कोविड वातावरण के कारण अस्त-व्यस्त मन की बातें

आजकल कुछ लिखने के लिए मन करता है पर लिखना हो नहीं पाता। क्यों? पता नहीं। वैसे भी मैं जल्दी कुछ लिख नहीं पाती और लेखन में भटकाव आ जाता है। इस समय भी कुछ विचार एक साथ उलझे पड़े हैं जैसे कोरोना, विस्थापित होते मज़दूर, हमारी चिकित्सीय व्यवस्थाएं, वेतन एवं वसूली, धार्मिक स्थल, मदिरालय एवं हमारे समाचार वाहक।

इस कारण एक अटपटा, उलझा-सा आलेख।

एक ओर तो कोरोना से घर में बैठे हैं, टी. वी. पर चलने वाले समाचार, समाचार कम, एक तीसरी श्रेणी का धारावाहिक अधिक प्रतीत होते हैं। वास्तविकता से हम कोसों दूर हैं। अब  समाचार पत्र भी मिलने लगे हैं क्योंकि हम रैड ज़ोन से औरेंज ज़ोन में प्रवेश कर गये हैं।

विस्थापित मज़दूरों को पैदल चलते, जिनमें बच्चे, वृद्ध, रोगी सब हैं, सिर पर सामान उठाये, देखकर ही मन भयाक्रातं है। एक सरकार कहती है हम भेज रहे हैं, दूसरी कहती है हमारे पास इनको रखने के लिए जगह नहीं है। किसकी गलती है, कौन क्या कर रहा है, सब उलझा पड़़ा है। कल किसके साथ क्या होगा, पता नहीं। जो कल तक दैनिक मजदूर थे, परिश्रमी थे, आज भिक्षुक बनकर रह गये।

क्या करते थे ये सब। कहां रहते थे, अचानक सड़क पर आ गये, छतविहीन, भोजन रहित। दो-चार नहीं , लाखों की संख्या में। अनेक शहरों में , अनेक राज्यों में। कोई इनकी यूनियन तो थी नहीं कि पूरे देश में वाट्सएप किया और निकल लिए। जिस राज्य में रह रहे थे वहां न छत मिल रही थी न भोजन। जहां भी कार्य कर रहे थे, सब बन्द हो गये। रोज़गार जाने के साथ ही निवास भी चले गये और भोजन की व्यवस्था भी। अब क्या करें? जहां जाना चाहते थे, मार्ग नहीं था, सुविधा नहीं थी, धन नहीं था, व्यवस्था नहीं थी। किन्तु रहें कहां। जब कुछ नहीं मिला तो पैदल ही चल दिये, किसी ने राह में भोजन दे दिया तो ठीक, नहीं तो चले जा रहे हैं मुंह पर कपड़ा लपेटे। सड़कों पर भटक रहे हैं, पुलिस रोक रही है, मत जाओ, लेकिन कहां रहें ये तो वह भी नहीं बता सकती। केवल रास्ते खाली करवा सकती है। किसी की समझ ने यह काम किया कि गाड़ी जिस राह जाती है वही राह वे पैदल चलेंगें तो अपने घर पहुंच जायेंगे, चल दिये रेल लाईन पर पैदल। ज़िन्दगी और मौत के बीच एक रेल लाईन भी होती है, किसे पता था।

ये वे श्रमिक हैं जो वर्षों से अथवा जन्म से ही इस देश के लिए काम कर रहे हैं, छोटे-छोटे कार्यों से लेकर बड़े कामों तक। इनके काम का कोई नाम नहीं है, श्रम का कोई मूल्य नहीं है, कोई महत्व नहीं है, किन्तु इनके श्रम के बिना देश की अर्थव्यवस्था भी नहीं है। देश की अर्थव्यवस्था में इनका कितना प्रतिशत योगदान है कभी किसी अर्थशास्त्री ने गणना की, मुझे नहीं पता।

वे छात्र किस श्रेणी के थे जिन्हें ए सी बसों में भेजा गया, निश्चित रूप से किसी श्रमिक के बच्चे तो रहे नहीं होंगे, नहीं तो वे भी पैदल ही जाते रेल-लाईन पर।

हां, अब मुझे यह पता लगा कि हमारे देश में जन्म लेकर यहां से पढ़लिखकर लोग विदेश जा बसे, वहां अपने श्रम का योगदान देने लगे, उनकी अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने लगे। अपने देश का अमूल्य धन विदेशों में लगाने लगे। पता नहीं कितने वर्षोे से। किन्तु इस समय उन्हें अपने देश की याद आई और वे लौटना चाहते हैं।

उनके लिए विमान सजे, तीन-तारा और पंचतारा होटलों में उनके एकान्तवास की व्यवस्था हो रही है। सरकारी ए सी बसों से उन्हें पहुंचाया जा रहा है।

और देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ रेलवे लाईन पर सो रही है, पैदल चल रही है, एक सरकार कहती है जाना है तो जाओ, दूसरी कहती है मत आओ, तुम्हारे लिए हमारे पास जगह नहीं है।

आज हम अपने-आपको घर के भीतर राशन जमाकर सुरक्षित अनुभव कर रहे हैं। किन्तु कल क्या होगा, पता नहीं।

बात तो पुरानी हो गई किन्तु लिखने का मन आज बना तो क्या करेे, अब बासी रोटी ही सही, कुछ न कुछ पेट तो भरेगा ही।

कुछ चैनल चार-पांच लोगों  को, जिन्हें वे बुद्धिजीवी, पत्रकार, लेखक, राजनीतिज्ञ, समाजसेवी , धार्मिक नेता आदि-आदि कहते हैं, उनके बीच शब्द-युद्ध में मग्न समय काट रहे हैं। इस धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म की कितनी महत्ता है, यह टीवी पर प्रसारित होने वाले वाक्-युद्ध से हम समझ सकते हैं।

कहीं भी समाचारों से ज्ञात नहीं हो पा रहा कि लाखों की फ़ीस लेने वाले निजी अस्पताल इस विकराल समस्या में अपना क्या योगदान दे रहे हैं। ज़रूर दे रहे होंगे, किन्तु जानकारी नहीं मिली। समाचारों में एक भी बार नहीं सुना कि फौर्टीज़, मैक्स, एल-कैमिस्ट जैसे बड़े-बड़े निजी अस्पताल इस समय क्या कर रहे हैं। गली-गली में बैठे निजी चिकित्सालय खोले एक विज़िट के 500 से 1000 तक की फ़ीस लेने वाले चिकित्सक इस समय कहां हैं? उलझी पड़ी हूं मैं।

उधर सुनने में आया है कि पड़ोसी देश सीमा पर गोलीबारी कर रहा है और हमारे पांच सैनिक शहीद हुए हैं। उनकी शहादत की कथा हम पिछले कई दिन से टी. वी. पर देख रहे हैं। समाचार पत्रों में भी कई पृष्ठ उन्हें ही समर्पित हैं।  किन्तु उससे ही अगले दिन बार्डर सिक्योरिटी फ़ोर्स के तीन जवान शहीद हुए उनके बारे में बस इतना ही समाचार मिला। समाचार पत्र में भी एक ही पंक्ति। क्या कैटेगरी अलग होने से शहादत का भाव भी बदल जाता है?

आजकल हम बहुत धार्मिक हो रहे हैं। वैसे तो सदा  से ही हैं किन्तु इधर परेशानी बढ़ गई है।

धार्मिक स्थल, मन्दिर तो नहीं खुले, मदिरालय खोल दिये गये।

कपाट खोलने ज़रूरी हो गये हैं। अब यह सरकार की मर्ज़ी कि कौन  से  कपाट खोले। कौन  से  कपाट खोलने पर सरकार की तिज़ोरी सीधे-सीधे भरेगी, यह सरकार ही समझती है, मेरी आपकी समझ ऐसी कहां।मदिरालय खोलने का निर्णय सरकार का गलत हो सकता है किन्तु मन्दिर खोलने से क्या हो जायेगा मैं यह नहीं समझ पा रही हूं, ऐसे विषयों पर मंद बुद्धि हूं।

क्या किसी ने मांग की थी कि मदिरालय खोले जायें? शायद नहीं ! सरकार की राजस्व की आवश्यकता थी। कोरोना के नाम पर अरबों-खरबों से सरकार की तिजोरी भरी, कितनी, नहीं पता।

किन्तु मदिरा आम आदमी की कितनी आवश्यकता है यह ठेकों के सामने लगी दो-दो किलोमीटर लम्बी लाईन से पता लगा। ओले-बारिश में भी लोग जमे रहे।

मदिरा ठेकों पर बोतलों में मिलती है, हर प्रकार की, जहां से खरीद कर आप उसे घर ले जा सकते हैं। ठेके रात 12 और 2 बजे तक खुले रहते हैं। साथ आहाते होते हैं जहां आप बैठकर पी भी सकते हैं और खा भी सकते हैं। इसके बाद अनेक होटल, रैस्टोरैंट, पब में भी मिलती है, जिसे आपको वहीं खरीद कर, वहीं बैठकर पीना होता है, आप घर नहीं ला सकते, जहां उसका मूल्य कई गुणा बढ़़ जाता है। इसकी होम डिलीवरी भी नहीं है। किसी माॅल में, बिग बाज़ार में अथवा जनरल आपूर्ति की दुकानों पर भी नहीं मिलेगी। लेकिन क्यों, इसी बात को समझने का प्रयास कर रही थी।

मदिरालय के ठेके करोड़ों-करोड़ों में बिकते हैं, बोली लगती है।

यदि मदिरा एवं धूम्रपान सरकार की एवं आम आदमी की इतनी बड़ी आवश्यकता है तो खुले आम क्यों नहीं।

हमारे देश में मदिरा एवं धूम्रपान को लेकर एक अलग-सा दृष्टिकोण है। पीने वालों को बुरा समझा जाता है। मान लिया जाता है कि इनका चरित्र 50 प्रतिशत तो गिरा हुआ ही होगा, परिवार के प्रति आर्थिक अपराधी हैं, अथवा ये बहुत बड़े आदमी हैं। महिलाओं के लिए तो बात करना भी अपराध है। सरकार का कौन सा दृष्टिकोण है समझ से बाहर है। मतलब यह कि जिसने पीनी है, उसके लिए सरकार प्रबन्ध करके ही रहेगी, तो छिपना-छिपाना क्यों, खुलकर पिलाईये, बेचिए, बांटिए।

बस इतना है कि हमारे फ़ेसबुकीय कवियों को एक और  नया विषय मिल चुका है]  मन्दिर या मदिरालय]  वाह ! बढ़िया तुकबन्दी बन गई।।

मैं भी प्रयासरत हूं इस विषय पर एक  अच्‍छी  कविता के   लिए