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जीवन और समय कब क्या रूप दिखा दे, पता नहीं होता। परिवार पर एक साथ कई समस्याएं आईं।
पिछले 15 दिन बहुत कठिन थे। मेरे पति को 16 तारीख को सांय अनायास छाती में और बाजू में दर्द हुआ। पहले तो उन्होंने बताया नहीं, जब कष्ट बढ़ा तो बताया और कहने लगे कि शायद कंधे की कोई नस खिंच गई है, जिसके कारण यह दर्द हो रहा है। हमने अपने स्थानीय चिकित्सक से सम्पर्क किया। उन्होंने तत्काल ई. सी. जी. करवाने के लिए कहा। पांच बजे के बाद सब सैंटर बन्द मिले। तो हम सीधे अस्पताल ही भागे। एलकैमिस्ट पंचकूला आपातकालीन में पहुंचे तो पता लगा दिल का दौरा पड़ा है, जिसका हमें एहसास हो चुका था। तीनों arteries में blockage थी, किन्तु जिसके कारण हृदयाघात हुआ था उसमें दो स्टंट डले। शेष चिकित्सा लगभग 6 माह बाद होगी। तीन दिन ICU में काटकर 19 को घर लौटे। स्वास्थ्य सुधर रहा है। इन शहरों का यही लाभ है कि तत्काल चिकित्सा उपलब्ध हो जाती है।
उधर कसौली में मेरे देवर का दिल का आपरेशन 2000 में हुआ था, तब से कोई दवाई नियमित चल रही थी। पिछले दिनों भूलवश उस दवाई का डबल डोज़ ले लिया, वह भी चार-पांच दिन। रक्त स्त्राव होने लगा, और शिमला ICU में भर्ती रहे दस दिन। अभी भी अस्पताल में ही हैं, गम्भीर अवस्था में।
पंचकूला में मेरी भतीजी का संयुक्त परिवार है, 11 सदस्यों में से 5 सदस्य कोरोना पाजिटिव हुए और उनके अतिरिक्त घर में रहने वाला नौकर भी। जो ठीक थे वे 5 बच्चे और एक महिला सदस्य। जबकि पाजिटिव होने वाले दो सदस्य वैक्सीनेशन की पहली डोज़ ले चुके थे । किसी का ब्लड प्रैशर लो तो किसी का आक्सीजन लैवल कम। अब सब ठीक हो रहे हैं, बस यही अच्छी बात है।
और मैं ! मेरे कंधे स्टिफ होने लगे हैं। बेटा कहता है गेम कम खेला करो, उसी का दुष्परिणाम है।
जीवन ऐसे ही चलता रहता है और चलता रहेगा।
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कौन जाने सच
सुना है
बड़ी मछली
छोटी मछली को
खा जाती है।
शायद, या नहीं,
या पता नहीं।
यह मुहावरा है,
अथवा वास्तविकता,
कौन जाने।
क्योंकि, जब भी बात उठती है
तो, हम
मनुष्यों के सन्दर्भ में ही उठती है।
मछलियों को तो
यूं ही बदनाम कर बैठे हैं हम।
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उड़ती चिड़िया के पर गिन लिया करते हैं
सुना है कुछ लोग
उड़ती चिड़िया के
पर गिन लिया करते हैं।
कौन हैं वे लोग
जो उड़ती चिड़िया के
पर गिन लिया करते हैं।
क्या वे
कोई और काम भी करते हैं,
अथवा बस,
उड़ती चिड़िया के
पर ही गिनते रहते हैं।
कौन उड़ा रहा है चिड़िया ?
कितनी चिड़िया उड़ रही हैं ?
जिनके पर गिने जा रहे हैं ?
पहले पकड़ते हैं,
पिंजरे में
पालन-पोषण करते हैं।
लाड़-प्यार जताते हैं।
कुछ पर काट देते हैं,
कि चिड़िया उड़ न जाये।
फिर एक दिन उकता जाते हैं,
और छोड़ देते हैं उसे
आधी-अधूरी उड़ानों के लिए।
फिर अपना अनुभव बखानते हैं,
हम तो उड़ती चिड़िया के
पर गिन लेते हैं।
सच में ही
बहुत गुणी हैं ये लोग।
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कैसी कैसी है ज़िन्दगी
कभी-कभी ठहरी-सी लगती है, भागती-दौड़ती ज़िन्दगी ।
कभी-कभी हवाएँ महकी-सी लगती हैं, सुहानी ज़िन्दगी।
गरजते हैं बादल, कड़कती हैं बिजलियाँ, मन यूँ ही डरता है,
कभी-कभी पतझड़-सी लगती है, मायूस डराती ज़िन्दगी।
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एक सुन्दर सी कृति बनाई मैंने
उपवन में कुछ पत्ते संग टहनी, कुछ फूल झरे थे।
मैं चुन लाई, देखो कितने सुन्दर हैं ये, गिरे पड़े थे।
न डाली पर जायेंगे न गुलदान में अब ये सजेंगे।
एक सुन्दर सी कृति बनाई मैंने, सब देख रहे थे।
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ज़िन्दगी एक क्षणिका भी न बन पाई
किसी ने कहा
ज़िन्दगी पर
एक उपन्यास लिखो।
सालों-साल का
हिसाब-बेहिसाब लिखो।
स्मृतियों को
उलटने-पलटने लगी।
समेटने लगी
सालों, महीनों, दिनों
और घंटों का,
पल-पल का गणित।
बांधने लगी पृष्ठ दर पृष्ठ।
न जाने कितने झंझावात,
कितने विप्लव,
कितने भूचाल बिखर गये।
कहीं आंसू, कहीं हर्ष,
कहीं आहों के,
सुख-दुख के सागर उफ़न गये।
न जाने
कितने दिन-महीने, साल लग गये
कथाओं का समेटने में।
और जब
अन्तिम रूप देने का समय आया
तो देखा
एक क्षणिका भी न बन पाई।
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मानवता को मुंडेर पर रख
आस्था, विश्वास,श्रद्धा को हम निर्जीव पत्थरों पर लुटा रहे हैं
अधिकारों के नाम पर जाति-धर्म,आरक्षण का विष पिला रहे हैं
अपने ही घरों में विष-बेल बीज ली है,जानते ही नहीं हम
मानवता को मुंडेर पर रख,अपना घर फूंक ताली बजा रहे हैं
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मन ठोकर खाता
चलते-चलते मन ठोकर खाता
कदम रुकते, मन सहम जाता
भावों की नदिया में घाव हुए
समझ नहीं, मन का किससे नाता
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मान-सम्मान की आस में
मान-सम्मान की आस में सौ-सौ ग्रंथ लिखकर हम बन-बैठे “कविगण”
स्वयं मंच-सज्जा कर, सौ-सौ बार, करवा रहे इनका नित्य-प्रति विमोचन
नेता हो या अभिनेता, ज्ञानी हो या अज्ञानी कोई फ़र्क नहीं पड़ता
छायाचित्र छप जायें, समाचारों में नाम देखने को तरसें हमरे लोचन
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त्रिवेणी विधा में रचना
दर्पण में अपने ही चेहरे को देखकर मुस्कुरा देती हूं
फिर उसी मुस्कान को तुम्हारे चेहरे पर लगा देती हूं
पर तुम कहां समझते हो मैंने क्या कहा है तुमसे
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कहां समझ पाता है कोई
न आकाश की समझ
न धरा की,
अक्सर नहीं दिखाई देता
किनारा कोई।
हर साल,बार-बार,
जिन्दगी यूं भी तिरती है,
कहां समझ पाता है कोई।
सुना है दुनिया बहुत बड़ी है,
देखते हैं, पानी पर रेंगती
हमारी इस दुनिया को,
कहां मिल पाता है किनारा कोई।
सुना है,
आकाश से निहारते हैं हमें,
अट्टालिकाओं से जांचते हैं
इस जल- प्रलय को।
जब पानी उतर जाता है
तब बताता है कोई।
विमानों में उड़ते
देख लेते हैं गहराई तक
कितने डूबे, कितने तिर रहे,
फिर वहीं से घोषणाएं करते हैं
नहीं मरेगा
भूखा या डूबकर कोई।
पानी में रहकर
तरसते हैं दो घूंट पानी के लिए,
कब तक
हमारा तमाशा बनाएगा हर कोई।
अब न दिखाना किसी घर का सपना,
न फेंकना आकाश से
रोटियों के टुकड़े,
जी रहे हैं, अपने हाल में
आप ही जी लेंगे हम
न दिखाना अब
दया हम पर आप में से कोई।