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पुष्प निःस्वार्थ भाव से नित बागों को महकाते।
पंछी को देखो नित नये राग हमें मधुर सुनाते।
चंदा-सूरज दिग्-दिगन्त रोशन करते हरपल,
हम ही क्यों छल-कपट में उलझे सबको बहकाते।
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सम्मान उन्हें देना है
आपको नहीं लगता
इधर हम कुछ ज़्यादा ही
आंसू बहाने लगे हैं,
उनकी कर्त्तव्यनिष्ठा पर
प्रश्नचिन्ह लगाने लगे हैं।
उनके समर्पण, देशप्रेम को
भुनाने में लगे हैं,
उन्होंने चुना है यह पथ,
इसलिए नहीं
कि आप उनके लिए
जार-जार रोंयें
उनके कृत्यों को
महिमामण्डित करें
और अपने कर्त्तव्यों से
हाथ धोयें,
कुछ शब्दों को घोल-घोलकर
तब तक निचोड़ते रहें
जब तक वे घाव बनकर
रिसने न लगें।
वे अपना कर्त्तव्य निभा रहे हैं
और हमें समझा रहे हैं।
देश के दुश्मन
केवल सीमा पर ही नहीं होते,
देश के भीतर,
हमारे भीतर भी बसे हैं।
हम उनसे लड़ें,
कुछ अपने-आप से भी करें
न करें दया, न छिछली भावुकता परोसें
अपने भीतर छिपे शत्रुओं को पहचानें
देश-हित में क्या करना चाहिए
बस इतना जानें।
बस यही सम्मान उन्हें देना है,
यही अभिमान उन्हें देना है।
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खाली कागज़ पर लकीरें खींचता रहता हूं मैं
खाली कागज पर लकीरें
खींचती रहती हूं मैं।
यूं तो
अपने दिल का हाल लिखती हूं,
पर सुना नहीं सकती
इस जमाने को,
इसलिए कह देती हूं
यूं ही
समय बिताने के लिए
खाली कागज पर लकीरें
खींचती रहती हूं मैं।
जब कोई देख लेता है
मेरे कागज पर
उतरी तुम्हारी तस्वीर,
पन्ना पलट कर
कह देती हूं,
यूं ही
समय बिताने के लिए
खाली कागज पर
लकीरें
खींचती रहती हूं मैं।
कोई गलतफहमी न
हो जाये किसी को
इसलिए
दिल का हाल
कुछ लकीरों में बयान कर
यूं ही
खाली कागज पर
लकीरें
खींचती रहती हूं मैं।
पर समझ नहीं पाती,
यूं ही
कागज पर खिंची खाली लकीरें
कब रूप ले लेती हैं
मन की गहराईयों से उठी चाहतों का
उभर आती है तुम्हारी तस्वीर ,
डरती हूं जमाने की रूसवाईयों से
इसलिए
अब खाली कागज पर लकीरें
भी नहीं खींचती हूं मैं।
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कुछ नया
मैं,
निरन्तर
टूट टूटकर,
फिर फिर जुड़ने वाली,
वह चट्टान हूं
जो जितनी बार टूटती है
जुड़ने से पहले,
उतनी ही बार
अपने भीतर
कुछ नया समेट लेती है।
मैं चाहती हूं
कि तुम मुझे
बार बार तोड़ते रहो
और मैं
फिर फिर जुड़ती रहूं।
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कुछ सपने कुछ अपने
कहने की ही बातें है कि बीते वर्ष अब विदा हुए
सारी यादें, सारी बातें मन ही में हैं लिए हुए
कुछ सपने, कुछ अपने, कुछ हैं, जो खो दिये
आने वाले दिन भी, मन में हैं एक नयी आस लिए
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कशमकश में बीतता है जीवन
सुख-दुख तो जीवन की बाती है
कभी जलती, कभी बुझती जाती है
यूँ ही कशमकश में बीतता है जीवन
मन की भटकन कहाँ सम्हल पाती है।
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अंदाज़ उनका
उलझा कर गया अंदाज़ उनका
बहका कर गया अंदाज़ उनका
अंधेरे में रोशनियाँ हैं चमक रही
पराया कर गया अंदाज़ उनका
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प्रकृति मुस्काती है
मधुर शब्द
पहली बरसात की
मीठी फुहारों-से होते हैं
मानों हल्के-फुल्के छींटे,
अंजुरियों में
भरती-झरती बूंदें
चेहरे पर रुकती-बहतीं,
पत्तों को रुक-रुक छूतीं
फूलों पर खेलती,
धरा पर भागती-दौड़ती
यहां-वहां मस्ती से झूमती
प्रकृति मुस्काती है
मन आह्लादित होता है।
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ककहरा जान लेने से ज़िन्दगियां नहीं बदल जातीं
इस चित्र को देखकर सोचा था,
आज मैं भी
कोई अच्छी-सी रचना रचूंगी।
मां-बेटी की बात करूंगी।
लड़कियों की शिक्षा,
प्रगति को लेकर बड़ी-बड़ी
बात करूंगी।
पर क्या करूं अपनी इस सोच का,
अपनी इस नज़र का,
मुझे न तो मां दिखाई दी इस चित्र में,
किसी बेटी के लिए आधुनिकता-शिक्षा के
सपने बुनती हुई ,
और न बेटी एवरेस्ट पर चढ़ती हुई।
मुझे दिखाई दे रही है,
एक तख्ती परे सरकती हुई,
कुछ गुम हुए, धुंधलाते अक्षरों के साथ,
और एक छोटी-सी बालिका।
यहां कहां बेटी पढ़ाने की बात है।
कहां कुछ सिखाने की बात है।
नहीं है कोई सपना।
नहीं है कोई आस।
जीवन की दोहरी चालों में उलझे,
तख्ती, चाक और लिखावट
तो बस दिखावे की बात है।
एक ओर तो पढ़ ले,पढ़ ले,
का राग गा रहे हैं,
दूसरी ओर
इस छोटी सी बालिका को
सजा-धजाकर बिठा रहे हैं।
कोई मां नहीं बुनती
ऐसे हवाई सपने
अपनी बेटियों के लिए।
जानती है गहरे से,
ककहरा जान लेने से
ज़िन्दगियां नहीं बदल जातीं,
भाव और परम्पराएं नहीं उलट जातीं।
.
आज ही देख रही है ,
उसमें अपना प्रतिरूप।
.
सच कड़वा होता है
किन्तु यही सच है।
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हिन्दी कहां गई कि इसको अपना मनवाना है
हिन्दी कहां गई कि इसको अपना मनवाना है
हिन्दी मेरा मान है,
मेरा भारत महान है।
घूमता जहान है।
किसकी भाषा,
कौन सी भाषा,
किसको कितना ज्ञान है।
जबसे जागे
तब से सुनते,
हिन्दी को अपनाना है।
समझ नहीं पाई आज तक
कहां से इसको लाना है।
जब है ही अपनी
तो फिर से क्यों अपनाना है।
कहां गई थी चली
कि इसको
फिर से अपना मनवाना है।
’’’’’’’’’.’’’’’’
कुछ बातें
समय के साथ
समझ से बाहर हो जाती हैं,
उनमें हिन्दी भी एक है।
काश! कविताएं लिखने से,
एक दिन मना लेने से,
महत्व बताने से,
किसी का कोई भला हो पाता।
मिल जाती किसी को सत्ता,
खोया हुआ सिंहासन,
जिसकी नींव
पिछले 72 वर्षों से
कुरेद रहे हैं।
अपनी ही
भाषाओं और बोलियों के बीच
सत्ता युद्ध करवा रहे हैं।
कबूतर के आंख बंद करने मात्र से
बिल्ली नहीं भाग जाती।
काश!
यह बात हमारी समझ में आ जाती,
चलने दो यारो
जैसा चल रहा है।
हां, हर वर्ष
दो-चार कविताएं लिखने का मौका
ज़रूर हथिया ले लेना
और कोई पुरस्कार मिले
इसका भी जुगाड़ बना लेना।
फिर कहना
हिन्दी मेरा मान है,
मेरा भारत महान है।
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व्रत एवं उपवास
‘‘व्रत’’ एवं ‘‘उपवास’’ हमारे पास ये दो शब्द हैं जिन्हें हम प्रायः एक ही अभिप्राय अथवा अर्थ में प्रयोग करते हैं अथवा कह सकते हैं कि पर्यायवाची शब्दों के रूप में प्रयोग करते हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि पर्यायवाची शब्दों में भी अर्थ-भेद होता है।
व्याकरण के अनुसार ‘‘व्रत’’ शब्द का अर्थ ‘‘उपवास’’ के अतिरिक्त ‘‘शपथ, प्रण, क़सम, सौगंध’’ भी है। किन्तु हम वर्तमान में उपवास के लिए व्रत शब्द का ही अधिक प्रयोग करते हैं। वास्तव में उपवास करना भी एक व्रत है, सम्भवतः इसी कारण हम दोनों शब्दों का अर्थभेद भूलकर एक ही अभिप्राय से इनका प्रयोग करने लगे हैं।
क्या कभी आपने इस ओर ध्यान दिया है कि हमारे सारे व्रत बदलते मौसम में आते हैं। पहले नवरात्रि मार्च-अप्रैल में तथा दूसरी नवरात्रि सितम्बर-अक्तूबर में। इस समय मौसम बदलता है। प्रथम शीत ऋतु से ग्रीष्म में, द्वितीय सितम्बर-अक्तूबर में ग्रीष्म ऋतु से शीत में। शिवरात्रि पर्व भी मार्च में होता है और जन्माष्टी प्रायः अगस्त में, जब वर्षा ऋतु हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करती है। उपरान्त तीज, करवाचौथ, होई आदि उपवास के पर्व भी इसी मौसम में आते हैं। ग्रीष्म ऋतु में केवल जून में एक उपवास है निर्जलाकादशी। क्षेत्रानुसार भी अलग-अलग पर्व एवं व्रत-उपवास का विधान है।
बदलते मौसम में जहाँ हमारे खान-पान में परिवर्तन होने लगता है वहाँ हमारी पाचन-शक्ति भी प्रभावित होती है, निर्बल होने लगती है। उपवास एवं उपवास में विशेष एवं विविध प्रकार का खान-पान हमारे शरीर एवं पाचन-तंत्र को व्यवस्थित बनाने में सहायक होते हैं।
भारतीय मान्यताओं एवं हमारे भारतीय परिवारों में व्रत एवं उपवास एक अनुष्ठान है, पूजा विधि है, दिन, पर्व, काल की मान्यताएँ एवं परम्पराएँ हैं। स्वच्छता, पवित्रता, कठोर नियम, सबका बन्धन है। इसके अतिरिक्त माह एवं सप्ताह में कुछ दिन अधिक विशेष माने गये हैं, उन दिनों में भी खान-पान एवं व्रत का बन्धन माना जाता है, जैसे संक्राति, मंगलवार, बृहस्पतिवार, शनिवार, एकादशी आदि। अनेक परिवारों में इन में से किसी दिन खान-पान की शुद्धता, व्रत आदि का ध्यान किया जाता है। यह माना जाता है कि यदि सप्ताह में एक दिन उपवास किया जाये तो पाचन-शक्ति सबल रहती है एवं रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। कुछ पदार्थों का भी निषेध रहता है।
इन सबके साथ ही श्रृंगार की विधियाँ भी हैं। जैसे करवाचौथ एवं तीज पर मेंहदी लगाना। मेंहदी का प्रभाव भी मानव शरीर को शीतलता प्रदान करता है, यह त्वचा के लिए लाभदायक होती है एवं रक्त प्रवाह को भी प्रभावित करती है। अधिक ज्वर की स्थिति में पैरों के तलवों में मेंहदी का लेप किया जाता था।
इन व्रतों की भोज्य सामग्री शरीर को मौसम के अनुकूल बनाने के लिए एवं पाचन-तंत्र को सशक्त बनाने में सहायक होती है। यहाँ यह भी महत्वपूर्ण है कि भोजन में उन्हीं खाद्य-पदार्थों को सम्मिलित किया जाता है जो उसी मौसम के हों।
ये सब मान्यताएँ एवं पर्व पर्यावरण के अनुकूल, मानसिक एवं शारीरिक सन्तुलन नियन्त्रित रखने के लिए बने हैं। यह भी एक पूरा मौखिक ज्ञान-विज्ञान है जो महिलाएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी सौंपती थीं।
किन्तु काल प्रवाह में, जीवन-शैली के परिवर्तन के साथ, दिनचर्या की कार्यविधियों के अनुकूल व्यवस्थाएँ बदलने लगीं, परम्पराएँ तिरोहित होने लगीं एवं मान्यताएँ भी। क्षेत्रानुसार मनाए जाने वाले तीज-त्योहारों, व्रतों का क्षेत्र विस्तृत होने लगा, सब मिश्रित होने लगा। इसमें कुछ भी गलत-ठीक नहीं होता, स्वाभाविक होता है। परिवार सीमित होने लगे, एकल परिवार बनने लगे और महिलाएँ घर से बाहर निकलीं। इन सब एवं अन्य अनेक कारणों से व्यवस्थाओं पर हमारा नियन्त्रण नहीं रह गया और बहुत कुछ सुविधानुसार परिवर्तित हो गया अथवा बदली हुई जीवन-शैली में हम स्वयँ को ढालने लगे जो अत्यावश्यक था। जितना स्मरण है, सुविधा है, आवश्यक है, हमारी विधियाँ वहीं तक सीमित होने लगीं। जो सब करते हैं वही हम कर लेते हैं।
बदली हुई जीवन-शैली, पारिवारिक व्यवस्थाएँ, बाहरी दायित्वों के कारण व्रतों के लिए बाज़ार स्वयँमेव ही सुविधाएँ एवं सामग्री उपलब्ध करवाने लगा। पहले हर वस्तु घर में बनाई जाती थी, किन्तु अब न वह कला बची है, न समय, न ही आवश्यकता। रसोई बदल गई, खान-पान के नियम बदल गये, समय-निर्धारण खो गया। रसोई घर स्टैंडिग हो गये, नियम स्वतः भंग होते चले गये, शायद यह कहना सकारात्मक होगा कि सुविधानुसार एवं बदली जीवन-शैली के अनुसार परिवर्तन स्वीकार कर लिए गये।
यही जीवन है और इसे हमें स्वीकार करना ही होगा अथवा करना ही चाहिए ऐसा मेरे विचार हैं।