बाट में
बैठी हूॅं तुम्हारी
उस दिन से ही
जिस दिन
छोड़ गये थे तुम मुझे
चुनरिया, चूड़ा
पहनाकर
मेंहदी, बिंदिया लगाये थे।
बिरहन का यह चोला पहनाकर
घट भरकर लाये थे।
तुम मुझे इस रूप में देखकर
बहुत मन भाये थे।
फिर शहर चले गये तुम।
लौटने का वादा करके
मन सावन था
पतझड़ हो गया।
तुम न आये।
जियरा न लागे तुम बिन
यूॅं ही बैठी तुम्हारी बिरहन
तुम्हारी प्रतीक्षा में
कभी तो लौटकर आओगे तुम।
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दीवारें एक नाम है पूरे जीवन का
दीवारें
एक नाम है
पूरे जीवन का ।
हमारे साथ
जीती हैं पूरा जीवन।
सुख-दुख, अपना-पराया
हंसी-खुशी या आंसू,
सब सहेजती रहती हैं
ये दीवारें।
सब सुनती हैं,
देखती हैं, सहती हैं,
पर कहती नहीं किसी से।
कुछ अर्थहीन रेखाएं
अंगुलियों से उकेरती हूं
इन दीवारों पर।
पर दीवारें
समझती हैं मेरे भाव,
मिट्टी दरकने लगती है।
कभी गीली तो कभी सूखी।
दरकती मिट्टी के साथ
कुछ आकृतियां
रूप लेने लगती हैं।
समझाती हैं मुझे,
सहलाती हैं मेरा सर,
बहते आंसुओं को सोख लेती हैं।
कभी कुछ निशान रह जाते हैं,
लोग समझते हैं,
कोई कलाकृति है मेरी।
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बारिश के मौसम में
बारिश के मौसम में मन देखो, है भीग रहा
तरल-तरल-सा मन-भाव यूं कुछ पूछ रहा
क्यों मन चंचल है आज यहां कौन आया है
कैसे कह दूं किसकी यादों में मन सीज रहा
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अपनेपन की कामना
रेशम की डोरी
कोमल भावों से बंधी
बन्धन नहीं होती,
प्रतिदान की
लालसा भी नहीं होती।
बस होती है तो
एक चाह, एक आशा
अपनेपन की कामना
नेह की धारा।
बस, जुड़े रहें
मन से मन के तार,
दुख-सुख की धार
बहती रहे,
अपनेपन का एहसास
बना रहे।
लेन-देन की न कोई बात हो
न आस हो
बस
रिश्तों का एहसास हो।
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मौत की दस्तक
कितनी
सरल-सहज लगती थी ज़िन्दगी।
खुली हवाओं में सांस लेते,
जैसी भी मिली है
जी रहे थे ज़िन्दगी।
कभी ठहरी-सी,
कभी मदमाती, हंसाती,
छूकर, मस्ती में बहती,
कभी रुलाती,
हवाओं संग
लहराती, गाती, मुस्काती।
.
पर इधर
सांसें थमने लगी हैं।
हवाओं की
कीमत लगने लगी है।
आज हवाओं ने
सांसों की कीमत बताई है।
जिन्दगी पर
पहरा बैठा दिया है हवाओं ने।
मौत की दस्तक सुनाने लगी हैं।
रुकती हैं सांसें, बिंधती हैं सांसें,
कीमत मांगती हैं सांसें।
अपनों की सांसें चलाने के लिए
हवाओं से जूझ रहे हैं अपने।
.
शायद हम ही
बदलती हवाओं का रुख
पहचान नहीं पाये,
इसीलिए हवाएं
आज
हमारी परीक्षा ले रही हैं।
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मेरा नाम श्रमिक है
कहते हैं
पैरों के नीचे
ज़मीन हो
और सिर पर छत
तो ज़िन्दगी
आसान हो जाती है।
किन्तु
जिनके पैरों के नीचे
छत हो
और सिर पर
खुला आसमान
उनका क्या !!!
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कोई फ़र्क नहीं पड़ता
कुछ समस्याओं पर
बात करने से कतराते हैं हम
समझ नहीं पाते
कहाॅं से शुरु करें
और कहाॅं खतम।
जिन्हें बात करनी चाहिए
वे पूल में ठण्डक ले रहे हैं
सुबह-शाम
तरह-तरह के पेय से
गला तर कर रहे हैं।
वादों की, बातों की
उड़ाने भर रहे हैं।
सुरक्षा कवच इतना बड़ा है
कि इन बाल्टियों की खनक
उनके कानों तक पहुंचती नहीं।
बूॅंद-बूॅंद पानी की कमी
उन्हें खलती नहीं।
उनकी योजनाओं में
बड़े-बड़े बांध हैं,
पर्यटन के लिए
लबालब झीलें हैं।
वे नहीं जानते
प्यास क्या होती है
पानी कैसे भरा जाता है
बाल्टियाॅं, पतीले, बर्तन
क्या होते हैं।
भीड़ का अर्थ नहीं जानते वे।
घूॅंट-घूॅंट पानी की कीमत
नहीं समझते वे।
वैसे भी
हर साल आती हैं ये समस्याएॅं
कभी आगे, कभी पीछे
चलती हैं ये समस्याएॅं
मौसम बदलता है
लोग भूल जाते हैं।
फिर कोई नई समस्या आती है
और लोग
फिर वहीं आकर खड़े हो जाते हैं।
सिलसिला चला रहता है
कोई फ़र्क नहीं पड़ता
कौन जीता है
कौन मरता है।
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घर की पूरी खुशियां बसती थी
आंगन में चूल्हा जलता था, आंगन में रोटी पकती थी,
आंगन में सब्ज़ी उगती थी, आंगन में बैठक होती थी
आंगन में कपड़े धुलते थे, आंगन में बर्तन मंजते थे
गज़ भर के आंगन में घर की पूरी खुशियां बसती थी
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भाग-दौड़ में बीतती ज़िन्दगी
कभी अपने भी यहां क्यों अनजाने लगे
जीवन में अकारण बदलाव आने लगे
भाग-दौड़ में कैसे बीतती रही ज़िन्दगी
जी चाहता है अब तो ठहराव आने लगे
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भीड़-तन्त्र
आज दो किस्से हुए।
एक भीड़-तन्त्र स्वतन्त्र हुआ।
मीनारों पर चढ़ा आदमी
आज मस्त हुआ।
28 वर्ष में घुटनों पर चलता बच्चा
युवा हो जाता है,
अपने निर्णय आप लेने वाला।
लेकिन उस भीड़-तन्त्र को
कैसे समझें हम
जो 28 वर्ष पहले दोषी करार दी गई थी।
और आज पता लगा
कितनी निर्दोष थी वह।
हम हतप्रभ से
अभी समझने की कोशिश कर ही रहे थे,
कि ज्ञात हुआ
किसी खेत में
एक मीनार और तोड़ दी
किसी भीड़-तन्त्र ने।
जो एक लाश बनकर लौटी
और आधी रात को जला दी गई।
किसी और भीड़-तन्त्र से बचने के लिए।
28 वर्ष और प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
यह जानने के लिए
कि अपराधी कौन था,
भीड़-तन्त्र तो आते-जाते रहते हैं,
परिणाम कहां दे पाते हैं।
दूध की तरह उफ़नते हैं ,
और बह जाते हैं।
लेकिन कभी-कभी
रौंद भी दिये जाते हैं।
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इंसानियत के मीत
अपने भीतर झांककर इंसानियत को जीत
कर सके तो कर अपनी हैवानियत पर जीत
पूजा, अर्चना, आराधना का अर्थ है बस यही
कर ऐसे कर्म बनें सब इंसानियत के मीत