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मेरी खुशियों को
नज़र न लगे किसी की
धन्यवाद देता हूँ
ईश्वर को
मुझे वनमानुष ही रहने दिया
इंसान न बनाया।
न घर की चिन्ता
न घाट की
न धन की चिन्ता
न आवास की
न जमाखोरी
न धोखाधड़ी, न चोरी
न तेरी न मेरी
न इसकी न उसकी
न इधर की, न उधर की
न बच्चे बोझ
न बच्चों पर बोझ
यूँ ही मदमस्त रहता हूँ
अपनी मर्ज़ी से
खाता-पीता हूँ
मदमस्त सोता हूँ।
ईष्र्या हो रही है न मुझसे
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माणिक मोती ढलते हैं
सीपी में गिरती हैं बूंदे तब माणिक मोती ढलते हैं
नयनों से बहती हैं तब भावों के सागर बनते हैं
अदा इनकी मुस्कानों के संग निराली होती है
भीतर-भीतर रिसती हैं तब गहरे घाव पनपते हैं
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छोड़ के देख घूंट
कभी शाम ढले घर लौट, पर छोड़ के लालच के दो घूंट
द्वार पर टिकी निहारती दो आंखें हर पल पीती हैं दो घूंट
डरते हैं, रोते भी हैं पर महकते भी हैं तेरी बगिया में फूल।
जिन्दगी सुहानी है हाथ की तेरे बात है बस छोड़ के देख घूंट।
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मर रहा है आम आदमी : कहीं अपनों हाथों
हम एक-दूसरे को नहीं जानते
नहीं जानते
किस देश, धर्म के हैं सामने वाले
शायद हम अपनी
या उनकी
धरती को भी नहीं पहचानते।
जंगल, पहाड़, नदियां सब एक-सी,
एक देश से
दूसरे देश में आती-जाती हैं।
पंछी बिना पूछे, बिना जाने
देश-दुनिया बदल लेते हैं।
किसने हमारा क्या लूट लिया
क्या बिगाड़ दिया,
नहीं जानते हम।
जानते हैं तो बस इतना
कि कभी दो देश बसे थे
कुछ जातियां बंटी थीं
कुछ धर्म जन्मे थे
किसी को सत्ता चाहिये थी
किसी को अधिकार।
और वे सब तमाशबीन बनकर
उंचे सिंहासनों पर बैठे हैं
शायद एक साथ,
जहां उन्हें कोई छू भी नहीं सकता।
वे अपने घरों में
बारूद की खेती करते हैं
और उसकी फ़सल
हमारे हाथों में थमा देते हैं।
हमारे घर, खेत, शहर
जंगल बन रहे हैं।
जाने-अनजाने
हम भी उन्हीं फ़सलों की बुआई
अपने घर-आंगन में करने लगे हैं
अपनी मौत का सामान जमा करने लगे हैं
मर रहा है आम आदमी
कहीं अपनों से
और कहीं अपने ही हाथों
कहीं भी, किसी भी रूप में।
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आह! डाकिया!
आह! डाकिया!
खबरें संसार भर की।
डाक तरह-तरह की।
छोटी बात तो
पोस्टकार्ड भेजते थे,
औरों के अन्तर्देशीय पत्रों को
झांक-झांककर देखते थे।
और बन्द लिफ़ाफ़े को
चोरी से पढ़ने के लिए
थूक लगाकर
गीला कर खोलते थे।
जब चोरी की चिट्ठी आनी हो
तो द्वार पर खड़े होकर
चुपचाप डाकिए के हाथ से
पत्र ले लिया करते थे,
इससे पहले कि वह
दरार से चिट्ठी घर में फ़ेंके।
फ़टा पोस्टकार्ड
काली लकीर
किसी अनहोनी से डराते थे
और तार की बात से तो
सब कांपते थे।
सालों-साल सम्हालते थे
संजोते थे स्मृतियों को
अंगुलियों से छूकर
सरासराते थे पत्र
अपनों की लिखावट
आंखों को तरल कर जाती थी
होठों पर मुस्कान खिल आती थी
और चेहरा गुलाल हो जाया करता था
इस सबको छुपाने के लिए
किसी पुस्तक के पन्नों में
गुम हो जाया करते थे।
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दो चाय पिला दो
प्रात की नींद से न अच्छा समय कोई
दो चाय पिला दो आपसे अच्छा न कोई
मोबाईल की टन-टन न हमें जगा पाये
कुम्भकरण से कम न जाने हमें कोई
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मन तो बहकेगा ही
कभी बादलों के बीच से झांकता है चांद।
न जाने किस आस में
तारे उसके आगे-पीछे घूम रहे,
तब रूप बदलने लगा ये चांद।
कुछ रंगीनियां बरसती हैं गगन से]
धरा का मन शोख हो उठा ।
तिरती पल्लवों पर लाज की बूंदे
झुकते हैं और धरा को चूमते हैं।
धरा शर्माई-सी,
आनन्द में
पक्षियों के कलरव से गूंजता है गगन।
अब मन तो बहकेगा ही
अब आप ही बताईये
क्या करें।
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कितना खोया है मैंने
डायरी लिखते समय
मुझसे
अक्सर
बीच−बीच में
एकाध पन्ना
कोरा छूट जाया करता है
और कभी शब्द टूट जाते हैं
बिखरे से, अधूरे।
पता नहीं
कितना खोया है मैंने
और कितना छुपाना चाहा है
अपने–आप से ही
अनकहा–अनलिखा छोड़कर।
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चूड़ियां: रूढ़ि या परम्परा
आज मैंने अपने हाथों की
सारी चूड़ियों उतार दी हैं
और उतार कर सहेज नहीं ली हैं
तोड़ दी हैं
और टुकड़े टुकड़े करके
उनका कण-कण
नाली में बहा दिया हैं।
इसे
कोई बचकानी हरकत न समझ लेना।
वास्तव में मैं डर गई थी।
चूड़ियों की खनक से,
उनकी मधुर आवाज़ से,
और उस आवाज़ के प्रति
तुम्हारे आकर्षण से।
और साथ ही चूड़ियों से जुड़े
शताब्दियों से बन रहे
अनेक मुहावरों और कहावतों से।
मैंने सुना है
चूड़ियों वाले हाथ कमज़ोर हुआ करते हैं।
निर्बलता का प्रतीक हैं ये।
और अबला तो मेरा पर्यायवाची
पहले से ही है।
फिर चूड़ी के कलाई में आते ही
सौर्न्दय और प्रदर्शन प्रमुख हो जाता है
और कर्म उपेक्षित।
और सबसे बड़ा खतरा यह
कि पता नहीं
कब, कौन, कहां,
परिचित-अपरिचित
अपना या पराया
दोस्त या दुश्मन
दुनिया के किसी
जाने या अनजाने कोने में
मर जाये
और तुम सब मिलकर
मेरी चूड़ियां तोड़ने लगो।
फ़िलहाल
मैंने इस खतरे को टाल दिया है।
जानती हूं
कि तुम जब यह सब जानेगे
तो बड़ा बुरा मानोगे।
क्योंकि, बड़ी मधुर लगती है
तुम्हें मेरी चूड़ियों की खनक।
तुम्हारे प्रेम और सौन्दर्य गीतों की
प्रेरणा स्त्रोत हैं ये।
फुलका बेलते समय
चूड़ियों से ध्वनित होते स्वर
तुम्हारे लिए अमर संगीत हैं
और तुम
मोहित हो इस सब पर।
पर मैं यह भी जानती हूं
कि इस सबके पीछे
तुम्हारा वह आदिम पुरूष है
जो स्वयं तो पहुंच जाना चाहता है
चांद के चांद पर।
पर मेरे लिए चाहता है
कि मैं,
रसोईघर में,
चकले बेलने की ताल पर,
तुम्हारे लिए,
संगीत के स्वर सर्जित करती रहूं,
तुम्हारी प्रतीक्षा में,
तुम्हारी प्रशंसा के
दो बोल मात्र सुनने के लिए।
पर मैं तुम्हें बता दूं
कि तुम्हारे भीतर का वह आदिम पुरूष
जीवित है अभी तो हो,
किन्तु,
मेरे भीतर की वह आदिम स्त्री
कब की मर चुकी है।
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ज़िन्दगी मिली है आनन्द लीजिए
ज़िन्दगी मिली है आनन्द लीजिए, मौत की क्यों बात कीजिए
मन में कोई भटकन हो तो आईये हमसे दो बात कीजिए
आंख खोलकर देखिए पग-पग पर खुशियां बिखरी पड़ी हैं
आपके हिस्से की बहुत हैं यहां, बस ज़रा सम्हाल कीजिए
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जब तक चिल्लाओ न, कोई सुनता नहीं
अब शांत रहने से यहां कुछ मिलता नहीं
जब तक चिल्लाओ न, कोई सुनता नहीं
सब गूंगे-बहरे-अंधे अजनबी हो गये हैं यहां
दो की चार न सुनाओ जब तक, काम बनता नहीं