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वृक्षों को अनावश्यक रूप से काटना अपराध है तो वृक्षों को केवल इस कारण न काटना कि वृक्ष काटना अपराध है, अपराध से भी आगे की सीढ़ी बन जाता है कभी-कभी।
अभी चण्डीगढ़ में एक विद्यालय में 250 वर्ष पुराना वृक्ष गिरा और एक बड़ा हादसा हुआ। पुराने वृक्षों को काटने के लिए अथवा छंटाई के लिए अनुमति प्राप्त करना एक कठिन एवं लम्बा कार्य है। कौन सा वृक्ष कहाँ लगा है, किसके अधीन आता है, किस विभाग की सीमा में है, पहले तो यही तय होने में समय लग जाता है। बरसात में ऐसे बहुत हादसे होते हैं जब पुराने पेड़ गाड़ियों पर गिर जाते हैं। यहाँ तक कि वृक्षों की कटाई-छंटाई के लिए भी अनुमति लेनी पड़ती है। और बहुत बार इस अनुमति में लगने वाला समय हादसों में परिवर्तित हो जाता है। गम्भीर दुर्घटनाएँ हो जाती हैं, अतः जितना आवश्यक वृक्षारोपण है उतना ही आवश्यक पुराने वृक्षों पर दृष्टि रखना भी है।
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त्रिवेणी विधा में रचना २
चेहरे अब अपने ही चेहरे पहचानते नहीं
मोहरे अब चालें चलना जानते ही नहीं
रीति बदल गई है यहां प्रहार करने की
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शुभकामना संदेश
एक समय था
जब हम
हाथों से कार्ड बनाया करते थे
रंगों और मन की
रंगीनियों से सजाया करते थे।
अच्छी-अच्छी शब्दावली चुनकर
मन के भाव बनाया करते थे।
लिफ़ाफ़ों पर
सुन्दर लिखावट से
पता लिखवाया करते थे।
और प्रतीक्षा भी रहती थी
ऐसे ही कार्ड की
मिलेंगे किसी के मन के भावों से
सजे शुभकामना संदेश।
फिर धन्यवाद का पत्र लिखवाया करते थे।
.
समय बदला
बना-बनाया कार्ड आया
मन के रंग
बनाये-बनाये शब्दों के संग
बाज़ार में मिलने लगे
और हम अपने भावों को
छपे कार्ड पर ही समझने लगे।
.
और अब
भाव नहीं
शब्द रह गये
बने-बनाये चित्र
और नाम रह गये।
न कलम है, न कार्ड है
न पत्र है, न तार है
न टिकट है न भार है
न व्यय है
न समय की मार है
पल भर का काम है
सैंकड़ों का आभार है
ज़रा-सी अंगुली चलाईये
एक नहीं,
बीसियों
शुभकामना संदेश पाईये
औपचारिकताएँ निभाईये
काॅपी-पेस्ट कीजिए
एक से संदेश भेजिए
और एक से संदेश पाईये
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जीवन संवर-संवर जाता है
बादलों की ओट से
निरखता है सूरज।
बदलियों को
रँगों से भरता
ताक-झाँक
करता है सूरज।
सूरज से रँग बरसें
हाथों में थामकर
जीवन को रंगीन बनायें।
लहरें रंग-बिरँगी
मानों कोई स्वर-लहरी
जीवन-संगीत संवार लें।
जब मिलकर हाथ बंधते हैं
तब आकाश
हाथों में ठहर-ठहर जाता है।
अंधेरे से निपटते हैं
जीवन संवर-संवर जाता है।
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कहां गई तुम्हारी अम्मां
छोटी-सी छतरी तानी मैंने।
दाना-चुग्गा लाउंगा,
तुमको मैं खिलाउंगा।
मां कहती है,
बारिश में भीगो न,
ठंडी लग जायेगी।
मेरी मां तो
मुझको गुस्सा करती,
कहां गई तुम्हारी अम्मां।
ऐसे कैसे बैठे हो,
अपने घर जाओ,
कम्बल मैं दे जाउंगा।
कल जब धूप खिलेगा
तब आना
साथ-साथ खेलेंगे,
मेरे घर चलना,
मां से मैं मिलवाउंगा।
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अपनी आवाज़ अपने को सुनाती हूं मैं
मन के द्वार
खटखटाती हूं मैं।
अपनी आवाज़
अपने को सुनाती हूं मैं।
द्वार पर बैठी
अपने-आपसे
बतियाती हूं मैं।
इस एकान्त में
अपने अकेलपन को
सहलाती हूं मैं।
द्वार उन्मुक्त हों या बन्द,
कहानी कहां बदलती है जीवन की,
सहेजती हूं कुछ स्मृतियां रंगों में,
कुछ को रंग देती हूं,
आकार देती हूं,
सौन्दर्य और आभास देती हूं।
जीवन का, नवजीवन का
भास देती हूं।
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अपना विकराल रूप दिखाती है ज़िन्दगी
वैकल्पिक अवसर कहां देती है ज़िन्दगी,
जब चाहे कुछ भी छीन लेती है ज़िन्दगी
भाग्य को नहीं मानती मैं, पर फिर भी
अपना विकराल रूप दिखाती है ज़िन्दगी
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मोबाईल: आवश्यकता अथवा व्यसन
हमारी एक प्रवृत्ति हो गई है कि हम बहुत जल्दी किसी भी बात की आलोचना अथवा सराहना करने लगते हैं। कोई एक करता है और फिर सब करने लगते हैं जैसे मानों नम्बर बनाने हों कि किसने कितनी आलोचना कर ली अथवा सराहना कर ली। जैसे हमारी विचार-शक्ति समाप्त हो जाती है और हम निर्भाव बहती धारा के साथ बहने लगते हैं।
मोबाईल!!!
आधुनिकता के इस युग में मोबाईल जीवन की आवश्यकता बन चुका है। चाहे कितनी भी आलोचना कर लें किन्तु वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में इसके महत्व और आवश्यकता को उपेक्षित नहीं किया जा सकता। हाँ, इतना अवश्य है कि आपको मोबाईल किस स्तर का चाहिए और किस कार्य के लिए।
एक समय था जब विद्यालयों में मोबाईल ले जाना प्रतिबन्धित था। फिर समय ऐसा आया कि यही मोबाईल शिक्षा का केन्द्र बन गया। कोराना काल ने आम आदमी के जीवन में इतने परिवर्तन कर दिये कि एक बार तो वह स्वयं ही समझ नहीं पाया कि यह सब क्या हो रहा है। जब तक समझ आती, जीवन की धाराएँ ही बदल चुकीं थीं।
शिक्षा का यह ऐसा काल था, लगभग दो वर्ष का, जिसने शिक्षा, ज्ञान और परीक्षाओं के सारे प्रतिमान ही बदल कर रख दिये। शिक्षा की इस नवीन प्रणाली ने पारिवारिक व्यवस्थाएँ, आवश्यकताएँ, जीवन का ढाँचा ही बदल कर रख दिया। देश के मध्यमवर्गीय परिवारों में रोटी से अधिक महत्वपूर्ण मोबाईल हो उठे। फिर वह पहली कक्षा का विद्यार्थी हो अथवा किसी बड़ी कक्षा का। किसी-किसी परिवार में एक साथ दो-दो लैपटॉप और तीन-चार मोबाईल की आवश्यकता उठ खड़ी हुई अर्थात लाखों का व्यय। आय बन्द, व्यवसाय बन्द, वेतन आधा और मोबाईल ज़रूरी। ऐसे कितने ही परिवार मैंने इस समय में देखे जहाँ माता-पिता के पास एक-एक मोबाईल था और पिता के पास लैपटॉप। अब तीन बच्चे। तीनों की एक समय ऑनलाईन क्लास। माता अध्यापिका। अब एक लैपटॉप और तीन मोबाईल की अनिवार्यता उठ खड़ी हुई। चाहिए भी एंड्राएड अर्थात कम से कम 15-20 हज़ार प्रति। जहाँ मोबाईल पढ़ाई की आवश्यकता बने वहाँ आदत का हिस्सा भी। असीमित ज्ञान का भण्डार। आय-व्यय, बैंकिंग, भुगतान-प्राप्ति का सरल साधन, डिजिटल पेमंट, खेल का माध्यम। बच्चे घर में बैठकर पूरी दुनिया से जुड़ रहे थे, ज्ञान का असीमित भण्डार का पिटारा मानों उनके सामने खुल गया था और वे अचम्भित थे। माता-पिता से जल्दी बच्चे यह सब सीखने लगे। इसमें कहीं भी कुछ भी ग़लत अथवा ठीक नहीं कहा जा सकता था, यह सब समय की आवश्यकता के कारण विकसित हो रहा था, जो धीरे-धीरे हमारे स्वभाव का हिस्सा बनता गया। यदि शिक्षा के क्षेत्र में यह मोबाईल न होता तो बच्चे दो वर्ष पीछे चले जाते और उन्होंने ऑन लाईन जो ज्ञान प्राप्त किया, आधुनिकता से जुड़े, वह एक बहुत बड़ा अभाव रह जाता।
आज का समय ऐसा नहीं है कि बच्चे विद्यालय से निकले और घर। नहीं जी, ट्यूशन, डांस क्लास, स्विमिंग, क्रिकेट और न जाने क्या-क्या। तब माता-पिता और बच्चों के बीच यही एक वार्तालाप का सहारा बनता है
ऐसा नहीं कि कोरोना काल में ही मोबाईल ने हमारे जीवन को प्रभावित किया। इससे पूर्व भी विद्यालयों में सीनियर कक्षाओं में प्रोजेक्ट वर्क, आर्ट वर्क और अनेक गृह कार्य ऐसे दिये जाते थे जो गूगल देवता की सहायता से ही किये जाते थे। कक्षाओं में स्मार्ट बोर्ड और अनेक तकनीक प्रयोग में पहले से ही चल रहे थे, बस मोबाईल की इसमें वृद्धि हुई।
किसी सीमा तक यह बात ठीक है कि जब किसी वस्तु का हम अत्याधिक प्रयोग करने लगत हैं तब आवश्यकता से बढ़कर वह हमारी आदत बन जाती है, हमें उसकी लत लग जाती है और जीवन पर दुष्प्रभाव पड़ने लगता है।
निश्चित रूप से बच्चे आज पक्षियों की भांति स्वतन्त्र पंछी नहीं रह गये हैं। इसका एक कारण मोबाईल हो सकता है किन्तु सारा दोष केवल मोबाईल को नहीं दिया जा सकता। आधुनिकतम जीवन शैली, शिक्षा एवं ज्ञान का माध्यम, बच्चे तो क्या हमारी पीढ़ी भी इसमें उलझी बैठी है। अब यह माता-पिता का कर्तव्य है और शिक्षा-संस्थानों का भी कि बच्चों को मोबाईल के उचित प्रयोग एवं सीमित प्रयोग के लिए प्रेरित करें न कि उन्हें आरोपित।
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निशा पड़ाव पल भर
निशा !
दिन भर के थके कदमों का
पड़ाव पल भर।
रोशनी से शुरू होकर
रोशनी तक का सफ़र।
सूर्य की उष्मा से राहत
पल भर।
चांद की शीतलता का
मधुर हास।
चमकते तारों से बंधी आस।
-अंधेरा छंटेगा।
फिर सुबह होगी।
नई सुबह।
यह सफ़र जारी रहेगा।
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दीवारें एक नाम है पूरे जीवन का
दीवारें
एक नाम है
पूरे जीवन का ।
हमारे साथ
जीती हैं पूरा जीवन।
सुख-दुख, अपना-पराया
हंसी-खुशी या आंसू,
सब सहेजती रहती हैं
ये दीवारें।
सब सुनती हैं,
देखती हैं, सहती हैं,
पर कहती नहीं किसी से।
कुछ अर्थहीन रेखाएं
अंगुलियों से उकेरती हूं
इन दीवारों पर।
पर दीवारें
समझती हैं मेरे भाव,
मिट्टी दरकने लगती है।
कभी गीली तो कभी सूखी।
दरकती मिट्टी के साथ
कुछ आकृतियां
रूप लेने लगती हैं।
समझाती हैं मुझे,
सहलाती हैं मेरा सर,
बहते आंसुओं को सोख लेती हैं।
कभी कुछ निशान रह जाते हैं,
लोग समझते हैं,
कोई कलाकृति है मेरी।
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ठहरा-सा लगता है जीवन
नदिया की धाराओं में टकराव नहीं है
हवाओं के रुख वह में झनकार नहीं है
ठहरा-ठहरा-सा लगता है अब जीवन
जब मन में ही अब कोई भाव नहीं हैं