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चाहतों की भूख
जीवन में आगे-पीछे, ऊपर-नीचे तो चलता रहता है
जो पाया, अनायास न जाने कभी कहाँ खो जाता है
बहुत-बहुत की चाह में धक्का-मुक्की में लगे हैं हम
चाहतों की भूख से मानव कहाँ कभी पार पा पाता है।
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मोती बनीं सुन्दर
बूँदों का सागर है या सागर में बूँदें
छल-छल-छलक रहीं मदमाती बूँदें
सीपी में बन्द हुईं मोती बनीं सुन्दर
छू लें तो मानों डरकर भाग रही बूँदें
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नई आस नया विश्वास
एक चक्र घूमता है जीवन का।
उर्वरा धरा
जीवन विकसित करती है।
बीज से अंकुरण होता है
अंकुरण से
पौधे रूप लेने लगते हैं
जीवन की आहट मिलती है।
डालियाँ झूमती हैं
रंगीनियाँ बोलती हैं
गगन देखता है
मन इस आस में जीता है,
कुछ नया मिलेगा
जीवन आगे बढ़ेगा।
मानों धन-धान्य
बिखरता है इन डालियों में,
पुनः धरा में
और अंकुरित होती है नई आस
नया विश्वास।
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सहज भाव से जीना है जीवन
कल क्या था,बीत गया,कुछ रीत गया,छोड़ उन्हें
खट्टी थीं या मीठी थीं या रिसती थीं,अब छोड़ उन्हें
कुछ तो लेख मिटाने होंगे बीते,नया आज लिखने को
सहज भाव से जीना है जीवन,कल की गांठें,खोल उन्हें
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वक्त की करवटें
जिन्दगी अब गुनगुनाने से डरने लगी है।
सुबह अब रात-सी देखो ढलने लगी है।
वक्त की करवटें अब समझ नहीं आतीं,
उम्र भी तो ढलान पर चलने लगी है।
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उठ बालिके उठ बालिके
सुनसान, बियाबान-सा
सब लगता है,
मिट्टी के इस ढेर पर
क्यों बैठी हो बालिके,
कौन तुम्हारा यहाँ
कैसे पहुँची,
कौन बिठा गया।
इतनी विशाल
दीमक की बांबी
डर नहीं लगता तुम्हें।
द्वार बन्द पड़े
बीच में गहरी खाई,
सीढ़ियाँ न राह दिखातीं
उठ बालिके।
उठ बालिके,
चल घर चल
अपने कदम आप बढ़ा
अपनी बात आप उठा।
न कर किसी से आस।
कर अपने पर विश्वास।
उठ बालिके।
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मन में बसन्त खिलता है
जीवन में कुछ खुशियां
बसन्त-सी लगती हैं।
और कुछ बरसात के बाद
मिट्टी से उठती
भीनी-भीनी खुशबू-सी।
बसन्त के आगमन की
सूचना देतीं,
आती-जाती सर्द हवाएं,
झरते पत्तों संग खेलती हैं,
और नव-पल्ल्वों को
सहलाकर दुलारती हैं।
पत्तों पर झूमते हैं
तुषार-कण,
धरती भीगी-भीगी-सी
महकने लगती है।
फूलों का खिलना
मुरझाना और झड़ जाना,
और पुनः कलियों का लौट आना,
तितलियों, भंवरों का गुनगुनाना,
मन में यूं ही
बसन्त खिलता है।
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नौ दिन बीतते ही
वर्ष में
बस दो बार
तेरे अवतरण की
प्रतीक्षा करते हैं
तेरे रूप-गुण की
चिन्ता करते हैं
सजाते हैं तेरा दरबार
तेरे मोहक रूप से
आंखें नम करते हैं
गुणगान करते हैं
तेरी शक्ति, तेरी आभा से
मन शान्त करते हैं।
दुराचारी
प्रवृत्तियों का
दमन करते हैं।
किन्तु
नौ दिन बीतते ही
तिरोहित कर
भूल जाते हैं
और लौट आते हैं
अपने चिर-स्वभाव में।
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कोहरे में दूरियाँ
कोहरे में दूरियाँ दिखती नहीं हैं, नज़दीकियाँ भी तो मिटती नहीं हैं
कब, कहाँ, कौन, कैसे टकरा जाये, दृष्टि भी स्पष्ट टिकती नहीं है
वेग पर नियन्त्रण, भावनाओं पर नज़र रहे, रुक-रुककर चलना ज़रा
यही अवसर मिलता है समझने का, अपनों की पहचान मिटती नहीं है
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वास्वविकता और छल
हमारे आस-घूमते हैं
बहुत सारे शब्द घूमते हैं
जीवन को साधते हैं
सत्य वास्वविकता और छल
जीवन में साथ-साथ चलते हैं
अक्सर पर्यायवाची-से लगते हैं।
जो हमारे हित में हो
वह सत्य और वास्तविकता
कहलाता है
जहां हम छले जायें
चाहे वह जीवन की
वास्तविकता और सत्य ही
क्यों न हो
हमारे लिए छल ही होता है।