Write a comment
More Articles
फिर उनके कंधों पर बंहगी ढूंढते हैं
अपनी संतान के कंधों पर
हमने लाद दिये हैं
अपने अधूरे सपने,
अपनी आशाएं –आकांक्षाएं,
उनके मन-मस्तिष्क पर
ठोंक कर बैठे हैं
अपनी महत्वाकांक्षाओं की कीलें,
उनकी इच्छाओं-अनच्छिाओं पर
बनकर बैठे हैं हम प्रहरी।
आगे, आगे और आगे
निकल लें।
जितनी दूर निकल सकें,
निकल लें।
सबसे आगे, और आगे, और आगे।
धरा को छोड़
आकाश को निगल ले।
और वे भागने लगे हैं
हमसे दूर, बहुत दूर ।
हम स्वयं ही नहीं जानते
उनके कंधों पर कितना बोझ डालकर
किस राह पर उन्हें ढकेल रहे हैं हम ।
धरा के रास्ते बन्द कर दिये हैं
उनके लिए।
बस पकड़ना है तो
आकाश ही आकाश है।
फिर शिकायत करते हैं
कुछ नहीं कर रही नई पीढ़ी
हमारे लिए ।
फिर उनके कंधों पर बंहगी ढूंढते हैं !!!
कमाल है !!!!
Share Me
फ़ागुन की आहट
फ़ागुन की आहट
मानों जीवन में
मधुर सी गुनगुनाहट
हवाओं में फूलों की महक
नव-पल्लव अंकुरित
वृक्षों की शाखाओं से
पंछियों की
मधुर कलरव
पत्तों की मरमर
तृण मानों
ओस की बूंदों से
कर रहे शरारत।
भीगा-भीगा-सा मौसम
कभी धूप कभी छांव
कहता है
ले ले आनन्द
पता नहीं
फिर कब मिलेगा यह जीवन।
Share Me
हमारा छोटा-सा प्रयास
ये न समझना
कि पीठ दिखाकर जा रहे हैं हम
तुमसे डरकर भाग रहे हैं हम
चेहरे छुपाकर जा रहे हैं हम।
क्या करोगे चेहरे देखकर,
बस हमारा भाव देखो
हमारा छोटा-सा प्रयास देखो
साथ-साथ बढ़ते कदमों का
अंदाज़ देखो।
तुम कुछ भी अर्थ निकालते रहो
कितने भी अवरोध बनाते रहो
ठान लिया है
जीवन-पथ पर यूँ ही
आगे बढ़ना है
दुःख-सुख में
साथ निभाना है।
बस
एक प्रतीक-मात्र है
तुम्हें समझाने का।
Share Me
सोचने का वक्त ही कहां मिला
ज़िन्दगी की खरीदारी में मोल-भाव कभी कर न पाई
तराजू लेकर बैठी रही खरीद-फरोख्त कभी कर न पाई
कहां लाभ, कहां हानि, सोचने का वक्त ही कहां मिला
इसी उधेड़बुन में उलझी जिन्दगी कभी सम्हल न पाई
Share Me
वैज्ञानिक भाषा को रोमन में लिखकर
शिक्षा से बाहर हुई, काम काज की भाषा नहीं, हम मानें या न मानें
हिन्दी की हम बात करें , बच्चे पढ़ते अंग्रेज़ी में, यह तो हम हैं जाने
विश्वगुरू बनने चले , अपने घर में मान नहीं है अपनी ही भाषा का
वैज्ञानिक भाषा को रोमन में लिखकर हम अपने को हिन्दीवाला मानें
Share Me
प्रकृति का सौन्दर्य निरख
सांसें
जब रुकती हैं,
मन भीगता है,
कहीं दर्द होता है,
अकेलापन सालता है।
तब प्रकृति
अपने अनुपम रूप में
बुलाती है
समझाती है,
खिलते हैं फूल,
तितलियां पंख फैलाती हैं,
चिड़िया चहकती है,
डालियां
झुक-झुक मन मदमाती हैं।
सब कहती हैं
समय बदलता है।
धूप है तो बरसात भी।
आंधी है तो पतझड़ भी।
सूखा है तो ताल भी।
मन मत हो उदास
प्रकृति का सौन्दर्य निरख।
आनन्द में रह।
Share Me
सम्मान से जीना है रूपसी
आंखों की भाषा समझे न, निष्ठुर है यह जग रूपसी
आवरण हटा कर बोल, मन की बात खोल रूपसी
तेरी इस साज-सज्जा से यूं ही भ्रमित हैं सब देख तो
न डर, हो निडर, गर” सम्मान से जीना है रूपसी
Share Me
गगन
गगन
बादलों के आंचल में
चांद को समेटकर
छुपा-छुपाई खेलता रहा।
और हम
घबराये,
बौखलाये-से
ढूंढ रहे।
Share Me
ऐसी ही है ज़िन्दगी
पौधे भी बड़े अजीब हुआ करते हैं
कुछ सदाबहार
कुछ मौसमी और कुछ
अपने मन से जिया करते हैं।
जब चाहा खिल जाते हैं
जब चाहा मुॅंह छुपाकर
बैठ जाते हैं।
किसी को
प्रतिदिन, ढेर-सा पानी चाहिए
कोई बंजर-सी भूमि में ही
खिल-खिल जाते हैं।
कई बिना फूलों के ही
मुस्कुरा-मुस्कुराकर
दिल मोह ले जाते हैं।
कोई
दिन की चाहत लिए खिलता है
और कोई
रात में गुनगुनाहट बिखेरता है
कहीं झर-झर-झरते पल्ल्व
रंग-बिरंगी दुनिया
सजा जाते हैं।
कहीं ज़रा-सा बीज बोते ही
आकाश छू जाते हैं
और कई सालों-साल लगा देते हैं।
धरा का मोह छूटता नहीं
गगन की आस छोड़ता नहीं।
ऐसी ही है ज़िन्दगी।
Share Me
कौन है अपना कौन पराया कैसे जानें हम
अधिकार भी व्यापार हो गये हैं
तंग गलियों में हथियार हो गये हैं।
किसको मारें किसको काटें
कौन जलेगा, कहां मरेगा
अब क्या जानें हम।
अंधेरी राहों में भटक रहे हैं
अपने ही चेहरों से अनजाने हम।
दिन की भटकन छूट गई
रातें भीतर बिखर गईं
कौन है अपना कौन पराया
कैसे जानें हम।
अनजानी राहों पर
किसके पीछे
क्यों निकल पड़े हैं
इतना भी न जाने हम।
अपना ही घर फूंक रहे हैं,
राख में मोती ढूंढ रहे हैं,
श्मशानों में न घर बनते
इतना कब जानेंगे हम।