः श्रीमती जी स्वयं उठीं। पल्लू सिर से उतारकर कमर में कसा। पति के कार्यालय जाकर खड़ी हो गईं नौकरी पाने के लिए।
अभी महीना भी न बीता था कि श्रीमतीजी लगी दफ्तर में कलम चलाने। प्रातः पांच बजे उठकर घर संवारतीं, बूढ़े-बुढ़िया की आवश्यकताएं पूरी करती। बच्चों को स्कूल भेजतीं। खाना-वाना बनाकर दस बजे दफ््तर पहुंच जाती, दिन-भर वहां कलम घिसतीं। शाम को बच्चों का पढ़ातीं। घर-बाहर देखतीं, राशन-पानी जुटाती, दुनियादारी निभातीं। खाती-खिलाती औेर सो जातीं।
और इस तरह श्रीमतीजी की जिन्दगी अपने ढर्रे पर चल निकली।
‘बेचारी कमज़ोर औरत’
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कैसे आया बसन्त
बसन्त यूँ ही नहीं आ जाता
कि वर्ष, तिथि, दिन बदले
और लीजिए
आ गया बसन्त।
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मन के उपवन में
सुमधुर भावों की रिमझिम
कुछ ओस की बूंदें बहकीं
कुछ खुशबू कुछ रंगों के संग
कहीं दूर कोयल कूक उठी।
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छाता लेकर निकले हम
छाता लेकर निकले हम
देखें बारिश में
कितना है दम।
भीगने से
न जाने क्यों
लोगों का निकलता है दम।
छाता कर देंगे बंद
जमकर भीगेंगे हम।
जब लग जायेगी ठण्डी
तब लौटेंगे घर को हम
मोटी मोटी डांट पड़ेगी
फिर हलवा-पूरी,
चाट पकौड़ी जी भर
खायेंगे हम।
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आत्म संतोष क्या जीवन की उपलब्धि है
प्रायः कहा जाता है कि जीवन में आत्म-संतोष ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है, यही परम संतोष है।
किन्तु आत्म संतोष क्या है?
क्या अपनी इच्छाओं, अभिलाषाओं का दमन आत्म-संतोष का मार्ग है?
वास्तविक धरातल पर जीवन जीना जितना कठिन और कटु है उपदेश देना और सुनाना उतना ही सरल।
पर उपदेश कुशल बहुतेरे।
वर्तमान उलझनों भरे जीवन, भागम-भाग की जीवन शैली, प्रतियोगिताओं, एक-दूसरे से आगे निकल जाने की दौड़, प्रतिदिन कुछ नया पाने की चाहत, पुरातनता और नवीनता के बीच उलझते, परम्पराओं, संस्कृति और आधुनिकतम जीवन शैली; तब आत्म संतोष कहाँ और परम संतोष कहाँ! हम अपनी इच्छाओं, आवश्यकताओं को किसी सीमा में नहीं बांध सकते, क्योंकि हमारी इच्छाएँ और सीमाएँ केवल हमारी नहीं होती, हमारे परिवेश से जुड़ी होती हैं।
आत्म संतोष की सीमा क्या है, कौन सा द्वार है जहाँ पहुँच कर हम यह समझ लें कि अब बस। जीवन की समस्त उपलब्धियाँ प्राप्त कर ली हमने। अब परम धाम चलते हैं। क्या ऐसा सम्भव है?
जी नहीं, बनी-बनाई उपदेशात्मक सूक्तियाँ सुना देना, कुछ आप्त वाक्य बोल देना, ग्रंथों से सूक्तियाँ उद्धृत करना और यह कहना कि हममें आत्म संतोष होना चाहिए और वह ही परम संतोष है, किसी के भी जीवन का सबसे बड़ा झूठ और छल है।
हम यह नहीं कह सकते कि आत्म-संतोष मिल गया और हम परम संतोष की अवस्था में पहुँच गये।
मेरे विचार में आत्म संतोष क्षणिक है, सीमित है, इसका विस्तार जीवनगत नहीं है। जैसे हम कहते हैं आज मेरे बच्चे को मेरा बनाया भोजन बहुत पसन्द आया, मुझे आत्म संतोष मिला। अथवा आज मैंने किसी की सहायता की, मन आत्म-संतोष से भर गया, और मैं परम संतोष की अवस्था में पहुँच गई। अथवा मेरे व्यवहार से वे प्रसन्न हुए, मुझे आत्म-संतोष मिला अथवा परम संतोष मिला।
संतोष की अन्तिम स्थिति हमारे जीवन में सम्भव ही नहीं क्योंकि हम सामाजिक, पारिवारिक प्राणी हैं और आत्म संतोष एवं परम संतोष के लिए प्रतिदिन हम प्रयासरत रहते हैं।
सामाजिक जीवन में, समाज में रहते हुए, अपनी इच्छाओं का दमन करना आत्म संतोष नहीं है, आत्म-संतोष है जीवन में उपलब्धि, लक्ष्य की प्राप्ति, सफ़लता। जीवन में आत्म संतोष किसी एक कार्य से नहीं मिलता, प्रति दिन और बार-बार किये जाने वाले कार्यों से मिलता रहता है, यह एक आजीवन प्रक्रिया है।
अतः आत्म संतोष अथवा परम संतोष जीवन की चरम प्राप्ति अथवा उपलब्धि नहीं है, हमारे कार्यों, व्यवहार से उपजा भाव है जिसकी प्राप्ति के लिए हम हर समय प्रयासरत रहते हैं।
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कहां जानती है ज़िन्दगी
कदम-दर-कदम
बढ़ती है ज़िन्दगी।
कभी आकाश
तो कभी पाताल
नापती है ज़िन्दगी।
पंछी-सा
उड़ान भरता है कभी मन,
तो कभी
रंगीनियों में खेलता है।
कब उठेंगे बवंडर
और कब फंसेंगे भंवर में,
यह बात कहां जानती है ज़िन्दगी।
यूं तो
साहस बहुत रखते हैं
आकाश छूने का
किन्तु नहीं जानते
कब धरा पर
ला बिठा देगी ज़िन्दगी।
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मन की बातें न बताएं
पन्नों पर लिखी हैं मन की वे सारी गाथाएं
जो दुनिया तो जाने थी पर मन था छुपाए
पर इन फूलों के अन्तस में हैं वे सारी बातें
न कभी हम उन्हें बताएं न वो हमें जताएं