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एक छोटा-सी हास्य रचना
एक पुरानी और बड़ी आई. टी. कम्पनी। वे दोनों मित्र घर से दूर, एक इस एक अच्छी आई. टी. कम्पनी में कार्यरत । वैसे तो शनिवार और रविवार को छुट्टी रहती थी, किन्तु नया-नया शौक, पैसे कमाने की ललक, और सोचते घर रहकर भी क्या करेंगे, चलो आफ़िस चलते हैं। पहली नौकरी थी । शौक भी था कि काम ज्यादा करेंगे तो आगे बढ़ेंगें। और यदि कोई कर्मचारी ज्.यादा काम करना चाहता है तो प्रबन्धक क्यों मना करेंगे। आईये, आपको कोई अतिरिक्त भत्ता तो देना नहीं था।
सो अब शनिवार और रविवार को प्रायः आफ़िस खुलता। पहले ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि कि छुट्टी के दिन कभी आफिस खुलता हो। फिर जब कर्मचारी आयेंगे, तो सहायक कर्मचारियों को भी आना पड़ता है, उन्हें चाहे ओवर-टाईम मिलता हो, किन्तु छुट्टी तो खराब हो जाती है।
नई भर्तियों के बाद अब कुछ ज्यादा ही होने लगा था।
एक दिन उनके बॉस ने उन दोनों नये कर्मचारियों को बुलाया और कहा कि तुम्हारे विरूद्ध शिकायत आई है कि तुम दोनों बहुत निकम्मे हो।
दोनों घबरा गये कि क्या हुआ।
बॉस ने कहा कि चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों ने शिकायत की है कि कैसे निकम्मे नये कर्मचारी भर्ती किये हैं, कि छुट्टी के दिन भी काम करने आना पड़ता है।
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मन को किसी गह्वर में रखना है मुझे
कल तक
एक घर मेरा था।
आज अचानक
सब बदल गया।
-
यह रूप-श्रृंगार
यह स्वर्ण-माल
मेरे
अगले जीवन का आधार
एक नया परिवार।
-
मात्र, एक पल लगा
मुझे एक से
दूसरे में बदलने में।
नाम-धाम सब सिमटने में।
-
नये सम्बन्ध, नये भाव
नये कर्तव्य और
पता नहीं कितने अधिकार।
सुना करती थी
बचपन से
पराया धन ! पराया धन !!
आज समझ पाई।
-
यह एक पल
न काम आती है
शिक्षा, न ज्ञान, न अभिमान
बस जीवन-परिवर्तन।
नहीं जानती
क्या मिला, क्या पाया, क्या खोया।
-
एक परिवार था मेरे पास
उसे मैं अपने जीवन के
पच्चीस वर्षों में न समझ पाई
किन्तु
एक नये परिवार को समझने के लिए
मुझे नहीं मिलेंगे
पच्चीस मिनट भी।
शायद पच्चीस पल में ही
मुझे सम्हालने होंगे
सारे नये सम्बन्ध
नये भाव, नया घर, नये लोग,
नई आशाएँ, आकांक्षाएँ।
-
मस्तिष्क एक डायरी बन गया।
-
पिछला क्या-क्या भूल जाना है मुझे
तिलांजलि देनी है
कौन-से सम्बन्धों को
और नया
क्या-क्या याद रखना है मुझे,
कितने कदम पीछे हटना है मुझे
कितने कदम आगे बढ़ना है मुझे।
ड्योढ़ी से अन्दर कदम रखते ही
ज्ञात हो जाना चाहिए सब मुझे।
रिश्तों के नये ताने-बाने को
संवारना है मुझे
सबकी भूख-प्यास का हिसाब
रखना है मुझे
अपने मन को किसी गह्वर में रखना है मुझे।
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खिलता है कुकुरमुत्ता
सुना है मैंने
बादलों की गड़गड़ाहट से
बिजली कड़कने पर
पहाड़ों में
खिलता है कुकुरमुत्ता।
प्रकृति को निरखना
अच्छा लगता है,
सौन्दर्य बांटती है
रंग सजाती है,
मन मुदित करती है,
पर पता नहीं क्यों
तुम्हें
अक्सर पसन्द नहीं करते लोग।
अपने-आप से प्रकट होना,
बढ़ना और बढ़ते जाना,
जीवन्तता,
कितनी कठिन होती है,
यह समझते नहीं
तुम्हें देखकर लोग।
अपने स्वार्थ-हित
नाम बदल-बदलकर
पुकारते हैं तुम्हें।
इस भय से
कि पता नहीं तुमसे
अमृत मिलेगा या विष।
कभी अपने भीतर भी
झांककर देख रे इंसान,
कि पता नहीं तुमसे
अमृत मिलेगा या विष।
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दौड़ बनकर रह गई है जिन्दगी
शून्य से शतक तक की दौड़ बनकर रह गई है जिन्दगी
इससे आगे और क्या इस सोच में बह रही है जिन्दगी
और–और मिलने की चाह में डर डर कर जीते हैं हम
एक से निन्यानवे तक भी आनन्द ले, कह रही है जिन्दगी
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एक अजीब भटकाव है मेरी सोच में
एक अजीब भटकाव है मेरी सोच में
मेरे दिमाग में।
आपसे आज साझा करना चाहती हूं।
असमंजस में रहती हूं।
बात कुछ और चल रही होती है
और मैं कुछ और अर्थ निकाल लेती हूं।
अब आज की ही बात लीजिए।
नवरात्रों में
मां की चुनरी की बात हो रही थी
और मुझे होलिका की याद हो आई।
अब आप इसे मेरे दिमाग की भटकन ही तो कहेंगे।
लेकिन मैं क्या कर सकती हूं।
जब भी चुनरी की बात उठती है
मुझे होलिका जलती हुई दिखाई देती है,
और दिखाई देती है उसकी उड़ती हुई चुनरी।
कथाओं में पढ़ा है
उसके पास एक वरदान की चुनरी थी ।
शायद वैसी ही कोई चुनरी
जो हम कन्याओं का पूजन करके
उन्हें उढ़ाते हैं और आशीष देते हैं।
किन्तु कभी देखा है आपने
कि इन कन्याओं की चुनरी कब, कहां
और कैसे कैसे उड़ जाती है।
शायद नहीं।
क्योंकि ये सब किस्से कहानियां
इतने आम हो चुके हैं
कि हमें इसमें कुछ भी अनहोनी नहीं लगती।
देखिए, मैं फिर भटक गई बात से
और आपने रोका नहीं मुझे।
बात तो माता की चुनरी और
होलिका की चुनरी की कर रही थी
और मैं कहां कन्या पूजन की बात कर बैठी।
फिर लौटती हूं अपनी बात की आेर,
पता नहीं होलिका मां थी या नहीं।
किन्तु एक भाई की बहिन तो थी ही
और एक कन्या
जिसने भाई की आज्ञा का पालन किया था।
उसके पास एक वरदानमयी चुनरी थी।
और था एक अत्याचारी भाई।
शायद वह जानती भी नहीं थी
भाई के अत्याचारों, अन्याय को
अथवा प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति को।
और अपने वरदान या श्राप को।
लेकिन उसने एक बुरी औरत बनकर
बुरे भाई की आज्ञा का पालन किया।
अग्नि देवता आगे आये थे
प्रह्लाद की रक्षा के लिए।
किन्तु होलिका की चुनरी न बचा पाये,
और होलिका जल मरी।
वैसे भी चुनरी की आेर
किसी का ध्यान ही कहां जाता है
हर पल तो उड़ रही हैं चुनरियां।
और हम !
हमारे लिए एक पर्व हो जाता है
एक औरत जलती है
उसकी चुनरी उड़ती है और हम
आग जलाकर खुशियां मनाते हैं।
देखिए, मैं फिर भटक गई बात से
और आपने रोका नहीं मुझे।
अब आग तो बस आग होती है
जलाती है
और जिसे बचाना हो बचा भी लेती है।
अब देखिए न, अग्नि देव ले आये थे
सीता को ले आये थे सुरक्षित बाहर,
पवित्र बताया था उसे।
और राम ने अपनाया था।
किन्तु कहां बच पाई थी उसकी भी चुनरी
घर से बेघर हुई थी अपमानित होकर
फिर मांगा गया था उससे पवित्रता का प्रमाण।
और वह समा गई थी धरा में
एक आग लिए।
कहते हैं धरा के भीतर भी आग है।
आग मेरे भीतर भी धधकती है।
देखिए, मैं फिर भटक गई बात से
और आपने रोका नहीं मुझे।
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कैसे मना रहे हम अपने राष्ट्रीय दिवस
हमें स्वतन्त्र हुए
इतने
या कितने वर्ष हो गये,
इस बार हम
कौन सा
गणतन्त्र दिवस
या स्वाधीनता दिवस
मनाने जा रहे हैं,
गणना करने लगे हैं हम।
उत्सवधर्मी तो हम हैं ही।
सजने-संवरने में लगे हैं हम।
गली-गली नेता खड़े हैं,
अपने-अपने मोर्चे पर अड़े हैं,
इस बार कौन ध्वज फ़हरायेगा
चर्चा चल रही है।
स्वाधीनता सेनानियों को
आज हम इसलिए
स्मरण नहीं कर रहे
कि उन्हें नमन करें,
हम उन्हें जाति, राज्य और
धर्म पर बांध कर नाप रहे।
सड़कों पर चीखें बिखरी हैं,
सुनाई नहीं देती हमें।
सैंकड़ों जाति, धर्म वर्ग बताकर
कहते हैं
हम एक हैं, हम एक हैं।
किसको सम्मान मिला,
किसे नहीं
इस बात पर लड़-मर रहे।
मूर्तियों में
इनके बलिदानों को बांध रहे।
पर उनसे मिली
अमूल्य धरोहर को कौन सम्हाले
बस यही नहीं जान रहे।
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कण-कण नेह से भीगे
रंगों की रंगीनीयों से मन भरमाया।
अप्रतिम सौन्दर्य निरख मन हर्षाया।
घटाओं से देखो रोशनी है झांकती,
कण-कण नेह से भीगे, आनन्द छाया।
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शब्द और भाव
बड़े सुन्दर भाव हैं
दया, करूणा, कृपा।
किन्तु कभी-कभी
कभी-कभी क्यों,
अक्सर
आहत कर जाते हैं
ये भाव
जहां शब्द कुछ और होते हैं
और भाव कुछ और।
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चिन्ता में पड़ी हूँ मैं
सब्ज़ी वाला आया न, सुबह से द्वार खड़ी हूँ मैं
आते होंगे भोजन के लिए, चिन्ता में पड़ी हूँ मैं
स्कूटी मेरी पंक्चर खड़ी, मण्डी तक जाऊँ कैसे
काम में हाथ बंटाया करो कितनी बार लड़ी हूँ मैं
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मानवता को मुंडेर पर रख
आस्था, विश्वास,श्रद्धा को हम निर्जीव पत्थरों पर लुटा रहे हैं
अधिकारों के नाम पर जाति-धर्म,आरक्षण का विष पिला रहे हैं
अपने ही घरों में विष-बेल बीज ली है,जानते ही नहीं हम
मानवता को मुंडेर पर रख,अपना घर फूंक ताली बजा रहे हैं
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उम्र का एक पल और पूरी ज़िन्दगी
पता ही नहीं लगा
उम्र कैसे बीत गई
अरे ! पैंसठ की हो गई मैं।
अच्छा !!
कैसे बीत गये ये पैंसठ वर्ष,
मानों कल की ही घटना हो।
स्मृतियों की छोटी-सी गठरी है
जानती हूं
यदि खोलूंगी, खंगालूंगी
इस तरह बिखरेगी
कि समझने-समेटने में
अगले पैंसठ वर्ष लग जायेंगे।
और यह भी नहीं जानती
हाथ आयेगी रिक्तता
या कोई रस।
और कभी-कभी
ऐसा क्यों होता है
कि उम्र का एक पल
पूरी ज़िन्दगी पर
भारी हो जाता है
और हम
दिन, महीने, साल,
गिनते रह जाते हैं
लगता है मानों
शताब्दियां बीत गईं
और हम
अपने-आपको वहीं खड़ा पाते हैं।