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वर्ष 1959 से लेकर 1983 तक मैं किसी न किसी रूप में विद्यार्थी रही। विविध अनुभव रहे। किन्तु पता नहीं क्यों सुनहरी स्मृतियाँ नहीं हैं मेरे पास।
मुझे बचपन से ही मंच पर चढ़कर बोलना, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना बहुत अच्छा लगता था। मेरा उच्चारण एवं स्मरण-शक्ति भी अच्छी थी। सब पसन्द भी करते थे किन्तु सदैव किसी न किसी कारण से मेरा नाम प्रतियोगिताओं से कट जाता था और मैं रोकर रह जाती थी। अध्यापक कहते सबसे अच्छा इसने ही बोला किन्तु बाहर भेजते समय किसी और का नाम चला जाता और मैं मायूस होकर रह जाती।
जब कालेज पहुंची तो मैंने सोचा अब तो भेद-भाव नहीं होगा और यहां मेरी योग्यता को वास्तव में ही देखा जायेगा। किन्तु वहां तो पहले से ही एक टीम चली आ रही थी और हर जगह उसका ही चयन होता था । यहां भी वही हाल।
तभी कालेज में हिन्दी साहित्य परिषद का गठन हुआ और मैं उसकी सदस्य बन गई। कहा गया कि आप यहां कविता-कहानी आदि कुछ भी सुना सकते हैं। मेरे घर में तो पुस्तकों का भण्डार था। एक पुस्तक से मैंने निम्न पंक्तियाँ सुनाईं 1972 की बात कर रही हूं
हर आंख यहां तो बहुत रोती है
हर बूंद मगर अश्क नहीं होती है
देख के रो दे जो ज़माने का गम
उस आंख से जो आंसू झरे मोती है
****-*****
सबने समझा यह मेरी अपनी लिखी है और मुझे बहुत सराहना मिली। तब मुझे लगा कि मैं अपनी पहचान कविताएं लिख कर ही क्यों न बनाउं। किन्तु समझ नहीं थी।
फिर उसके कुछ ही दिन बाद कालेज में ही वाद-विवाद प्रतियोगिता थी, संचालक ने मेरा नाम ही नहीं पुकारा। बाद में मैंने पूछा कि सूची में मेरा भी नाम था तो बोले कि मेरा ध्यान नहीं गया।
मैं आहत हुई और मैंने सोचा अब मैं कविताएं लिखूंगी जो यहां कोई नहीं लिखता और अपनी अलग पहचान बनाउंगी। उस दिन मैंने इसी भूलने के विषय पर अपनी पहली मुक्त-छन्द कविता लिखी ।
चाहे इसे शिक्षकों द्वारा किये जाने वाला भेद-भाव कहें अथवा उनकी भूल, किन्तु मेरे लिए लेखन का नवीन संसार उन्मुक्त हुआ जहां मैं आज तक हूं।
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विनम्रता कहां तक
आंधी आई घटा छाई विनम्र घास झुकी, मुस्काई
वृक्षों ने आंधी से लड़ने की आकांक्षा जतलाई
झुकी घास सदा ही तो पैरों तले रौंदी जाती रही
धराशायी वृक्षों ने अपनी जड़ों से फिर एक उंचाई पाई
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पत्थरों के भीतर भी पिघलती है जिन्दगी
प्यार मनुहार धार-धार से संवरती है जिन्दगी
मन ही क्या पत्थरों के भीतर भी पिघलती है जिन्दगी
यूं तो ठोकरे खा-खाकर भी जीवन संवर जाता है
यही तो भाव हैं कि सिर पर सूरज उगा लेती है जिन्दगी
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किसे अपना समझें किसे पराया
किसे अपना समझें किसे पराया
मन के द्वार पर पहरे लगाकर बैठे हैं आज।
कोई भाव पढ़ न ले, गांठ बांध कर बैठे हैं आज।
किसे अपना समझें, किसे पराया, समझ नहीं,
अपनों को ही पराया समझ कर बैठे हैं आज।
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ताउते एवं यास तूफ़ान के दृष्टिगत रचना
अपनी सीमाओं का
अतिक्रमण करते हुए
लहरें आज शहरों में प्रवेश कर गईं।
उठते बवंडर ने
सागर में कश्तियों से
अपनी नाराज़गी जताई।
हवाओं की गति ने
सब उलट-पलट दिया।
घटाएं यूं घिरीं, बरस रहीं
मानों कोई आतप दिया।
प्रकृति के सौन्दर्य से
मोहित इंसान
इस रौद्र रूप के सामने
बौना दिखाई दिया।
प्रकृति संकेत देती है,
आदेश देती है, निर्देश देती है।
अक्सर
सम्हलने का समय भी देती है।
किन्तु हम
सदा की तरह
आग लगने पर
कुंआ खोदने निकलते हैं।
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एक अपनापन यूं ही
सुबह-शाम मिलते रहिए
दुआ-सलाम करते रहिए
बुलाते रहिए अपने घर
काफ़ी-चाय पिलाते रहिए
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विरोध से डरते हैं
सहनशीलता के दिखावे की आदत-सी हो गई है
शालीनता के नाम पर चुप्पी की बात-सी हो गई है
विरोध से डरते हैं, मुस्कुराहट छाप ली है चेहरों पर
सूखे फूलों में खुशबू ढूंढने की आदत-सी हो गई है।
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जीवन में यह उलट-पलट होती है
बहुत छोटी हूं मैं
कुछ समझने के लिए।
पर
इतनी छोटी भी तो नहीं
कि कुछ भी समझ न आये।
मेरे आस-पास लोग कहते हैं
हर औरत मां होती है
बहन होती है,पत्नी होती है
बेटी और सखा होती है।
फिर मुझे देखकर कहते हैं
देखो,कष्टों में भी मुस्कुरा लेती है
ममतामयी, देवी है देवी।
मुझे नहीं पता
औरत क्या, मां क्या,
बेटी क्या, बहन क्या, देवी क्या
और ममता क्या होती है।
मुझे नहीं पता
मेरी गोद यह में कौन है
बेटा है, भाई है
पति है, या कोई और।
बहुत सी बातें
नहीं समझ पाती हूं
और जो समझ जाती हूं
वह भी कहां समझ पाती हूं।
लोग कहते हैं, देखो
भाई की देख-भाल करती है।
बड़ा होकर यही तो है
इसकी रक्षा करेगा
राखी बंधवायेगा, हाथ पीले करेगा,
अपने घर भेजेगा।
कोई समझायेगा मुझे
जीवन में यह उलट-पलट कैसे होती है।
बहुत सी बातें
नहीं समझ पाती हूं
और जो समझ जाती हूं
वह भी कहां समझ पाती हूं।
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प्रण का भाव हो
निभाने की हिम्मत हो
तभी प्रण करना कभी।
हर मन आहत होता है
जब प्रण पूरा नहीं करते कभी ।
कोई ज़रूरी नहीं
कि प्राण ही दांव पर लगाना,
प्रण का भाव हो,
जीवन की
छोटी-छोटी बातों के भाव में भी
मन बंधता है, जुड़ता है,
टूटता है कभी ।
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जीवन में वादों का, इरादों का
कायदों का
मन सोचता है सभी।
-
चाहे न करना प्रण कभी,
बस छोटी-छोटी बातों से,
भाव जता देना कभी ।
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तुम्हारा अंहकार हावी रहा मेरे वादों पर
जीवन में सारे काम
सदा
जल्दबाज़ी से नहीं होते।
कभी-कभी
प्रतीक्षा के दो पल
बड़े लाभकारी होते हैं।
बिगड़ी को बना देते हैं
ठहरी हुई
ज़िन्दगियों को संवार देते हैं।
समझाया था तुम्हें
पर तुम्हारा
अंहकार हावी रहा
मेरे वादों पर।
मैंने कब इंकार किया था
कि नहीं दूंगी साथ तुम्हारा
जीवन की राहों में।
हाथ थामना ही ज़रूरी नहीं होता
एक विश्वास की झलक भी
अक्सर राहें उन्मुक्त कर जाती है।
किन्तु
तुम्हारा अंहकार हावी रहा,
मेरे वादों पर।
अब न सुनाओ मुझे
कि मैं अकेले ही चलता रहा।
ये चयन तुम्हारा था।
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पोखर भैया ताल-तलैया
ताल-तलैया, पोखर भैया,
मैं क्या जानू्ं
क्या होते सरोवर मैया।
बस नाम सुना है
न देखें हमने भैया।
गड्ढे देखे, नाले देखे,
सड़कों पर बहते परनाले देखे,
छप-छपाछप गाड़ी देखी।
सड़कों पर आबादी देखी।
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जब-जब झड़ी लगे,
डाली-डाली बहके।
कुहुक-कुहुक बोले चिरैया ।
रंग निखरें मन महके।
मस्त समां है,
पर लोगन को लगता डर है भैया।
सड़कों पर होगा
पोखर भैया, ताल-तलैया
हमने बोला मैया,
अब तो हम भी देखेंगे ,
कैसे होते हैं ताल-तलैया,
और सरोवर, पोखर भैया ।